साफ पानी की गन्दी कहानी

साफ पानी की गन्दी कहानी

पानी रे पानी तेरा रंग कैसा...?
जल को हमारे शास्त्रों में जीवन कहा गया है । इसका प्रथमाक्षर जन्म का संकेत देता है और द्वितीयाक्षर अन्त का । जीवन और मृत्यु—ज और ल –सृजन और संहार । सृष्टि के पांच मुख्य तत्वों में एक है जल । जल न रहे तो हम नहीं...हम ही नहीं...कुछ नहीं ।
२२ जून को दुनिया जलदिवस मनाती है और सभी दिवसों की भांति इसे भी मनाकर एक कोरम पूरा कर लेती है । इस सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण चीज के बारे में हम कितने गम्भीर हैं- सोचनेवाली बात है ।
आए दिन हम कोई न कोई दिवस मना लेते हैं और इसे ही जागरुक होने का प्रमाण मान लेते हैं—मातृदिवस, पितृदिवस, वालदिवस, महिलादिवस,योगदिवस,पर्यावरणदिवस...साल के 365 दिन कोई न कोई दिवस ही है । किन्तु ये भूल जाते हैं कि  कोई भी दिवस मना लेना गम्भीरता और जागरुकता की निशानी नहीं है ।
पृथ्वी पर बढ़ती भीषण गर्मी, वर्षा की कमी, प्रतिवर्ष करीब एक से दो मीटर की रफ्तार से नीचे भागता भूगर्भीय जलस्तर, उपलब्ध जल का भयंकर रुप से प्रदूषण आदि विषयों पर पर्यावरणविद, वैज्ञानिक, पत्रकार, न्यूजचैनल आदि बहुत से प्रबुद्धजन इस पर समय-समय पर अपनी राय और समुचित जानकारी दे रहे हैं। चेतावनी भी दे रहे हैं, किन्तु हमें जल्दी से समय पर जगने की आदत ही नहीं है । पानी जबतक नाक के नीचे न आजाये हम समझने-मानने को तैयार ही नहीं होते किसी भी मामले में ।
 मजे की बात तो ये होती है कि मानने-जानने-समझने के बाद भी दोष और जिम्मेवारी किसी और के मत्थे मढ़ने को ऊतारु हो जाते हैं । और कोई नहीं तो सरकारें तो दोषी हो ही जाती हैं, इसलिए कि हमने उसे अपनी पसन्द का चुन कर बनाया है । सेवा करने के लिए, व्यवस्था जुटाने के लिए । हम जगें या आँख मींच कर सोये रहें- जगाना उसकी ड्यूटी है- उसका कर्तव्य है । मेरा कर्तव्य और दायित्व कुछ नहीं—शायद ऐसा ही सोचते हैं हम ।
दुनिया विकासोन्मुख है । वाकयी विकास हो भी रहा है— चहुमुखी विकास । जनसंख्या बढ़ रही है- अंकगणित नहीं, रेखागणित के हिसाब से । जनसंख्या के हिसाब से हर आवश्यक चीज को भी बढ़ाने की आवश्यकता होती है- रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा, कल-कारखाने, रोजगार...बहुत कुछ ।
किन्तु क्या सभी चीजों को हम उसी अनुपात में बढ़ा पाने में सक्षम हैं? बिलकुल नहीं । मांग और पूर्ति के बीच खाई बढ़ेगी, स्वार्थ और इर्ष्या बढ़ेगी तो आतंकवाद भी बढ़ेगा ही । आबादी बढ़ेगी तो जीवन-रक्षक आवश्यकताओं पर सर्वाधिक बोझ आयेगा । रहने के लिए मकान अधिक चाहिए तो कृषियोग्य भूमि का दोहन होगा, प्रकृति का दोहन होगा- जंगल कटेंगे, पहाड़ टूटेंगे , नदियों का कलेवर सिमटेगा, कुँएं-तालाब भरे जायेंगे, नये-नये अपार्टमेंट बनेंगे- कंकरीट के जंगल विकसित होंगे ।
ये सब होंगे तो पर्यावरण असंतुलित होगा ही - वर्षा की कमी होगी, असमय में ग्लैसियर पिघलेंगे, चट्टानें खिसकेंगी, भूकम्प आयेगा, उल्कापात होगा, सूखे पड़ेंगे, बाढ़ आयेगी, महामारी फैलेगी—असंतुलित प्रकृति अपने अन्दाज में सृष्टि को संतुलित करने का प्रयास करेगी...।

