भक्तों से भयभीत भगवान


भक्तों से भयभीत भगवान

            मैं उन आस्थावान भाग्यवान भक्तों में नहीं हूँ जो नित्यप्रति मन्दिर जाया करते हैं, किन्तु कभी-कभी हो लिया करता हूँ, क्यों कि भगवान से रत्तीभर भी विरोध नहीं है । मन्दिर जाना, जल उढेलना, फूल-माला, धूप-दीप-नैवेद्य अर्पण करना और चलते-चलते जितना दिया उससे सौगुना व्याज सहित वापस पाने की कामना का दायित्व बोझ देकर वापस आजाना—यदि यही भक्ति की परिभाषा है तो हे ईश्वर ! ऐसी भक्ति मुझे कभी ना देना।

शहर के जानेमाने पितामहेश्वर मुहल्ले में ही रहना हो रहा है कुछ वर्षों से । तीसरी मंजिल की छत से ही सीधे ताक-झांक कर लिया करता हूँ कंगूरे, सभामण्डप और परिसर में बने विशाल सरोवर का। मन्दिर की घंटा-घड़ियाल की सुमधुर ध्वनियाँ कानों को नियमित तृप्त करती रहती हैं प्रातः साढ़े पांच बजे से रात्रि पौने दश बजे तक । मन्दिर से दूर बैठे ही, मन को बड़ी शान्ति मिलती है । वहां तो सिर्फ भीखमंगों (भक्तों) का कोलाहल है।

किन्तु आज छत पर उस ओर झांकने गया तो सरोवर की सीढ़ियों पर सिसकियाँ सुनाई पड़ी । उत्सुकता बढ़ी । अपने मकान की सीढ़ियाँ उतरकर वहां जा पहुँचा । बड़े से फाटक के बीच छोटा हिस्सा आधा खुला हुआ था, जिससे सिर झुका कर अन्दर घुसा । नजरें दौड़ाया सीढ़ियों पर चारों ओर । कहीं कोई दिखलाई न पड़ा। शब्दभेदी वाण तो नहीं चला सकता, पर सिसकियों की डोर थामे आगे बढ़ने लगा। 

हालाकि चारों ओर भरपूर रौशनी की नयी व्यवस्था हुयी है, फिर भी कोने में थोड़ा अन्धेरा था । सिसकियों का स्रोत वहीं अनुमानित हुआ । अभी हाल में ही केन्द्रीय सरकार की योजना के तहत करोड़ों रुपये खर्च कर सरोवर और परिसर को नया लुकदिया गया है । इसी तरह का सौन्दर्यीकरण नगर के अन्य सरोवरों का भी हुआ है। अभी पन्द्रह-बीस दिनों पहले ही नगरवासियों को समर्पित हुआ है अद्भुत नयनाभिराम नये कलेवर में पितामहेश्वर का पावन सरोवर ।

वहीं उस कोने में अन्धेरे का लाभ लेते हुए बैठे, किसी व्यथित की सिसकियाँ सुनाई पड़ी थी मुझे। उत्सुकता और सहानुभूति भरे मनोभावों के साथ समीप पहुँचने पर जो कुछ भी  दिखा, उसपर आँख-कान विश्वास करने को आसानी से तैयार नहीं हो रहे थे । क्या आज मेरा सौभाग्य इतना जागृत हो उठा है कि साक्षात् माता-पार्वती और पितामहेश्वर का दिव्य दर्शन हो गया इन्हीं चर्म चक्षुओं से बिना व्यास-प्रदत्त दिव्यदृष्टि के ही !

