सामूहिक बलात्कार में सहभागिता
सामूहिक
बलात्कार में सहभागिता
हमारी
लेखनी से जुड़े लोग ये अच्छी तरह जानते हैं कि भोंचूशास्त्री बहुत ही जीवट के आदमी
हैं और बिलकुल जीवन्त इन्सान भी हैं । कई बार मेरी पत्नी से झाड़ू-चप्पल खा चुके हैं- आपको ये भी पता है, क्यों कि मैं बड़ी बेवाकी से उनके
बारे में समय-समय पर आपको बताते रहता हूँ । उनकी जगह कोई और होता तो मेरी ड्योढ़ी
पर थूकना तो दूर, पॉटी-सॉटी के लिए भी नहीं आता । और वो हैं कि गाहे-बगाहे चाय की
तलब लिए आ जाते हैं । बस सिर्फ पता होना चाहिए कि मेरी श्रीमतीजी कहीं बाहर गयी
हैं ।
आज भी कुछ वैसा ही हुआ । रविवार का
दिन यानी आराम फरमाने वाला दिन । उबासियां लेने वाला दिन । अभी दोपहर का खाना खाकर,
जरा लोट-पोट होने का मन ही बना रहा था कि दरवाजे पर दस्तक हुयी । देवीजी अपने भतीजे के
छठिआर में तीन दिनों से मैंके सिधारी हैं- ये बात शास्त्रीजी को बखूबी पता है,
इसीलिए ज्यादा हिम्मतवर होकर दरवाजे पर दस्तक दे रहे थे ।
शास्त्रीजी से मैं जितना परिचित हूँ,
उससे कहीं ज्यादा उनके दस्तक-स्टाइल से । सो, भुनभुनाते-झुंझलाते हुए माथा ठोंका—
गए बच्चू आज काम से ! हो
गयी छुट्टी दिन भर की । शाम की चाय पिये वगैर शास्त्रीजी यहां से टलने वाले नहीं
है । हो सकता है कि रात के खाने का भी प्रस्ताव यहीं रख दें । कई बार ऐसा भी हुआ
है कि धोती की घोघी में ही दो-तीन आलू और उसी हिसाब से आटा-चावल,मिर्च-मसाला
बांधे, सीधे यजमान के घर से मेरे यहां ही पधार चुके हैं और खींसे निपोरते हुए
प्रस्ताव रख दिये हैं भोजन के लिए ।
‘ अतिथिदेवोभव ’ वाले देश में भला
कौन ऐसा पापिष्ठ होगा जो श्रद्धा से आटा,दाल,आलू लेकर आए अतिथि को भी भोजन बना कर
खिलाने से परहेज करेगा ? ऐसा फोकटवाला पुण्य-लाभ लूटने को तो मॉर्डन भारतवासी सदा ही तत्पर रहते हैं। भले ही ‘ बे-टाइम
’ आए अपने हित-जन-परिजन को भी कोरा ‘ सोकॉज
’ नोटिश थमाने में जरा भी नहीं हिचकते – “ ये भी कोई आने का
टाइम हैं ! कम
से कम फोन तो कर दिये होते । खाना खाकर आये हैं या बनाना पड़ेगा? ”
ऐसे
में भला कौन ऐसा बेशरम आगन्तुक होगा जो कहेगा कि बिना खाये आया हूँ । निश्चित है
कि मुस्कुराते हुए कहेगा - जी नहीं । खाना तो बाहर में ही खा लिया हूँ ।
हां, एक बात है- ‘ मैके’ से कोई कुत्ता भी आया हो तो जबरन स्वागत-सत्कार में जरा भी कोताही नहीं,
भले ही उसका हाज़मा कमजोर हो ।
खैर, मैं भी थोड़ा बहक गया था । ये
मुलायम चमड़ी वाली जुबान है न, अकसर बहकती ही रहती है । लगता है नेताओं वाला
प्रभाव पड़ गया है ।
हां,
तो मैं कह रहा था कि सिर पर हथेली मारते हुए दरवाजे की ओर लपका, जहां पर
शास्त्रीजी देर से थपकी मारे जा रहे थे- तीनताल वाली ।
किवाड़
खोलते ही अपने ‘ फुलमोशन
’ में आ गए— “ कहते हो न गुरु ! कि आसिन का महीना बड़ी पवित्तर होता है- पहला पख पितरों के नाम और दूसरा पख
देवियों के नाम...किन्तु जानते हो इसी महीने में सबसे ज्यादा बलात्कार होता है-
एकदम सामूहिक बलात्कार...वो भी खासकर ब्राह्मणों द्वारा ।
”
शास्त्रीजी
की ऐसी ग्राउण्ड-रिपोर्टिंग से चौंकना स्वाभाविक है । वैसे भी उनकी खबरें अखबार की
सुर्खियां भले न बटोर पायें, किन्तु होती है- एकदम से मार्केबल और ऑथेन्टिक भी ।
दुर्भाग्य है हमारे देश का कि ऐसे प्रतिभावान पर किसी चैनल वा अखबार वाले की निगाहें
न गयी अभीतक । तपाक से मैंने पूछा—क्या बात है शास्त्री जी ! आज
भांग में सुपारी का बीज पीस कर डाल दिया है क्या उस नालायक शर्बत वाले ने ?
फटे
दूध की चाय की तरह फीकी मुस्कान बिखेरते हुए शास्त्रीजी ने कहा— “ अरे नहीं गुरु ! भला
उस शर्बत वाले की इतनी औकात कबसे होने लगी कि मेरे शर्बत में सुपारी का बीज पीस दे
। और वैसे भी शहर में भांग पीने वाले अब रह ही कितने गए हैं ? जो भी पुराने
भंगेड़ी थे सबके सब दारु पीने लगे हैं । भांग जमींदारों का पेय था, राजा-महाराजाओं
का शाही पेय । अब तो दारु का जमाना है - देशी से लेकर ‘ बोदका
’ तक । और ये आसिन का महीना है न इसकी आमद और खपत दोनों बढ़ जाती है
शहर में । ”
सो
कैसे, दारु का आश्विन महीने से क्या
सम्बन्ध ?
