शाकद्वीपीयब्राह्मणःलघुशोध--पुण्यार्कमगदीपिका भाग छः
गतांश से आगे...अध्याय छः का दूसरा भाग--
पौराणिक
भूगोल—
अब
आगे सिर्फ भूलोक की विशेष चर्चा करते हैं। जो आधुनिक भूगोल से बिलकुल अलग हट कर या
कहें अधिक गहराई में जाकर, पौराणिक भूगोक
है । यहां यह अति प्रासंगिक भी है।
विद्वानों के लिए भले ही यह प्रसंग उबाऊ हो सकता है, किन्तु नयी पीढ़ी के
लिए वैचारिक दीपिका साबित होगी—ऐसा मेरा विश्वास है।
समूचा
भूगोल ५० करोड़ योजन विस्तार वाला है । और उसके बाद उससे चौथाई
(साढ़ेबारह करोड़ योजन) विस्तार वाला लोकालोक पर्वत है। एतावाँलोकविन्यासो
मानलक्षणसंस्थामिर्विचिन्तितः कविभिः स तु पञ्चासत्कोटि- गणितस्य भूगोलस्योत्तरीयभागोऽयं
लोकालोकाचलः।। (भा.पु.५-२०-३८)
ध्यातव्य है कि यह सिर्फ एक ब्रह्माण्ड का परिमाण कहा जा रहा है । जब कि
ब्रह्माण्ड अगनित हैं।
अति
पूर्वकाल में स्वायम्भुव मनु के दो पुत्र हुए - प्रियव्रत और उत्तानपाद। इन्हीं उत्तानपाद के पुत्र विष्णु-भक्त ध्रुव
हैं, जो ध्रुवतारे के रुप में अपने लोक में प्रतिष्ठित हैं । प्रियव्रत के दस
पुत्र हुए,जिनमें तीन तो पूर्ण वैरागी हो गये,शेष सात के लिए राजर्षि ने
सप्तमहाद्वीपों की योजना बनायी। ये हैं क्रमशः- जम्बूद्वीप, प्लक्षद्वीप,
शाल्मलिद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप और पुष्करद्वीप ।
ध्यातव्य
है कि विभिन्न पुराणों में मन्वन्तर वैभिन्य से इनके क्रम में किंचित भेद भी है,
पर नाम में नहीं । हां, प्लक्ष का एक नाम गोमेद भी है ।
यहां
एक और बात ध्यान देने योग्य है कि पुराण-शैली में,जहां कथाओं, रुपकों,आख्यानों आदि
के माध्यम से सत्य से साक्षात्कार कराने का प्रयास रहा है महर्षि व्यासजी का, तो
उनकी शैली में हम कह सकते हैं कि क्षीरशायी महाविष्णु के नाभि से उद्भुत कमल ही यह
पृथ्वी है,जिसका मध्यभाग - जहां
कमलगट्टा(बीजरुप) होता है, वही पुष्करद्वीप है (पुष्कर का शाब्दिक अर्थ भी कमल ही
होता है) और शेष सभी द्वीप उसकी पंखुड़ियां हैं। दो पंखुड़ियों के मध्य का रिक्त सा
प्रतीत होने वाला भाग ही उनके विभाजक उदधियां हैं।
कुछ
पौराणिक उद्धरण द्रष्टव्य हैं— अतः परं प्रवक्ष्यामि भूर्लोकस्यास्य निर्णयम् ।
जम्बूद्वीपः प्रधानोऽयं प्लक्षः शाल्मलिरेव च ।। कुशः क्रौंञ्चश्च शाकश्च पुष्करश्चैव
सप्तमः । एते सप्तमहाद्वीपाः समुद्रैस्सप्तभिरावृताः
।। (कूर्मपुराण)
भूतले
मध्यगे मेरुः सर्वदेवसमाश्रयः । लोकालोकश्च भूम्यन्ते तन्मध्ये सप्त सागराः । द्वीपाश्च
सप्तविप्रेन्द्र द्वीपे-द्वीपे कुलाचलाः ।। वह्वयो नद्यश्च विख्याताः
जनाश्चामरसन्निभाः।। जम्बूपल्क्षाभिधानौ च शाल्मली च कुशस्तथा । क्रौञ्चःशाकः
पुष्करश्च ते सर्वे देवभूमयः ।। एते द्वीपास्समुद्रैस्तु सप्तसप्तभिरावृताः ।।
(नारद पुराण)
ये
सभी सातो द्वीप पूर्णरुप से वर्ण-व्यवस्थित हैं। इसे श्रीमद्भागवत महा पुराण के
भुवनकोश वर्णन प्रसंग में देखा जा सकता है। यथा—
सातद्वीपों की चातुर्वर्ण-व्यवस्था
१.जम्बूद्वीप
|
ब्राह्मण
|
क्षत्रिय
|
वैश्य
|
शूद्र
|
२.प्लक्षद्वीप
|
हंस
|
पतंग
|
उर्ध्वायन
|
सत्यांग
|
३.शाल्मलिद्वीप
|
श्रुतधर
|
वीर्यधर
|
वसुन्धर
|
इषधर
|
४.कुशद्वीप
|
कुशल
|
कोविद
|
अभियुक्त
|
कुलक
|
५.