आँखें मलकर स्वयं को आश्वस्त किया । सच में देवी पार्वती ही थी और साथ ही देवाधिदेव महेश्वर भी। सिसकियाँ देवी के गले से ही निकल रही थी और आशुतोष उन्हें तुष्ट करने का प्रयास कर रहे थे। किन्तु प्रियतम के बारम्बार के स्नेहस्पर्श के पश्तात् भी देवी का करुण क्रन्दन कम नहीं हो पा रहा था । उनका विलाप  और प्रलाप जारी था — ...मैं हजार बार कह चुकी हूँ- जंगल, पहाड़, नगर, ग्राम कहीं भी अब रहने लायक नहीं है । हमें कहीं और चल चलना चाहिए। किन्तु आप तो आशुतोष ठहरे, जरा सा जल उढेल दिया किसी ने और डमरु बजाने लगे । पिछले साल इस सरोवर का जीर्णोद्धार कार्य प्रारम्भ हुआ था, तब आपने यही भरोसा दिलाया था कि अब सब ठीक हो जायेगा । कूड़े-कचरे का अम्बार अब जरा भी नहीं रहेगा यहाँ । आपके कहने पर मैं अपना विचार बदल ली थी कहीं अन्यत्र जाने का । हालांकि भक्तों पर से मेरा विश्वास कबका उठ चुका है। इन लक्ष-सहस्र मूर्ख भक्तों से एक ज्ञानी नास्तिक कहीं अधिक प्रिय है मुझे । कम से कम वो इनकी तरह कूड़े तो नहीं फैलाता । जयश्रीराम कह कर किसी का गला तो नहीं रेतता । धर्म के नाम पर इनकी तरह सरेआम आगजनी और लूटपाट तो नहीं मचाता । इन स्वार्थी सिरफिरे भक्तों का क्या भरोसा- कब क्या कर बैठे । बे-दाम जल भर लिए और उढेल दिए मूर्ति पर । बांस की तिल्लियों पर लिपटा लोहबान और न जाने क्या-क्या खाक-कोयला जला कर ठीक नाक के नीचे खोंस दिये दमघुटने के लिए और कर्कश ध्वनि करते हुए मांगपत्र प्रस्तुत कर दिए । इन आलसियों ने आरती के लिए भी मशीनें लगा ली हैं। शंख, नगाड़े, झांझ, मान्दर, घंटे, घड़ियाल सब उसीमें बजते हैं- समवेत स्वरों में । मांगने की भी बुद्धि नहीं है मूर्खों को । जीती-जागती साक्षात् देवियों की रोज बलि दे रहे हैं, प्रताड़ित कर रहे हैं, बलात्कार कर रहे हैं, जीवित जला रहे हैं। घर की लक्ष्मी सिसक रही है और उलूकवाहिनी लक्ष्मी की पूजा हो रही है। अवसर पाते ही सड़क, मैदान, गली-कूचों में प्रदर्शनी लगा देते हैं अपनी भक्तिभावना का, जहाँ भक्ति का नामोनिशान नहीं, भोंड़ापन, आडम्बर और प्रदर्शन का बाहुल्य होता है । बड़े-बड़े मंचों पर, सेमिनारों में भाषण देंगे पर्यावरण और स्वच्छता-अभियान पर और सारा कूड़ा ला फेकेंगे नदी-सरोवरों में विसर्जन के नाम पर । नदियों को कूड़ों से पाटकर अट्टालिकायें खड़ी कर लिए, कुँए-तालाबों को भी नहीं छोड़े । अभी सप्ताह भर पहले जिस चमचमाते सरोवर का लोकार्पण हुआ था, बिलकुल तहस-नहस कर डाला मूर्खों ने चन्द दिनों में ही । सूअर भी शरमा जाये इनकी गतिविधियों से... ।  

देवी का प्रलाप जारी था, शिव का सान्त्वना-संदेश भी जारी था— ...तुम व्यर्थ की चिन्ता न करो देवि ! ये स्वार्थी-महामूर्ख कभी न सुधरने की शपथ लिए बैठे हैं । कैलाश और स्वर्ग भी इन्हें दे दो तो पल भर में नरक बना डालेंगे । अच्छी से अच्छी व्यवस्था की भी धज्जियाँ उड़ा डालेंगे क्षण भर में । कोई भी नियम-कानून बना दो, इन पर कोई असर नहीं होने वाला है । ये पशु हैं, पशु ही रहेंगे । बल्कि पशुओं से भी निम्नतर मानसिकता है इनकी। मनुष्य बनने में इन्हें बहुत समय लगेगा । शायद बन भी न पायें । इसीलिए मैं, पशुपतिनाथ भी भागा फिरता हूँ ऐसे नालायक भक्तों से ।
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