विश्व विसात फरेबी प्यादा


विश्व विसात फरेबी प्यादा

          आज, बहुत दिनों बाद भोंचूशास्त्री फिर पधारे, सुबह-सुबह ही  । पहुँचते ही पहला सवाल किए कि क्या मेरी पत्नी आज भी घर पर ही है ? उत्तर में ना सुन कर आश्वस्त हुए और चाय की फरमाइश करते हुए कालीन पर पसर गए । कालीन पर विराजने का अर्थ मुझे पता है—दो घंटों के लिए छुट्टी हो गयी मेरी । इनकी बातों को सत्यनारायण व्रत कथा की तरह चुपचाप सुनते रहने के सिवा कोई चारा नहीं ।
            चुंकि घर पर और कोई था नहीं, इसलिए कीचन की ओर लपका । फरमाइशी चाय तो पिलानी थी न अदरख-इलाइची वाली । किन्तु तभी शास्त्रीजी  ने कहा— अभी तक मैंने मुंह भी नहीं धोया है । जरा अपना वाला मंजन भी देना और हाँ टी.वी.चालू कर दो । दांत मांजते-मांजते जरा देश-दुनिया भी नाप लूँ । मेरे यहां तो इनवर्टर भी नहीं है । इन नापाक विजली वालों को इनवर्टर वाले कमीशन दे-देकर बहका दिए हैं । ऐन वक्त पर लाइन गायब कर देते हैं हरामखोर । खबर और मनोरंजन चाहिए तो झक मारकर विकल्प ढूढ़ोगे न !      
हथेली पर मंजन का भरपूर खुराक उढ़ेलते हुए बोले— ...सुना है कि पड़ोसी भाईज़ान अपने आजू-बाज़ू भाईज़ानों से कोशिश-पैरवी कराकर अमरीका गए हैं, वही पुराना वाला पीकदान लेकर । भीख मांगने का भी सऊर होना चाहिए । कम से कम कायदे का कटोरा तो रखना ही चाहिए पेशेवर भिखमंगों को । जितना उम्दा कटोरा होगा, उतनी अच्छी ख़ैरात मिलेगी । पर इन मियां के पास तो वही वालिद वाला पीकदान ही बचा है । अब, उसमें ही थूकें या कि उसी में खायें । विश्व के नक्शे में नये मुल्क का ख़्वाब देखने वाले इनके परवरदिगार आज होते तो गम में कुदकशी जरुर कर लेते । जानते ही हो कि फिरंगियों की चाल कामयाब हो गयी । विश्व-विसात पर एक नये मुल्क का प्यादा रख दिया गया , एकदम से नये वाले         ड्रेसकोड के साथ । किन्तु जो कुछ किया ज़नाब ने पिछले सत्तर सालों में उससे दुनिया वाकिफ़ है । भरपेट रोटी भी नहीं जुटा सके अवाम के लिए, ऐशोआराम कहां से मुहैया करायेंगे भला ! और इधर देखो—चलो दिलदार चलो, चांद के पार चलो...का जश्न मना रहे हैं हम ।  जितना वो पूरे साल का बजट पास करते हैं, उतना तो हमारे यहां लोग खैनी-गुटका खाकर पीक मार देते हैं । उनके यहां फैक्ट्रियाँ जितना धुआँ छोड़ती हैं उतना तो हमारे यहां बीड़ी,गांजे,सिगरेट से निकलता है ।  
मैं मुस्कुरा उठा— ठीक कहते हैं शास्त्रीजी ! साफ-सुथरी चौड़ी सड़कें बनी हैं तब न थूकने वाले को भी मन कर रहा है- जहां चाहो पच्च से पीक मार दो । इनका बस चले तो ताजमहल को भी लालकिला बना दें । कुत्ते को देखते होगे- टट्टी करने के लिए पहले पंजे मार-मार कर जगह साफ करता है । हल्का होता है और फिर पंजे मारता है ढकने के लिए, किन्तु आदमी तो को इतना भी सऊर नहीं... । ” – मैं कुछ और कहना चाहता था स्वतन्त्रता के उपयोग कर्ताओं की बावत, किन्तु शास्त्रीजी ऊचक कर खिड़की से झांकने लगे । उन्हें लगा कि कोई आ रहा है बाहर से ।
दरअसल जब भी आते हैं, तो पिटकर ही जाते हैं मेरी श्रीमती जी से—झाड़ू-बेलन हो या कि शब्द-दण्ड । इसीलिए सदा चौकन्ने रहते हैं । दूसरा होता तो मुड़कर कभी देखता भी नहीं इस ओर । परन्तु शास्त्रीजी ठहरे बिलकुल निराले अन्दाज़ वाले । लगता है कि जिस मिट्टी से भगवान नेताओं को बनाते हैं, उसी में से बची-खुची मिट्टी का इस्तेमाल कर लिया होगा शास्त्रीजी को रचने में ।
