बलात्कार की खिड़की से झांकते चेहरे


बलात्कार की खिड़की से झांकते चेहरे

          कुछलोग अक्सर खिड़की खुलने का इन्तज़ार करते रहते हैं । खिड़की खुली नहीं कि अपना सिर ढुका दिए । कुछ न कुछ तो दीख ही जायेगा । और यदि ना भी दीखा तो कोई नुकसान नहीं । दरअसल उनका मक़सद देखना नहीं, बल्कि दिखाना होता है- खुद को दिखाना- दुर्घटनाओं की खुली खिड़की से । घटना जितनी संवेदनशील होती है , उनका चेहरा उतना ही ज्यादा एक्पोज होकर दीखता है ।  

      खासकर नेताओं को इसमें महारत हासिल है । सहानुभूति कैसे प्रकट की जाती है - इनसे सीखा जा सकता है । घड़ियाली आँसू कैसे बहाये जाते हैं – इनसे जाना जा सकता है ।

       दुर्घटनाओं की खबरें अखबारों में छपती हैं, टीवी पर आता है, मंचों पर मचलता है, सड़कों पर हाय-हाय करता नज़र आता है । सड़क जाम से लेकर बाजार बन्दी तक होती है । दर्शन-प्रदर्शन में कुछ कसर दीखा तो तोड़फोड़ भी सुनियोजित ढंग से हो ही जाता है । पुतले फूंके जाते हैं । मुआवज़े मांगे जाते हैं । अधिकारी के निलम्बन या मंत्री के त्याग-पत्र की मांग भी की जाती है । और अपराधी के लिए तो फांसी से नीचे की कोई सज़ा मांगी ही नहीं जाती ।

किन्तु परिणाम ?

टीआरपी ग्रोथ । खबरियों को मुनाफ़ा  । सत्तासीन और सत्ताहीन को भी कुछ न कुछ लाभ ।

पर समाज को ? आम व्यक्ति को ? पीड़िता को ?

उसके हिस्से रह जाता है सिर्फ कुढ़न, घुटन, आक्रोश....।

घटना पुरानी पड़ जाती है । या कहें- नयी घटना पुरानी का जगह ले लेती है । जांच-पड़ताल फाइलों में दब जाते हैं । अधिकारी का तबादला हो जाता है । परिजनों और गवाहों का मुंह बन्द कर दिया जाता है । ज्यादा जिद्दी हुए तो हमेशा के लिए आँखें बन्द करने का भी जुगाड़ बड़ी आसानी से हो जाता है ।  

खुद को दिखाने का ललक लिए चेहरे और खबरिये फिर किसी संवेदनशील घटना का इन्तज़ार करने लगते हैं । सिलसिला चलते रहता है ।

क्यों न चले, यही रोजी-रोटी जो है ।

और न्याय ?

          न्याय तो खुद ही न्याय के लिए तरस रहा है ।  रबरस्टैम्प से ज्यादा कहां कुछ है ! ठप्पा मारने वाला जिस कागज पर मार दे ।

जो कानून होगा उसी के दायरे में न न्याय होगा । और कानून कैसा है- ये भला किसे नहीं मालूम । कानून बनाने वाला कैसा है- इससे कौन वाकिफ़ नही है !

कुटिल फिरंगियों के विष-वमन का खप्पर और पॉटी सत्तर वर्षों से ढोये जा रहे हैं ।

          अपराधी मुक्त संसद नहीं हो सका, फिर अपराध-मुक्त देश क्यूंकर होगा !

और ये भीड़ ?

वो तो इन्तजार करती है - दुर्घटनाओं का । कामचोर, निकम्मे और बेरोजगार बहुल देश में भीड़ इकट्ठा करना कोई कठिन काम थोड़े जो है । झुरमुटों में बैठ कर बावन पत्ते न खेले, सड़क पर ही घूम-फीर लिए । झंडे-डंडे भांज लिए । कुछ अद्धा-पौवा का जुगाड़ हो गया । माहौल यदि चुनावी हुआ तो कुछ और भी । और कोई न कोई चुनाव तो आये दिन लगा ही रहता है ।

भीड़ इकट्ठी होती है - चौक-चौराहों पर, मुर्दाबाद के नारे लगाती है, फोटो खिंचवाती है और अगले दिन अखबार में ढूढ़ती है- अपना चेहरा । न्यूज न बना तो पेडन्यूज ही सही ।

एक सवाल—

मुआवज़े पाकर क्या खोयी आबरु वापस मिल जा सकती है ? दिल के ज़ख्म क्या भर जा सकते हैं ? कुढ़न, घुटन, बदनामी क्या कम हो जा सकती है ? दिवंगत परिजन क्या जिन्दा हो जा सकता है ?