शास्त्रीजी अपने अन्दाज में मुस्कुराये- “ तुम नहीं समझोगे गुरु ! अरे
ये आसिन का पितरपख है न इसमें जातरी-जजमान का आमद ज्यादा होता है गया शहर में । जो
आया कुछ ना कुछ ले कर ही आयेगा न अपनी औकाद और पसन्द मुताबिक , क्यों कि उसे पता है कि बिहार सरकार
दारु पर पाबन्दी लगा दी है । आसानी से मिलना नहीं है दुकानों पर। इसीलिए अपना बन्दोबस्त खुद करके आते हैं लोग । अपना भी
काम चलता है और बाबाओं का भी । आखिर दारु के बिना देवी का स्वागत कैसे होगा नवरात
में ?
खंस्सी और दारु तो चाहिए ही न ? कई जजमान तो ऐसे भी होते हैं कि पितरों को पिण्डदान से खुश करने के बाद
देवी को खुश करने का ठेका भी पंडितजी को ही दे जाते हैं । बकरे का दाम और साथ लायी
उम्दा वाली बोतल सहित अग्रिम दक्षिणा भी । ”
ये क्या कह रहे हैं ?
“ मैं बिलकुल सही
रिपोट दे रहा हूँ गुरु ! सही
बोलता हूँ, इसीलिए तो अखबार वाले मुझसे
पंगा लेने से कतराते हैं। न जाने कब किसकी बखिया उघेड़ दूं । पड़ोसी राज्यों से
आने वाली ट्रेनों की जमकर चेकिंग होती है, इसलिए इन दिनों ज्यादातर प्राइवेट कारों
का इस्तेमाल हो रहा है । अब भला तीर्थयात्रियों की मर्यादा का ख्याल तो रखना ही
पड़ेगा न । उनकी गाड़ियों की चेकिंग यानी अतिथि का अपमान । ”
शास्त्रीजी की बातों में दम दिखा, किन्तु दारु की ‘ आवत ’ और ब्राह्मणों द्वारा सामूहिक बलात्कार का लिंक नहीं
मिला । अभी मैं लिंक भिड़ाने की कोशिश कर ही रहा था कि शास्त्रजी ने यूटर्न लिया
बिलकुल राममन्दिर विवाद की तरह – “ जरा दिमाग लगा कर सोचोगे, थोड़ा भी ज्ञान होगा शास्त्र-पुराण का, थोड़ी भी
शर्म-हया बची होगी, तो सिर धुनने लगोगे इन पोंगा पंडितों की हरकतों को देख कर ।
कितनी श्रद्धा से आते हैं लोग पितरों के उद्धार की कामना लेकर पुण्यभूमि में और ये
ज़ाहिल ब्राह्मण कितनी दगाबाजी करते हैं उनके साथ । व्यवहार से लेकर कर्मकाण्ड तक
दगा ही दगा । सच पूछो तो श्रद्धा,भक्ति,आस्था इन तीनों के साथ सामूहिक बलात्कार कर
रहे हैं ये नापाक ब्राह्मण लोग और वो भी पूरे असिन भर । विष्णु की नगरी को प्रेतों
की नगरी बना रखा है पापिष्ठों ने । लाखों की संख्या में होने वाले पिण्डकर्म में
शायद ही कोई सही विधि से होता हो । और उधर दूसरी ओर देखो- एक-एक
ब्राह्मण दस-दस पाठ का संकल्प लिए बैठे मिलेंगे माँमंगला की चौखट पर । और सबसे चिन्तनीय बात कि सती का स्तनभाग गिरा है यहां
मंगलागौरी सिद्धपीठ में, यानी कि ये विशुद्ध दक्षिणतीर्थ है , पर मजे की बात ये है
कि धड़ल्ले से बकरे की बलि दी जाती है और आज तक किसी ब्राह्मण का ध्यान नहीं गया
इस बात पर कि ये क्या और क्यों हो रहा है । ”
शास्त्रीजी की बात सुन, एक जोरदार झटका लगा— सच में किसी
ने इसपर विचार क्यों नहीं किया कि दक्षिणमार्गीसिद्धपीठ पर वाममार्गीसिद्धपीठ की
क्रिया कैसे, क्यों, कब से सम्पन्न हो रही है माँ मंगलागौरी के प्रांगण में ! सच में हमारी श्रद्धा,
आस्था, भक्ति और संस्कृति के साथ सामूहिक बलात्कार ही तो हो रहा है और वो भी अपने
को विज्ञ कहने वाले ब्राह्मणों द्वारा । वो लखनऊ वाले पुराने नेताजी की जुबान में
कहूं तो फैशनेबल युवतियों के साथ बलात्कार तो समझ आता है, परन्तु ये आस्था, श्रद्धा,
भक्ति, संस्कृति जैसी बूढ़ियों के साथ भी वही कुकर्म ! सच
में कितना पतन हो गया है ‘ सिरमौर
’ समाज का ! भारतीय संस्कृति
के साथ अंग्रेजों ने जितना बलात्कार नहीं किया उससे कहीं ज्यादा आज अपने ही कर रहे
हैं । ईश्वर तुम्हें कभी क्षमा नहीं करेंगे । महर्षिगौतम का श्राप कभी तुम्हारा
पीछा नहीं छोड़ेगा ।। जय माँमंगले ।।
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