क्रौंचद्वीप
|
पुरुप
|
ऋषभ
|
द्रविड़
|
देवक
|
६.
शाकद्वीप
|
ऋतव्रत
|
सत्यव्रत
|
दानव्रत
|
अनुव्रत
|
७.
पुष्करद्वीप
|
मात्र
हंस वर्ण
|
-
|
-
|
-
|
पृथ्वी
के मध्य में जम्बूद्वीप स्थित है, जिसका विस्तार एकलाख योजन (योजन = चार कोस = आठ मील यानी कि बारह किलोमीटर लगभग) है।
इसकी आकृत्ति सूर्यमंडल की तरह है । पूरे भूमण्डल को हम एक विशालकाय कमलपुष्प
मानते हुए कह सकते हैं कि ऊपर कहे गए सात द्वीप उसके कोश-स्थान में हैं । उन सात
में सबसे भीतर का कोश है हमारा जम्बूद्वीप ।
पुनः
उस जम्बूद्वीप को नौ-नौ हजार योजन विस्तार वाले नौ खण्ड किये गये, जो नववर्ष के
नाम से ख्यात हुए । यथा— भद्राश्ववर्ष, केतुमालवर्ष, भारतवर्ष, हरिवर्ष, किंपुरुषवर्ष, रम्यकवर्ष,
हिरण्यमयवर्ष, उत्तरकुरुवर्ष, पूर्व/ दक्षिण कुरुवर्ष । शेष भाग में यानी सबके मध्य में एक अलग दसवां वर्ष
भी है, जो इलावृतवर्ष के नाम से जाना जाता है । इस इलावृतवर्ष के मध्य में समस्त
पर्वतों का राजा मेरुपर्वत है, जिसे भूमण्डल रुपी कमलपुष्प की कर्णिका कह सकते हैं
। इलावृतवर्ष के उत्तर में क्रमशः
रम्यकवर्ष, हिरण्यमयवर्ष और कुरुवर्ष हैं, तथा दक्षिण की ओर हरिवर्ष, किम्पुरुषवर्ष
और भारतवर्ष है । पूर्व और पश्चिम में क्रमशः भद्राश्ववर्ष और केतुमाल वर्ष हैं। (भा.पु.पंचम स्कन्ध,भुवनकोश वर्णन)
ध्यातव्य
है कि उक्त भारतवर्ष को भी कई खंड और उप खंडों में विभाजित किया गया है । इसके
प्रमाण स्वरुप हम किसी कार्य में किए जाने वाले संकल्प-वाक्य पर ध्यान दें— ॐ विष्णुर्विष्णुविष्णुः श्रीमद्भगवतो
महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीयपरार्धे
द्वितीययामे तृतीयमुहूर्ते श्रीश्वेतवाराहकल्पे सप्तमे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे
कलियुगे कलिप्रथम चरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तैकदेशान्तरगते
बौद्धावतारे प्रभवादि षष्टिसंवत्सराणां मध्ये, वैक्रमाब्दे...इत्यादि।
पुराण
कहते हैं कि ये भारतवर्ष ही सिर्फ कर्मभूमि है । शेष सभी वर्ष भोगभूमि हैं, जहां
स्वर्गादिलोकों का अवशेष पुण्य फलादि
भोगने हेतु प्राणी पहुँचता है । यथा— अत्रापि भारतं श्रेष्ठं जम्बूद्वीपं
महामुने । यतोहि कर्मभूरेषा ततोऽन्या- भोगभूमयः ।। (वामनपुराण
अ.११)
इसे
यूं समझें— मान लिया कि स्वर्गलोक-भोग
हेतु पुण्यमान १०
से १०० तक
का चाहिए। अब १० से नीचे वाले को कहां भेजेंगे—क्षीणे
पुण्ये मृत्युलोके वसन्ति...में यह भाव भी छिपा हुआहै । यानी इतना पुण्य अब
शेष नहीं रहा कि स्वर्गलोक में वास हो सके, किन्तु न वह नरकादि के योग्य है और न
