गर्भरक्षासूत्रःअद्भुत तान्त्रिक प्रयोग
गर्भरक्षासूत्रःअद्भुत तान्त्रिक
प्रयोग
महाभारत का सर्वविदित प्रसंग है कि
कुरुकुलवधु उत्तरा के गर्भ पर अश्वत्थामा- प्रक्षेपित ब्रह्मास्त्र से श्रीकृष्ण ने रक्षा
की । ये बात कथाओं में ही सिमट कर रह गयी । महर्षि व्यास कहते हैं—
अन्तस्थः
सर्वभूतानामात्मा योगेश्वरो हरिः । स्वमाययावृणोद् गर्भ वैराट्याः कुरुतन्तवे ।।
(समस्त
प्राणियों के हृदय में आत्मा रुप से वास करने वाले योगेश्वर श्रीहरि ने कुरुवंश की
वृद्धि के लिए उत्तरा के गर्भ को अपनी माया रुपी कवच से आक्षादित कर दिया ।)
उक्त
श्लोक का अद्भुत तान्त्रिक प्रयोग भी है । आये दिन गर्भ से सम्बन्धित तरह-तरह की
समस्यायें झेलनी पड़ती है स्त्रियों को । आधुनिक धंधेबाज बहुल डॉक्टरों द्वारा आर्थिक
और मानसिक उत्पीड़न भी झेलना पड़ता है, साथ ही पारिवारिक और सामाजिक उत्पीड़नों का
भी सामना करना पड़ता है ।
चिकित्साशास्त्र की दृष्टि से गर्भस्राव
व गर्भपात के अनेक कारण हैं, जिनके समुचित निवारण के विविध उपाय सुझाये गए हैं । गर्भरक्षासूत्र
भी ऐसा ही एक अद्भुत उपाय है, जिसका प्रयोग कर लाभान्वित हुआ जा सकता है । किन्तु
इसकी कुछ शर्तें हैं—
1.प्रयोग करने वाले व्यक्ति और जिस
पर प्रयोग किया जाना है, उस स्त्री को विशुद्ध सात्त्विक आहार-विहार वाला होना
अपरिहार्य है,अन्यथा प्रयोग निष्फल होगा ।
2.मदिरा-मांस के सेवी इसमें बिलकुल
हाथ न डालें, अन्यथा उन्हें निराश होना पड़ेगा और शास्त्र की भी अवमानना होगी ।
3.प्रयोगकर्ता (साधक) अपने जीवन में
कम से कम एक बार किसी वैष्णव मन्त्र का पुरश्चरण अवश्य किये हुए हों । वस्तुतः ये
प्रयोग एक वैष्णवी साधना है ।
4.प्रयोग से पूर्व उक्त मन्त्र का
कम से कम दस हजार जप अवश्य कर लेना चाहिए । जप के पश्चात् दशांश हवन भी होना चाहिए
। आम या पीपल की लकड़ी से अग्नि प्रज्वलित कर, गोघृत की आहुति देनी चाहिए । एक बार
की सिद्धि साधक के लिए आजीवन की सम्पदा बन जायेगी । आगे उसे सिर्फ सामान्य
प्रयोगार्थ जप ही करना होगा ।
4.जब तक रक्षासूत्र का उपयोग स्त्री
कर रही है, तब तक उसे नियम-संयम का पालन करना होगा, तभी समुचित लाभ मिल सकेगा ।
सूत्र-निर्माण-विधि—
पञ्चांग शुद्धि का सम्यक् विचार
करते हुए, तकली से काते हुए कच्चे सूते को गंगाजल से धोकर, केसर से रंग दें । जिस
स्त्री के लिए रक्षासूत्र निर्माण करना हो, उसे स्नानोपरान्त पूर्वाभिमुख खड़े
करके, आपादमस्तक सूत्र से नाप लें । नापने की क्रिया सात बार क्रमशः ऊपर से
नीचे-नीचे से ऊपर (सूत को बिना तोड़े हुए) करे । इस प्रकार स्त्री की लम्बाई का
सात गुना सूत्र वेष्ठित हो गया । अब उसे पीपल के ताजे पत्ते पर स्थापित कर दे । प्रयोगकर्ता
यहां पूर्वाभिमुख बैठे और स्त्री पश्चिमाभिमुख यानी दोनों आमने-सामने रहें । अब
वेष्ठित सूत्र में श्रीकृष्ण का ध्यान करते हुए विधिवत प्राणप्रतिष्ठादि विनियोग
और मन्त्रों का प्रयोग करते हुए स्थापना
करे । तदुपरान्त स्त्री द्वारा सूत्र का
पञ्चोपचार पूजन सम्पन्न करावे । ये कार्य भी ससंकल्प होना चाहिए । क्रियाक्रम में
कलशस्थापन आदि अनिवार्य नहीं है । किन्तु प्रारम्भिक गणेशाम्बिका पूजन अवश्य कर ले
।
पूजनोपरान्त पूजित सूत्र को उठा कर,
प्रयोगकर्ता अपने हाथ में ले ले । अब ऊपर दिये गए मन्त्र के आदि में ‘प्रणव’
तथा अन्त में ‘अग्निबीज’
संयुक्त करते हुए, इक्कीश बार उच्चारण करे । ध्यान रहे प्रत्येक बार के
मन्त्रोच्चारण के पश्चात् सूत्र में एक गांठ लगा देनी है । इस प्रकार सप्तगुणित
सूत्र इक्कीश मन्त्राभिसिक्त हो जायेगा और गांठें भी इक्कीश पड़ जायेंगी । अब
पूर्व में रखे अश्वत्थपत्र पर स्थापित करके, पुनः पञ्चोपचार पूजन करावे उसी स्त्री
द्वारा । पूजनोपरान्त सूत्र को सम्मान पूर्वक ग्रहण करे और स्त्री की बायीं भुजा
में वा गले में माला की तरह पहना दे । प्रसव समय समीप आने पर (वेदना शुरु होने पर)
सूत्र को गले से निकाल कर कमर में नाभी के पास बांध दे । सकुशल प्रसव निवृत्ति
होजाने के बाद, सूत्र को प्रसूता के कमर से उतार कर, गंगाजल से प्रक्षालित कर, धूप-दीप
दिखाकर, नवजात शिशु के गले में धारण करा देना चाहिए । ये कार्य शिशु के नाल-छेदन
और स्नान के बाद करना चाहिए । शिशु के गले में ये रक्षासूत्र सवा महीने तक ही
रहेगा । तत्पश्चात ससम्मान उसे जल में विसर्जित कर देना चाहिए । आगे भी जरुरत
(इच्छा) हो तो बच्चे की रक्षा हेतु भी इसी भांति नया सूत्र बनवा कर प्रयोग किया जा
सकता है । पूतनादि समस्त प्रकार के
विघ्नों का नाश करने वाला ये अद्भुत सुरक्षाकवच है—इसमें जरा भी संदेह नहीं ।
ध्यान रहे गर्भिणी को सूत्र धारण के
पश्चात किसी अशौच गृह वा स्थल में नहीं जाना चाहिए । भूल वश ऐसा हो जाने पर, सूत्र
को गले से निकाल कर, पुनः गंगाजल से धोकर, धूपित करके धारण करना चाहिए ।
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