कल्लूभाई की वेदना

कल्लूभाई की वेदना —
सूरज अभी आसमान पर ठीक से चढ़ भी नहीं पाया था कि मेरे घर की सीढ़ियों पर किसी के चढ़ने की आहट मिली । अमूमन मेरे जैसे खड़ूश आदमी के घर में कोई आता-जाता नहीं , मगर एक शख़्सियत ऐसी है जो बिना दस्तक दिये गाहे-बगाहे दखल दे देती है, वो भी सीधे कीचन
और बेडरुम तक । दरअसल कल्लूभाई मेरे दूर के साले हैं । सैंतालीस साल के हो गए हैं, पर अभी तक शादी नहीं किये हैं, या कहें हो नहीं पायी है । सात सहोदरों में अकेले ये ही कुँआरे हैं अब तक । 
आपको भी शायद पता होगा कि गोसाई बाबा भी इशारा कर ही गए हैं- कलि ससुरारी पियारी भयी...ससुरारी पियारी भयी जबसे....। कलियुग में ससुराल का रिश्ता सबसे अब्बल होगा । भले ही अपने भाई-बहन फूटी आँखों न सुहायें, पर साला-साली को तो घर ही नहीं दिल में भी अहम जगह देना होता है । भला वो कौन मूरख होगा जो साला-साली को नहीं चाहेगा ! बहुत कम भाग्यवानों की औकाद होती है- इनसे विरोध करने की । और ऐसा भी नहीं है कि सभी साले गांधार ब्रांड होते हैं या कि कंस ब्रांड ।

      हां , तो मैं कल्लूभाई के सघन पदचाप की चर्चा कर रहा था, जो चन्द सेकेन्डों में ही सीढियों से ऊपर चढ़कर मेरे वरामदे में आगयी और वहीं से हांक लगाये— अरे वो बहना ! जीजाश्री अभी जागे कि नहीं...जल्दी से चाय बनाओ और उन्हें जगाओ...और हां, पहले जरा एक दातून तो देना ...तुम्हारी छोटी वाली भाभी जो है न पूरी की पूरी बम्बइया है । फेशवास से लिप्सटिक तक उसे सब याद रहती है, पर मेरे लिए दातून लाना हमेशा भूल जाती है । टोकने पर शेरनी सी दहाड़ती है कि पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए दातून का इस्तेमाल कतई नहीं करना चाहिए....न जाने कितने पेड़ बरबाद होते हैं पुरानपंथी दातून के चक्कर में । यदि ये सच होता तो मैं उसकी ये बात मान भी लेता, किन्तु पॉलीथीनी सभ्यता में बिना थैला लिए बाजार जाने की आदी, भला पर्यावरण-प्रेमी कब से हो गयी – समझ से बाहर की बात है । लगता है, वो टूथब्रश वाले कुछ कमीशन जरुर देते होंगे इसे, दातून का दुष्प्रचार करने के लिए...।  

      आवभगत की मुस्कुराहट के साथ मेरी श्रीमतीजी ने उन्हें नीम का दातुन दिया । एक हाथ से दातुन पकड़, मुंह में ठूंसते हुए, दूसरे हाथ से जेब में धरा अख़बारी कटिंग निकाल, मेरी ओर बढ़ाते हुए बोले — घोर कलजुग आ गया । बिलकुल घोर कलजुग । जरा ध्यान से पढ़ो जीजा ! सुप्रीमकोर्ट ने समलैंगिकता और सेक्सुअल फ्रीडम पर पुनर्विचार करने की रजामंदी दे दी है । धारा 370 तो सलटा नहीं सत्तर सालों में और कवायद हो रही है 377 को निरस्त करने की । मुझे तो डर लगता है कि किसी सिरफिरे की याचिका पर 376 को भी न हटा दिया जाए । वैसे भी तुम देख ही रहे हो कि दो साल की बच्ची भी सुरक्षित नहीं है आजकल । कानून वही बनते हैं जिनसे आम को लाभ मिले न मिले खास को लाभ मिलना जरुरी है । अनलिमिटेड फ्री कॉल के जमाने में भी हरामखोर नेताओं को हजारों रुपये फोन कॉल के लिए दिये जाने पर कानून क्यों नहीं बना आज तक ?  और जरा उस दूसरे कटिंग को भी देखो - छात्रों को सेनेटरी नैपकिन महज पांच रुपये में देने की बात कही गयी है- दैनिकभास्कर (गयापेज) के इस खबर में । ये न हुयी पत्रकरिता- लिंगभेद को समाप्त करने का इससे बढ़िया आइडिया और क्या हो सकता है ! अब छात्राओं के बजाय छात्रों को भी नेपकिन इस्तेमाल करना होगा । ड्रेसकोड की तरह इसे भी लागू किया जायेगा । हो सकता है इस थ्योरी से 376-377 की समस्या समाप्त हो जाये ।

           कल्लुभाई की बातों पर मुस्कुराती हुयी उनकी बहना कीचन में चली गयी, चा-चू के जुगत में । मैं उन्हें समझाने की कोशिश करने लगा— देखिये भाईजी ! आप इसे इतना सीरियस न लें । अख़बारियों पर इतना ख़फा न हों । अब भला सरस्वती वाला जमाना तो रहा नहीं, जो लोग अख़बार से व्याकरण और वर्तनी सीखें । भारी भरकम अख़बार में दस-बीस-पचास गलतियां तो माफ हो ही जानी चाहिए । और रही बात कोर्ट-कचहरी-कानून की तो लोकतन्त्र है न - इसका भी ख्याल नहीं रखियेगा ? जनता की मांग का मान तो रखना ही होगा न । अब देखिये न- लीव-इन-रिलेशन को तो मान्यता मिल ही गयी । आखिर गर्भनिरोधक दवाइयां बनाने वाली कम्पनियाँ, अट्रासाउण्ड वाले, एवॉर्शन कराने वाले जीयेंगे कैसे ? लोकतन्त्र में सबका ख्याल रखना होता है । और सबसे बड़ी बात ये कि अभी हाल में ही WHO ने रिपोर्ट जारी किया है कि भारत की जनसंख्या विस्फोटक स्थिति में पहुँच गयी है । समलैंगिक स्वीकृति से इसमें नियंत्रण होगा कि नहीं - जरा आप ही बतलाइये ? मैं तो कहता हूँ - अभी तक कुँआरे रह गये, ऐसा ही कोई जुगाड़ आप भी क्यों नहीं बैठा लेते ?

         श्रीमतीजी चाय लेकर आगयी । हमदोनों चाय की चुस्की लेने लगे, किन्तु कल्लूभाई अपनी वेदना में बिकल रहे । 
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पाठकों की सुविधा के लिए दोनों पेपर कटिंग भी 

दिये देता हूँ ।


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