और हम केवल बैठ कर सिर धुनेंगे..मीटिंग-सींटिग-सेमिनार करेंगे और नहीं तो राजनैतिक रोटियाँ सेकेंगे ।

हमारी आदत है- पहले जानबूझ कर समस्या खड़ी करो, फिर उस समस्या का प्रचार-प्रसार करो, जनता में खौफ पैदा करो और तब व्यवसायीकरण करो । पूंजीवादी सभ्यता यही सिखलाती है । पूंजी एक घटक है, किन्तु कुछ लोगों ने इसे ही सर्वस्व मान लिया है । पूंजी पर मोटी-मोटी किताबें लिखी गयी हैं । लम्बे-लम्बे भाषण और संवाद हुए हैं । किन्तु परिणाम ?
पूंजीवाद ने गरीबी और अमीरी के बीच गहरी खाई खोदने का काम किया है सिर्फ । वैसी खाई जिसे पाटना बहुत मुश्किल है । एक छोटा सा उदाहरण ही ले लें- जलसंकट या जलप्रदूषण का । इसे लेकर पूंजीवादियों ने कैसा-कैसा खेल रचाया है— आप  समझ पायेंगे यदि सोचने का अंदाज बदल कर सोचें । देखने का अन्दाज बदल कर देखें ।

  विज्ञान ने प्लास्टिक का आविष्कार किया । एक क्रान्ति सी आगयी- पैकिंग , कैरिंग और वियरिंग की दुनिया में । ड्यूरेबल और  पोर्टेबल दोनों हो गया । कपड़े से लेकर चप्पल-जूते तक सब कृत्रिम हो गए । मिट्टी, धातु, चमड़े, शीशे सबका जगह ले लिया प्लास्टिक ने ।   व्यापारियों ने जमकर इसे हवा दी । खूब कमाया, खूब लूटा । पत्तल के दोने से लेकर मिट्टी के कुल्हड़ तक सब गायब हो गए । बारी(पत्तल बुनने वाले) और कुम्हार बेरोजगार हो गए । किन्तु चन्द दिनों में ही दुनिया के लिए प्लास्टिक सबसे बड़ी समस्या बन गयी । अब वे ही वैज्ञानिक शोर मचा रहे हैं कि प्लास्टिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है । डिस्पोजल में चाय न पीयें, कैंसर हो सकता है...।
वैज्ञानिकों की नयी नसीहत सुन कर अब हम कवायद कर रहे हैं—कानून बनाकर प्लास्टिक पर रोक लगा रहे हैं, वो भी पूरी नीयत से नहीं । बड़ी-बड़ी कम्पनियों को बन्द करने की हिम्मत नहीं है, क्यों कि उसपर पूंजीवादी गेड़ुर मार कर बैठे हैं । वो पूछ सकते हैं कि लाइसेंस तो तुमने ही दिया था, तुम्हारे ही बढ़ावे पर हमने इतनी पूंजी खपायी । कारखाने लगाये... ।
अतः छापेमारी कर रहे हैं, जुर्माना लगा रहे हैं- गरीब सब्जीवाले पर, ठेले, खोमचेवाले पर, जो कि पोलीथीन कैरी बैग का इस्तेमाल करता है ।
   
विज्ञान ने दुनिया को पेस्टीसाइड्स दिया । फसल-फल-सब्जियों को कीड़े-मकोड़ों से होने वाले नुकसान से बचाने के लिए । ग्लोबलाइजेन के युग में उत्पादन बढ़ाने से लेकर, दूर-दूराज तक वस्तुओं को भेजने के लिए, शीघ्र खराब होने से बचाने के लिए तरह-तरह के रसायनों का प्रयोग सिखलाया गया ।  इन सबका भी जमकर व्यापारीकरण हुआ पिछले दशकों में । अरबों-खरबों की लूट हुयी संरक्षक और कीटनाशक के नाम पर, किन्तु आज स्थिति ये है कि पैदावार तो बढ़ा, दैत्याकार आबादी का पेट तो भरा, परन्तु कैंसर जैसी घातक बीमारी के पीछे भी कीटनाशक और प्लास्टिक का ही सबसे बड़ा योगदान है – इसे न भूला जाये ।
हालाकि पूंजीवादी लुटेरे इस पर भी खुश हैं - चलो अच्छा हुआ- अब कैंसर के नाम पर लूटो । कैंसर भी अपने आप में एक सुनियोजित लूट है- इस पर कभी बाद में चर्चा करुंगा । अभी तो बात पानी की करने चला हूँ ।

