मगोपाख्यान(बहत्तरपुर गीत)

                    शाकद्वीपीय पुरविमर्श

   इस धराधाम- जम्बुद्वीप में पूूर्व से रह रहे ब्राह्मण निस्तेज हो गए थे।कृष्ण- पुत्र शाम्ब का अर्यमा-याग-संकल्प बाधित होकर,अपूर्ण रह गया।
   इसे पूरा करने हेतु वैनतेय गरूड़जी ने शाकद्वीप से अठारह कुल, श्रेष्ठ ब्राह्मणों को लाने का श्रेय लिया।इस रोचक इतिहास को दुहराता यह सरस ग्राम्य गीत- मग शिरोमणि पंडित वृहस्पति पाठक जी की अनमोल कृति को श्री योगेश्वर आश्रम के  ‘दुर्लभ संग्रहालय’ से निकाल कर मगबन्धुओं की सेवा में प्रस्तुत कर रहा हूँ।

(पं.जी का परिचय गीतान्त में सम्मिलित है।)
    
एक समय था- जब वैवाहिक कार्यक्रमों में विभिन्न मांगलिक गीतों में श्रेष्ठ स्थान प्राप्त था इसे।शाकद्वीपीय का सामूहिक भोजन इस गीत के वगैर अधूरा सा माना जाता था।
    समय बदला,और हमने दो के वजाय चार कदम आगे बढ़कर साथ दिया समय का।जमीन तो कम हो ही गया- दिल उससे भी ज्यादा छोटा हो गया सिकुड़ कर।आर्थिकता के दौर में,नौकरी की गुलामी में,आत्मा को भी बन्धक रख दिये।जन्मभूमि से दूर होकर,कर्मभूमि को ही अगली पीढ़ी का जन्मभूमि बनाने को ‘विवश’ कम, प्रतिष्ठा अधिक मान बैठे।ऐसे में कुल-गोत्रादि से दूर हो जाना स्वाभाविक है।और जब कुल-गोत्र से ही दूर हो गये, फिर कुलाचार-गोत्रोच्चार का क्या मायने रह गया।
    बच्चों को न तो दादी की लोरी और परियों की कहानी मिली और न मिला दादाजी का गोद।बाबूजी ‘पापा’ हो गये।पापा को फुरसत कहाँ - आफिस के फाइल से और मम्मी को ‘घरफोड़ू’ ‘घरतोड़ू’ ‘एकता कपूरी’ सीरियलों से?और जब मम्मी-पापा व्यस्त हैं, तो बच्चे तो व्यस्त रहेंगे ही- फेशबुक-चैटिंग में।इस विकट परिस्थिति में पुरविमर्श कौन करे? वेद,उपवेद,शिखा,शाखा,सूत्र,पाद तो दूर, हम उद्गम को भी विसार लिए हैं।आई.टी.के युग में मगबन्धुओं में भी सक्रियता आयी है।दुनियाँ अब अंगुलियों के दायरे में सिमट गयी है,तो क्यों न इससे लाभान्वित हुआ जाय?

आइये गीत का रसास्वादन करें-
            
              श्री गणपतये नमः )।( ऊँ श्री भाष्कराय नमः         
                       बहत्तरपुर   
          शाकद्वीपीय पुर विमर्श-0-एक अधिकारिक ग्राम्य गीत
          रचयिता-मगशिरोमणि- श्री वृहस्पति पाठकजी    
                    संकलक- कमलेश पुण्यार्क