मुक्ति की स्थिति वाला ही । वैसी स्थिति में उन-उन वर्षों में जाना पड़ता है
प्राणियों को। ध्यातव्य है भारतभूमि सिर्फ कर्मभूमि ही नहीं, प्रत्युत किंचित
भोगभूमि भी है । यानी कि भोगभूमि होते हुए भी कर्म की प्रधानता है यहां । शेष सब
तो मात्र भोगभूमि हैं।
इस
प्रकार उक्त पंक्तियों से ये स्पष्ट होता है जिसे आज हम भारतवर्ष(अंग्रेजों के
शब्दों में इण्डिया) कहते हैं,वह पौराणिक-ऐतिहासिक सम्पूर्ण भारतवर्ष नहीं है। बल्कि
उसका एक बहुत ही छोटा सा भाग है। वर्तमान में तो आ समुद्रा तु वा पूर्वा वा
समुद्रातु पश्चिमा हिमयोर्विन्ध्ययोर्मध्ये आर्यावर्त विदुर्बुधाः – वाली सीमा
मर्यादा भी नहीं रही है हमारे राष्ट्र की।
अब
जम्बूद्वीप के बारे में कुछ बातों की चर्चा करें—
जम्बूद्वीप
अपने समान आकार वाले खारे पानी के समुद्र से घिरा हुआ है। प्रियव्रत के ज्येष्ठ
पुत्र आग्नीघ्र इसके अधिपति कहे गए हैं । जम्बूद्वीप को विराट पुरुष का कटिभाग कहा
गया है । इस प्रकार कटिप्रान्त से ऊर्ध्वगमन करते हुए,इससे छठे पड़ाव पर शाकद्वीप
की स्थिति है । मेरुओं में प्रधान मेरु शाकद्वीप में ही है— देवर्षि गन्धर्व
युतो प्रथमो मेरु रुच्यते (वायुपुराण अ.४९)।
भूगोलार्द्ध का ऊपरी मुखभाग शाकद्वीप ही है। स्कन्दपुराण शाकद्वीप को जम्बूद्वीप
और क्षार समुद्र के बाद, यानी दूसरे क्रम में ही मानता है, जब कि भागवतादि पुराणों
में ऊपर वर्णित क्रम है — शाकद्वीप का
प्रारम्भ से छठा क्रम । तदनुसार विस्तार और आवृत्त (क्षारजल, सुस्वादु जल, धवल जल,
सुरा, घृततुल्य,दधितुल्य,मधुरसादि) के क्रम में भी भेद है। शाकद्वीप में राजा
प्रियव्रत के पुत्र मेधातिथि का आधिपत्य है। यहां ऋतव्रत, सत्यव्रत, दानव्रत और
अनुव्रत नामक चार वर्ण वास करते हैं । ये सभी द्वीप उत्तरोत्तर क्रम से दुगने
विस्तार और आवृत वाले हैं।
इस
प्रकार सप्तद्वीपा (स समुद्राः) सम्पूर्ण पृथ्वी का परिमाण दो करोड़, पचास लाख,
तिरपन हजार योजन कहा गया है। ध्यातव्य है कि इस विस्तार से परे भी शत-सहस्र योजनों
का अनन्त विस्तार है, और सृष्टि वहां भी समान्तर रुप से फलफूल रही है।
प्रसंगवश
हम कह सकते हैं कि शाकद्वीपीय बन्धु इस विधा में सिद्धहस्त थे – इसमें कोई दो मत
नहीं । भौतिक-अभौतिक सृष्टि के तात्त्विक भेद के कारण ‘टाईम और स्पेस’
का प्राचीन सिद्धान्त आधुनिक भौतिक विज्ञानियों के समझ से बाहर की बात है। तब और
भी- जब कि समझने का प्रयास ही न किया जाय ।
नव शोधकार जल के विविध स्वाद और रंग-भेद (क्षारीय,अम्लीय,फेनिल,मधुर,स्नेहिल,नील-पीतादि
रंगों) के आधार पर पृथ्वी के विभिन्न समुद्रों,खाड़ियों से तुलना कर अपना सत्य