पानी सच में उतना गन्दा नहीं हुआ है, जितना शोर मचाया जा रहा है । पानी की कमी भी उतनी नहीं हुयी है, जितना चिल्लपों मचाया जा रहा है ।
वस्तुतः ये सब सुनियोजित ढंग से हो रहा है । हमारी पुरानी व्यवस्था भंग की जा रही है- विकास के नाम पर । भारतीय संस्कृति और व्यवस्था से खिड़वाड़ किया जा रहा है- विकास के नाम पर । जमकर पूरब का पश्चिमीकरण हो रहा है- समस्या के मूल में यही है ।

अतः थोड़ा हिम्मत करके, पश्चिम की ओर से आँखें मूंद कर, हम यदि फिर से भारतीय रहन-सहन, खान-पान, तौर-तरीके, रीति-रिवाजों को अपनाने लगें, तो बहुत सी समस्या चुटकी बजा कर हल हो जाये ।
पानी के लुटेरों द्वारा प्रयोजित आर.ओ.संयन्त्र और बोतलबन्द पानी का जमकर वहिष्कार होना चाहिए । क्यों कि एक ओर ये हमारी जेबें ढीला कर रहे हैं, तो दूसरी ओर पानी के नाम पर मीठे जहर का व्यापार कर रहे हैं । स्वास्थ्य लाभ और स्वच्छ जल के नाम भावी पीढ़ी को सैंकड़ों नयी बीमारियों के गिरफ्त में ढकेल रहे हैं ।

कुँए-तालाब,नदियों के अस्तित्व पर ध्यान देने की आवश्यकता है । जल के इन स्रोतों को हम भारतीय वरुणदेवता का वास मान कर पूजते आये हैं । नदियों को माता का दर्जा देते हैं हम भारतीय । पेड़ों, पहाड़ों को पूजने वाले हमारे पूर्वज बहुत बड़े वैज्ञानिक और मानवता के मषीहा थे- इसे न भूलें । पेड़ों की अन्धाधुन्ध कटाई को रोक दें,पहाड़ों का विस्फोट बन्द कर दें , प्राकृतिक जल का यथोचित संरक्षण करना सीख लें, गन्दे पानी की बालू,चूने,फिटकिरी आदि से सफाई और फिलटर करने की पुरानी विधि को अपना लें, भूगत जल का अनावश्यक दोहन बिलकुल बन्द कर दें, खेतों में कीटनाशकों का प्रयोग संकल्प पूर्वक बन्द करदें, क्यों कि जल को प्रदूषित करने में सबसे बड़ा योगदान कीटनाशकों और रासायनिक खादों का ही है । गोहत्या या अन्य पशुहत्या प्रतिज्ञा पूर्वक बन्द करके, मांसाहार पर नियन्त्रण करके हम चाहें तो बहुत सी समस्या को टाल सकते हैं ।

अगर देखादेखी ही करने की बीमारी है तो आँखें खोल कर देखते क्यों नहीं कि विदेशों में मांसाहार कितना कम हुआ है पहले की अपेक्षा !
दरअसल पश्चिम पूरब का नकल कर रहा है और पूरब पश्चिम का नकल करने में पागल हुआ जा रहा है । इस पागलपन का इलाज़ होना बहुत जरुरी है, अन्यथा न पूरब बचेगा और न पश्चिम ही । दुनिया बारूद की ढेर पर बैठी है- वटन दबने भर की देर है । और वो वटन मानवता के रक्षक के हाथों के बजाय भक्षक के हाथों में है । अतः सावधान । सावधान ।
चेत सके तो चेत गंवार । वरना देगी नियति सुधार । अस्तु ।   

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