राष्ट्र-कल्याण की ‘वो’ भावना

राष्ट्र-कल्याण की वो भावना

          आचार्य चाणक्य के गुण और योग्यताओं की चर्चा से प्रभावित एक पर्यटक उनसे मिलने के लिए मगध पहुँचा । देर शाम का समय था । आचार्य अपने निजी कक्ष में बैठे कुछ लेखन कार्य में संलग्न थे । दीपक का प्रकाश पूरे कक्ष को आलोकित किए हुए था । तभी द्वार पर दस्तक सुन, वहीं वैठे-बैठे बोले- द्वार सिर्फ भिड़काया हुआ है,अन्दर आ सकते हैं ।

          प्रवेश का आमन्त्रण पा पर्यटक भीतर आया । आचार्य का संकेत पा पास के आसन्दी पर विराजमान हुआ ।  

          आचार्य ने जिज्ञासा की- आप विष्णुगुप्त से मिलने आये हैं या मगध के माहामात्य आचार्य चाणक्य से ?

          पर्यटक पल भर के लिए विचलित हुआ आचार्य का प्रश्न सुनकर । फिर उसे स्वयं समझ आ गयी । प्रश्न की बारीकी पर ध्यान हो आया । उसने नम्रता पूर्वक कहा- कोई राजकीय कार्य नहीं है । श्रीमान की चर्चा तो सर्वत्र होते रहती है । इसीसे आकृष्ट हो, चला आया,  दर्शन लाभ के लिए ।

          आचार्य ने हाथ जोड़कर स्वागत पूर्वक संकेत किया विराजने का । पर्यटक ने देखा, पास ही ताक पर एक अप्रज्ज्वलित दीपक रखा हुआ था । उसे उठाया और पहले से जल रहे बड़े दीपक का सीसा हटाकर, उसीके सहयोग से उस दूसरे दीपक को प्रज्ज्वलित किया और पहले वाले दीपक को बुझाकर यथास्थान रख दिया । विखरी पंजिकाओं को एक ओर सहेज कर, सहज मुद्रा में आसीन होकर कहा- अब कहिए क्या जिज्ञासा है आपकी ?

          पर्यटक चकित था । पूर्व प्रज्ज्वलित बडे दीपक को बुझाकर, दूसरे छोटे दीपक को प्रज्ज्वलित करने का कारण और उद्देश्य उसके समझ से परे था । आम तौर पर लोग किसी आगन्तुक को आकर्षित-प्रभावित करते हैं अपने कक्ष को सांज-संवार कर, अधिकाधिक आलोकित करके, किन्तु यहां तो विपरीत ही देखने को मिला उसे । अतः उसने जिज्ञासा की - आचार्यश्री अन्य बातें तो होंगी ही , उसके पूर्व आप कृपया मेरी इस कौतूहल का शमन करें- आपने ये दूसरा, मध्धिम प्रकाश वाला दीपक क्यों जला दिया ?

          आचार्य के होठ किंचित विस्फारित हुए, मुस्कान-मुद्रा में । बोले- आप जिस समय पधारे, उस समय मैं कुछ राजकीय कार्य में संलग्न था । लेखन-पठन कार्य के लिए तीव्र प्रकाश की आवश्यकता होती है । किन्तु सामान्य वार्ता तो मन्द प्रकाश में भी सम्भव है ।  दूसरी बात ये कि उस तीव्र प्रकाश वाले दीपक में राजकीय कोष का तैल क्षय हो रहा था । अब मैं आपसे व्यक्तिगत वा गैर राजकीय बातें करने बैठा हूँ । ऐसे में मेरी व्यक्तिगत व्यवस्था से व्यय होना चाहिए । राजकीय सम्पदा का किसी प्रकार का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए । विशेषकर व्यक्तिगत कार्य हेतु तो कदापि नहीं ।

     पर्यटक के अश्रुपूर्ण नेत्र विस्फारित थे श्रद्धावनत होकर । आगे कुछ कहने-पूछने के लिए उसके पास शब्द ही नहीं बचे थे । वह सोच रहा था- धन्य है ये भारतभूमि, जहां मगविप्र विष्णुगुप्त जैसे महापुरुष पैदा हुए । धन्य है ये मगध साम्राज्य , जहां आचार्य चाण्क्य जैसे महामन्त्री हैं.... ।

         पता नहीं उस पर्यटक ने आगे कितनी देर तक और क्या-क्या सोचा । उसके अश्रुपूर्ण नेत्र विस्फारित थे श्रद्धावनत होकर ।

सोच मैं भी रहा हूँ । आँखें मेरी भी छलक रहीं हैं और विस्फारित भी हैं, किन्तु श्रद्धावनत नहीं हूँ । क्यों कि इसके योग्य पात्र नहीं है मेरे सामने । अतः हृदय में पीड़ा है । मस्तिष्क में भूचाल । कहने-पूछने के लिए मेरे पास भी शब्दों का अभाव है । मुट्ठियां मींच रहीं है खुद-व-खुद गहरे आक्रोश से, किन्तु समुचित कर्तव्याकर्तव्य का निर्णय नहीं कर पा रहा हूँ । चारों ओर भीड़ है । कर्कश कोलाहल भी है । दबाव है । प्रलोभन भी है । सत्ता का संघर्ष भी ।

सारा समय तो चुक जाता है- सत्ता पाने के प्रयास में और फिर हस्तगत सत्ता को सम्भालने के चक्कर में ही । सोचने-विचारने और करने का समय ही कहां मिल पाता है !  

राष्ट्र ही सम्यक् सुदृढ़ नहीं है, फिर राष्ट्रहित की बात क्या ! कौन करे, कैसे करे,कब करे ? स्वहित साधना से अवकाश मिले तब न ।

राष्ट्र की नयी परिभाषा हमने बना ली है । स्वतन्त्रता का नया अर्थ हमने निकाल लिया है अपनी सुविधा के अनुसार । सत्ता के हस्तान्तरण को ही स्वतन्त्रता समझे बैठे  हैं हम । उपनिवेशियों के अधिकारों में वश थोड़ा सा परिवर्तन भर ही तो हुआ है । न पूर्ण स्वतन्त्रता मिली है, और पूर्ण राष्ट्र का दर्जा ही ।

भारत अभी तक एक स्वतन्त्र राष्ट्र नहीं हो पाया है - सुनकर बहुतों को आश्चर्य भी होगा , किन्त सत्य यही है । जिन्हें विश्वास न हो उन्हें पुराने दस्तावेजों को खंगालने का प्रयास करना चाहिए । अस्तु ।  

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