प्रमाणित कर देते हैं, और काल गणना, जो उनके समझ से बिलकुल परे है, को ऋषि-परम्परा
की कपोल-कल्पना या अतिशयोक्ति कह कर
वेशर्मी पूर्वक खिल्ली उड़ाते हैं । कुछ थोड़े से आधुनिक विज्ञानी जो समझने का
सत्प्रयास किये हैं, भारतीय विद्या और कला के सामने नतमस्तक होकर,स्वयं को
गौरवान्वित अनुभव किए हैं।
एक
महत्त्वपूर्ण बात पर ध्यानाकर्षण जरुरी लग रहा है कि
पौराणिक भूगोल और आधुनिक भूगोल में कोई तालमेल नहीं है । हो भी नहीं सकता । यही
कारण है कि जानकार लोगों का एक वर्ग इसे सिरे से नकार देता है - कपोल-कल्पना या
निरा झूठ कहकर,क्यों कि वह तो भौतिक-रासायनिक प्रयोगशालाओं में बैठकर शोध कर रहा
होता है। इससे बाहर झांकने का वह प्रयास भी नहीं करता।
खोजियों
का दूसरा वर्ग दिव्य-अलौकिक आदि शब्दों से महिमामंडित कर गौरवान्वित(या कहें
अहंकारित) भर होकर रह जाता है । उससे आगे मतलब नहीं है।
एक
तीसरा वर्ग है, जो नितान्त एकान्त-सेवी, मनस्वी, योगाभ्यासी है और अपने साधना बल
से सत्य की खोज करता है;
क्यों कि उसे पता है। उसने सुन रखा है, जान रखा है कि महर्षि पतञ्जलि स्पष्ट शब्दों में दावे के साथ
कह चुके हैं— भुवनज्ञानं सूर्येसंयमात् । चन्द्रे ताराव्यूहज्ञानम् । ध्रुवे
तद्गतिज्ञानम् । नाभिचक्रे कायव्यूहज्ञानम् । (पातञ्जलयोगसूत्रम्,विभूतिपाद-२६,२७,२८,२९)
किन्तु
इसमें एक खतरा भी कह सकते हैं- उसका सत्य गूंगे के गुड़ की तरह प्रायः
होता है। महात्मा वुद्ध कठोर नियम बना रखे थे- कुछ विशिष्ट प्रश्नों पर निषेधाज्ञा
जारी कर रखी थी उन्होंने। पूछने-जानने की मनाही थी। और क्यों न हो । जिस अनुभूति
को सिर्फ अनुभूति तक ही रखा जा सकता है,वहां निरीह शब्दों की अभिव्यक्ति भला क्या
काम आयेगी ?
बन्धुओं
!
इस रहस्यमय भुवनकोष को समझना है तो इन सूत्रों को साधो और इसका
रास्ता यहां पर, महर्षि पतञ्जलि सूर्य से ही दिखला रहे हैं। इसका अर्थ आप ये न
लगालें कि और रास्ता हो ही नहीं सकता । किन्तु
इतना निश्चित है कि यह सर्वाधिक प्रशस्तमार्ग है।
एक चौथा
वर्ग भी है, जो वुद्ध की तरह साधना तो नहीं करता,किन्तु निरन्तर शोध में लगा होता
है—सच्चाई को जांचने-परखने में अपना जीवन खपाता है। सच पूछें तो ऐसे ही खोजी
व्यक्ति की आवश्यकता है, जो धर्मान्धता-विकार रहित, गणितीय-तार्किक और निष्पक्ष विचार
वाला हो । तभी किसी सही दिशा में बढ़ सकेगा समाज । इसे सम्यक् रुप से समझने हेतु ‘सायन्स
और योगा’ से
भिन्न, योगविज्ञान, सूर्यतन्त्र और
सृष्टितन्त्र को नये सिरे से समझने की आवश्यकता है । अस्तु।
---)ऊँ श्री पूष्णार्पणमस्तु(---
क्रमशः...
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