   दांतों पर मंजन मांजते हुए कहने लगे—   “ शतरंज के माहिर वखूबी जानते हैं कि मौका पाकर प्यादा वज़ीर भी बन जाता है, किन्तु ये भी तो नियम है कि पिटने के लिए प्यादों को ही आगे ठेलते हैं । भला कौन मूरख चाहेगा कि हाथी-घोड़े-किस्ती को पिटाऊँ ? और वज़ीर तो वज़ीर होता है । मगर कोई वज़ीर ख़ुद-ब-ख़ुद पिटाने चला जाये मोहड़े पर तो उसे भला कौन रोके ? हम भूल जाते हैं कि इस चलती-फिरती दुनिया के विसात पर ठीक वैसा ही नहीं होता- शतरंज जैसा । यहां जो प्यादे एक बार पिट जाते हैं, वो हमेशा के लिए पिट ही जाते हैं । उनका पुनर्जन्म नहीं होता । न तो वही वाली विसात  होती है और न मुंहतोड़ जबाव देने वाले जापानियों जैसे कर्मठ-ईमानदार नागरिक । जरा सोचो तो एटमबम गिराने वाले ने सपने में भी सोचा होगा कि ये बिना नाक-भौं वाला अदना सा मुल्क इतनी जल्दी तरक्की के ऐसे मुकाम पर पहुँच जायेगा ! लेकिन बाकी सभी जापानी नहीं हैं और न तरक्की कोई खरबूजा है, जो बगल वाले के असर से अपना भी रंग बदल डाले । सुनहरे सत्तर वर्ष यूंही गंवा दिए मियां ने ।  हिन्दुस्तान को परेशान करने के चक्कर में खुद नेस्तनाबूद होने के कगार पर चले आए हैं । बुद्धि मारी गयी थी तब भी और अब भी हाल वही है । कलाबाज़ बनियों का चक्कर तब भी था और अब भी । पता नहीं क्यों हम भूल जाते हैं कि बाजारभाव ऊँचा रखने के लिए लाखों टन गेहूँ समुद्र में डुबो देने वाला वनियां किसी का नहीं हो सकता । न तुम्हारा न हमारा । हम इस भ्रम और नासमझी में जीते रहे हैं बहुत दिनों तक कि फलां मेरा दोस्त है फलां मेरा दुश्मन । दरअसल बनियां अपने बाप का भी नहीं होता । वो केवल ग्राहक देखता है, ग्राहक की औकाद देखता है । उधारी खिलाने की कला में भी माहिर होता है, यदि उसे पता लग जाए कि मेरे पास कुछ जमीन-जायदाद-जेवर वगैरह है । उसका बस चले तो जोरु तक भी बंधक रखवा दे या किसी को जोरु बनाकर भेज भी देगा । मांझी नाव चलाने के लिए हवा की रुख पहचानता है, बनियां  बाजार का नब्ज़ पहचानता है । कोई सड़कें बनवा दे रहा है, कोई हथियार मुहैया करा दे रहा है, कोई पीठ ठोंक रहा है—चढ़ जा बेटा सूली पर...। रोटी नहीं दे सकता , रोजगार नहीं दे सकता , हथियार भले दे दे ।  ये नये वाले वजीरेआज़म एकदम चौआ-छक्का लगाने का ख्वाब देख रहे हैं, मुल्क को भी क्रिकेट का पीच समझ लिए हैं । जबकि ढाई लाख डॉलर ग्रांट करने के बाद भी भाड़े के टट्टु नहीं जुट पाये स्वागत में नारेबाजी करने वाले । अपने वज़ीर से ही गर्मजोशी दिखानी पड़ी । यात्री विमान से सफ़र की सादगी वाला चुग्गा भी नाकामयाब रहा । सुनते हैं कि मेट्रो का सफर बड़ा मज़ेदार रहा । अगर थोड़ी भी गैरत हो तो वहीं प्रशान्तमहासागर में गोता लगा लेना चाहिए । मुल्क को तो कोई ना कोई वज़ीरेआज़म मिल ही जायेगा । किन्तु बे-गैरत बे-खबर भी होते हैं । वो साउण्ड-प्रूफ-रुम होता है न, उसी माफिक बेइज्जती-प्रूफ इन्सान भी हुआ करते हैं ।   झूठ-फरेब-फस़ाद की फलस उगाते हैं, उसी का व्यापार भी करते हैं । किन्तु ये भूल जाते हैं कि विश्व विसात पर उनकी औकाद एक फर्जी या फरेबी प्यादे से रत्ती भर भी ज्यादा नहीं । कभी भी पिटकर विसात से बाहर हो जाना पड़ सकता है । और वो वक्त ज्यादा दूर नहीं है । ”
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