ये सब कुछ नहीं होता ।

गर ये नहीं होता, तो फिर होना क्या चाहिए ?

         जो होना चाहिए वो नहीं होता । जो नहीं होना चाहिए वो होते रहता है— लूट-पाट, हत्या, घोटाले, भ्रष्टाचार, बलात्कार ये सब होते रहते हैं - पहले से भी कहीं अधिक ढीठाई से...बेहयाई से ।

तो फिर हो क्या ?

थोड़ा कुछ हुआ है - कानून जरा सा सुगबुगाया है ।

किन्तु उसे अपनी कलाबाजी से निरस्त करने वाले अधिवक्ताओं की कमी थोड़े जो है । पैसे तो कलाबाजी में ही है न ! वैसे तो कोट की धुलाई भर भी नहीं मिलती ।

अभी बहुत कुछ  करने की जरुरत है ।

नेताओं के पास समय नहीं है । फुर्सत नहीं है । बेचारों की सारी ऊर्जा खप जाती है- कुर्सी बचाने में ।

अतः हमें ही कुछ करना होगा ।

सबसे पहला काम ये कि अगली बार हाथ जोड़कर, बतीसी निपोर कर, दरवाजे पर आये तो कान पकड़कर, किक आउड करना होगा ।

जाति, धर्म, क्षेत्र और सम्प्रदाय की परियानी पर नेता को तौलने से बड़ी बेवकूफी और कुछ नहीं । चोर, लुटेरे, आततायी, आतंकी और बलात्कारी की कोई जाति होती है क्या ?  कोई धर्म  होता है क्या ?

नेता एक जाति विशेष का नाम है । एक परजीवी (पैरासाइट) का नाम है - जो जनता के खून-पसीने से फलता-फूलता है । और उसी पर रोब भी गांठता है ।

इसे समूल नष्ट करना होगा । सारा काम छोड़कर इस काम में लग जाना होगा ।

आतंकी के लिए कोई ईद नहीं, कोई रमज़ान नहीं । बलात्कारी के लिए कोई तीज-त्योहार नहीं । कोई नियम-मर्यादा नहीं । कोई उम्र नहीं । कोई रिश्ता नहीं ।

कैद...जुर्माना...फांसी...!!!

इससे क्या होगा ? फांसी भी कोई सजा है ? करोड़ों-अरबों का घोटाला और सज़ा पांच-दस वर्ष- ये कैसी सजा है ? वीआईपी जेल- ये कैसा जेल है ?

तो फिर ?

आतंकी गतिविधि देखते ही गोली मार दो । न ईद न रमज़ान । न होली न दशहरा ।

और भ्रष्टाचारी ?

भ्रष्टाचारी की एक ही सजा - कान पकड़ कर कुर्सी से नीचे ढकेल दो ।  सारी सम्पत्ति जप्त कर लो । जनता की सम्पत्ति, जनता में बांट दो । इतना ही नहीं , इतना पीटो, इतना पीटो कि अगली बार से खुद को नेता कहने से डरने लगे ।

और बलात्कारी को ?

जननेन्द्रिय का समूल खात्मा कर, पिंजड़े में कैद कर, चौराहों पर रख दिया जाए । जीने भर की व्यवस्था मिले ।  मरने को भी तरसता रहे ।

हो सकता है आप कहें - कानून हाथ में लेना अच्छा नहीं । हां, बिलकुल अच्छा नहीं- मैं भी यही कहूंगा ।

किन्तु कानून न ? कि डस्टविन ? पोथड़ा (डाइपर) ?

उसे तो हाथ लगाना ही पड़ेगा । कूड़े-कचरे को फेंकने में हाथ तो थोड़े गंदे करने ही होंगे । थोड़े समय के लिए अराजकता फैलती सी दीखेगी । लेकिन क्रान्ति घटित हो जाने दें । इण्डिया को भारतवर्ष बन जाने दें ।

काम कठिन है । असम्भव नहीं ।

जैसे भी हो, इतना हो जाने दें — फिर कोई नहीं आयेगा खिड़की से झांकने, अपना चेहरा दिखलाने, फोटो खिंचवाने ।

बन्देमातरम् ।




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