गणेशं गिरिजा कान्तं प्रणम्यादित्य मीश्वरम् ।
मगोपाख्यानकं गीतं वितनोति  वृहस्पतिः।।
गजवदनचरण शिर नाऊं, मगवृन्द विमल गुन गाऊंजी....
गजवदन चरण शिर नाऊं......(टेक)
भस्म अंग त्रिशूल डमरू सर्पहार मृगाजिनम्
जटामौलि त्रिनेत्र शशिधर बसहा चढ़ल दिगम्बरम्
शैल तनया संग शोभित युगल चरण मनाई हौं
करूँ कृपा विनवै वृहस्पति पुर बहत्तर गाई हौं ।।१।।
जम्बु प्लक्ष औ शाल्मलि,कु्श क्रौंच शाक सुपुष्करा
सात द्वीप में वरण चारों नाम भिन्न सोहै भरा
द्विज क्षत्र वैश्य औ शूद्र नामक जम्बु द्वीप में शोभहीं
हँस पतंगुर्धायना सत्यांग प्लक्ष में लोभहीं ।।२।।
श्रुतधर वीर्यधर अरू वसुन्धर इषन्धर हैं शाल्मली
कु्शल कोविद अभियुक्त शोभे कुलक कुशद्विप में भली
पुरुष ऋषभ द्रविण देवक क्रौंच द्वीप में राजहीं      
ऋतव्रत सत्यव्रत दानव्रत अनुव्रत पुष्कर साजहीं ।।३।।
सात द्वीप प्रधान जग में शाकद्वीप विराजहीं
तंह बसहीं चारों वरण निर्मल कर्म करि शुभ साजहीं
तंह जाति ब्राह्मण मग कहावे क्षत्रियन मागम रहैं
वैश्य सब मानस कहाव शूद्र के मन्दग कहैं।।४।।
तेहि द्विज अठारह कुल ले आये पीठ पर खग जाईके
शाम्ब के रवियज्ञ कारण कृष्ण आज्ञा पाईके
सूर्य के आराधना सब वेद विधि कियो है  यथा
जो विदित ह इतिहास में होइहें प्रकाशित सुनु तथा।।५।।
हाथ वीणा लेई मुनिवर भ्रमत हैं  नित घर घरै
गति अवाधित सबहिं सों कछु झूठ सांचो बरबरै
एक दिन मुनि जात मग में शाम्ब हैं  दश संगिले
मुनि देखि सब चरणन  परे तंह शाम्ब उठि के नहि मिले।।६।।
गौर करि मुनि चलत जहवाँ कृष्ण क्रीड़ा करत हैं
नायिका सब नग्न बैठी वारूणी तंह ढरत हैं
पूछि नारद कु्शल तत्क्षण कृष्ण से यह कही चले
सब नायिका के शाम्ब नीको शाम्ब मन यह सब भले।।७।।
तुरत नारद शाम्ब के पंह जाइके बातें कही
पिता तुमही तड़ाग ऊपर अबहीं  खोजत हैं सही
मुनि वचन सुनते झपटि पहुँचे कृष्ण पद परो जाइके
उठि परो तिय फेरि मुख तंह शाम्ब देखी लजाइके।।८।।
शाम्ब रूप अनूप देखत नायिका लज्जित भई
पत्र कमल बिछाई बैठी सो नितम्बहीं  सटि गई
नारिगण के पान मदिरा जौन चाहें सो करै
कुलबद्दु के चहत नाहीं  संग्रहे तो भठि परै।।९।।
यह चरित देखत कृष्ण बोले देह सुन्दर गर्व है
नहीं लाज भ्रष्ट विचार कीन्हों मातु सम इह सर्व है
इहां आना तुमहनाहिं,कहा मुनि सो सांच है
तब देह के नहीं गर्व रहिहें जानुतन यह कांच है।।१०।।
गलित भयो तत्काल, बिनु अपराध शाम्बहिं शाप से
कुरु दया सब किए मुनिवर बहुत विनवै वाप से
होइ प्रसन्न विचार के कही तुम अराधहु तपन के
होईहें तब देह निर्मल,सविधि सविता जपन के।।११।।
तेहि अवधिकरि जपति निशिदिन,नाम लेत हजार हौ
एक भुक्त अलोन भोजन,दण्डवत दै बारहो
एक विंशति नाम के स्तुति,मुदित होइ रवि वर दियो
सूर्य के आराधना करी,शाम्ब तनु निर्मल कियो ।।१२।।
गज वदन चरण शिर नाऊं,मग वृन्द विमल गुन गाऊंजी.....
भक्ति जागी देव श्रेष्ठ हीं करौं  अबहीं  स्थापना
योग मन्दिर रचि बुलायो जम्बुद्वीप के ब्राह्मणा
कल्याण स्वस्त्ति पुण्याह वाचक यथा योग ले आवहीं
तेज देखत मिश्रहां के कर्म तजि-तजि भागहीं ।।१३।।
जो भयो है ब्रह्माचार्य होता तिनहि बैठत नहीं बने
जो मन्त्र पाठी वेद विद मूरख अपर को को गने
पंच द्रविड़ पंच गौड़हिं शाम्ब दृढ़ करि लावहीं
तनु दग्ध माठर तेज सो पुनि यज्ञ भूमि न आवहीं ।।१४।।
शाम्ब के मन विकल देखत,तेहि क्षण मुनि गावहीं
यह देव के कर्माधिकारी शाकद्वीप से आवहीं
कृष्ण गरूड़ ही कहा वहु विधि प्रौढ़ होइ तुम जाइ हौ
यज्ञ के यश तुमहिं होइहैं यथायोग्य लेइ आइहो।।१५।।
पाँच जलनिधि लांघि खगपति गए जहाँ द्विजवर रहैं
तार्क्ष्य देखि यज्ञ लायक शीत आतप सब सहैं
ध्यान पूजा करत जपतप उलटि गायत्री पढ़ैं
मौन भोजन कर्म पट विधि तेज से दिन-दिन बढ़े।।१६।।
वैनतेय कही दयानिधि पीठि पर सब आवहु
चलहु जम्बुद्वीप में तुम शाम्ब यज्ञ करावहुं
कौल करि भूदेव चल भए फेरि घर पहुँचाइहौं
तुम दक्षिणा जो लेब नाहिं निज तेज से घर आइहौं।।१७।।
यहि भाँति द्विजवर कुल अठारह पीठ खगपति के चढ़े
शाम्ब के ढीग आइ सब विधि यज्ञ करि आशिष पढ़े
करि देवपूजा विदा मांगी गरूड़ के लेई आवहु
यही द्वीप ब्राह्मण बहुत  हैं  हमही घर पहुँचावहु।।१८।।
गज वदन चरण शिर नाऊं,मग वृन्द विमल गुण गाऊंजीं....
तेही समय यदुपति सकल परिजन मुनि सहित विनती करी
करजोरी बहुविधि थार भरि रतन आभूषण धरी
जब लेन गयो तब यज्ञ कारण कौल कीन्हों पक्षिणा
तत्काल कहि भूदेव चलि भयो हम न लीहौं  दक्षिणा।।१९।।
तब शाम्ब बोले हे महाशय ! बहुत अब हम का कहौं
तुम दक्षिणा जो लेब नाहिं यज्ञफल कैसे लहौं
फल फूल पत्र में दोष नाहीं  नारियल एक लीजिये
मन मुदित होइके जानि किंकर सुफल वर अब दीजिए।२०।।
तँह पान बीड़ा अति सुवासित लवंग एलादिक परी
एक नारियल दे विदा कीन्हों गुप्त मोहर से भरी
तब हरि के वाहन एक एक हि भार से नहीं चलि सके
जो ले आए कुल अठारह एक से पन्थहि थके।।२१।।
भूदेव जी हत तेज होइ गयो भार हमसे नहि सहे
तुम दक्षिणा जो लियो मुनि यही लागो हम पहिले कहे
ध्यान करि भूदेव देखे शाम्ब हमसे छल किये
दान देकर तुम हमसे तेज बल सब हरि लिए।।२२।।
यज्ञ करि यजमान सौंपहिं अयश बहुविधि पाइहौं
तेज बल हत कवन विधि से द्वीप निज सब जाइहौं
कर जोरि बहुविधि शाम्ब बोले विनय करि भूदेवहिं
कृपा करि के रहिए इत सब सकल परिजन सेवहिं।।२३।।
तप योग जम्बुद्वीप में करि पाप सब करि मीजिए
चारि चारि प्रधान गांव ले बास कुल मिलि कीजिए
कुल एक-एकही चार गांव ले बास करि भोगन लगे
सो बहत्तर पुर भये यों जहाँ रही पूजवत जगे ।।२४।।
गज वदन चरण शिर नाऊं,मगवृन्द विमल गुण गाऊंजी.....
तेहि दिन से मगद्विज पूज्य होई सब जम्बूद्वीप पूजावहीं
तेहि देखि सूर्य समान तेज से आन विप्र न आवहीं
भूदेव तेहि दिन से कहाए अपर द्विज लज्जित भए
श्राद्धकर्म ओ देव पूजा महँ सदा पूजित भए।।२५।।
आर चौबिस, अर्क बारह,बारहे आदित्य हैं
बारहे कर मण्डली गन पुर बहत्तर विदित हैं
भिन्न-भिन्न विशेष पुर सब कहौं  पाँच प्रकार के
उत्तमोत्तम सबन्हि सबसे,प्रथम कहि हौ आर के।।२६।।
उरू खनेटु छेरि मखपा देकुली पुर डुम्बरी
ओड़री भलुनी पवेरी पोती अदरी पण्डरी
शर छत्रैयार वार बद्धा मेहि अरू है शौरिका
रहदौली जम्बु देव बोरी आर इति संसारिका।।२७।।
उल्ल पुण्ड्रा मारकण्डेय बाल लोलः कोणशा
चरण पुण्या गुण्य विन्या पुनर शुण्डा द्वादशा
एहि भाँति द्वादश अर्क शोभे ग्राम नाम से बसि गए
आदित्य मण्डल किरण जो है सो विदित कतहि भए।।२८।।
वरूणार्क बिल संयाम लौण्डा सपहा कुण्ड हिराशिया
डुमरौर महुराशी गण्डैया गुणसैंया देहुलासिया
देवडीहा बारहो आदित्य सोहे कहीं-कहीं
अब कहत है मण्डल जो बारह किरण विख्याती कही।।२९।।
चण्ड रोटी डिहिक पट्टीश खण्ड शूप कपित्थ हैं
शालि बांध तेरह परासी काँझख जुरहा जुत्थ हैं
बड़सार भेंड़ा पाकरी विपरोह आदिक सोहहीं
यह कहत मण्डल बारहो जग मण्डलीगण मोहहीं।।३०।।
गज वदन चरण शिर नाऊँ मगवृन्द विमल गुण गाऊँजी.....
ढुंढि बरी कुकरौंधा छट्ठी गौरा देवहा
सोरियार ठाकुर मेंरावा पंचकंठी पंचहा
अवधियार गण्डार्क कौशिक किरण हैं एहि भांति के
पुर बहत्तर भए एहि विधि कहा सोई मग जाति के।।३१।।
शाकद्वीप से जम्बू आए तेज में रवि भावना
पुर बहत्तर गावहीं  जे जाति मग के आवना
बल बुद्धि वृद्धि धनेश समधन पावहि तजि शोक के
भोगभुक्ति अनेक पावहीं  अन्त में रवि लोक के।।३२।।
                     ----आत्म परिचय----
जिला पटना थाना पाली डाक महबलिपुर रही
शोणभद्र के तीर पूरब घर महाबलीपुर सही
खण्टवार पाठक वृहस्पति तन्त्र ज्योतिष भावहीं
उपपुराण पुराण में जो मुनि कहा सोई गावहिं।।३३।।
गुण शराँक निशाकर ही मिली शरद् विक्रम वीर के
वसु चन्द्र नाग मृगांक ते मयी शालीवाहन धीर के
वेद शून्य गुणाब्ज सन् में गीतिका पूरण भयी
पाठक वृहस्पति कियो है रचना दुष्ट मुख चूरण भयी।।३४।।
गज वदन चरण शिर नाऊँ मगवृन्द विमल गुण गाऊँजी
गज वदन चरण शिर नाऊँ.......
                       (-) इति मगोपाख्यानम् (-)
   
-[१९५३विक्रम सम्बत्---१८१८ शालिवाहन शकः]मूल रचना काल      
 १९५३विक्रम सम्बत्---१८१८ शालिवाहन शकः]मूल रचना काल       

टिप्पणियाँ

लोकप्रिय पोस्ट