शाकद्वीपीयब्राह्मणःलघुशोध--पुण्यार्कमगदीपिका भाग पांच
गतांश से आगे...
(छठे अध्याय का पहला भाग)
(छठे अध्याय का पहला भाग)
६.सृष्टि-संरचना
और पौराणिक भूगोल
सृष्टि
की रचना के सम्बन्ध में कई प्रकार के मत प्रचलित हैं। आधुनिक मत (डारविन का
विकासवाद) यह है कि पहले एककोशीय जीव, फिर
बहुकोशीय जीव के विकास-क्रम से जल-जन्तु और फिर पशु-पक्षियों की उत्पत्ति हुयी, और
बन्दर, वनमानुष आदि के बाद विकास क्रम में मनुष्य बना । इतना ही नहीं इस मनुष्य का
भी निरंतर विकास हो रहा है । ऐसा नहीं कि पूर्व में जो मानवी संरचना थी वही आज भी
है।
कोई
मत सीधे यह स्वीकार लेता है कि अनुसंधान का विषय है - सृष्टि-परम्परा । सही शोध पर
कोई पहुंचा ही नहीं है। अनुसंधान निरंतर हो रहे हैं । किन्तु भारतीय वेदपुराणोपनिषदादि
जरा भी संशय में नहीं हैं । यहां इस सम्बन्ध में किसी प्रकार के अनुसंधान की रत्ती
भर भी आवश्यकता नहीं है,प्रत्युत आवश्यकता है गहन अध्ययन की,विवेकपूर्ण चिन्तन की
और साधना की । क्यों कि यहां सर्वमत से सृष्टि-संरचना बिलकुल स्पष्ट है – विशन्ति
प्राणिनोह्यस्मिन्निति विश्वः स एव हि । दिव्य-भौम तथाऽमर्त्यमर्त्य रुपेण च
द्विधा ।।
इसी
भांति आगे देखें—सोऽकामयत् । एकोऽहं बहुस्याम् । प्रजायेयम् । (तैतरीयोपनिषद
२-६)
अव्यक्त ब्रह्म ने अपने को अनेक रुप में व्यक्त करने की इच्छा की। तब उसने
काल,मास,वर्ष,दिन,रात्रि आदि तथा उत्पत्ति-पालन-संहार आदि, एवं निर्गुण-सगुण,अन्धकार-प्रकाश,अव्यक्त
आदि गुणों को स्वभावतः यानी बिना किसी अन्य की प्रेरणा(सहयोग) के, अपने
निरीह-निश्चेच्ट आदि भावों को छोड़कर,ईहा चेष्टा आदि रुपा माया को उत्पन्न होने की
भावना से स्वीकार किया। वस्तुतः उसकी माया एक होते हुए भी लोहित, शुक्ल, कृष्णादि(लक्ष्मी,सरस्वती,काली)(सृष्टि,पालन, संहारादित्रिरुपा है— अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजाः
सृजमानां सरुपाः ।। (श्वेता.उप.४-५)
एक अजा—अनादि प्रकृति- सत्त्वादि तीन गुणों वाली,अपने समान रुप वाली बहुत सी
प्रजाओं को उत्पन्न कर रही है ।
ऐसा
ही पल-पल का क्रम और सिद्धान्त बिलकुल स्पष्ट है । इसके रहस्य को जान कर प्रबुद्ध
मनुष्य अभिभूत हो जाता है । भले ही रहस्य तक नहीं पहुंच पाने वाले लोग आलोचना
करें, और कपोल कल्पना कह कर निश्चिन्त हो जायें ।
प्रारम्भ
में सम्पूर्ण जगत शून्यमय,निर्जन्तुमय,अन्धकारमय था । न वृक्ष, न पर्वत,न नदी,न जल,न
वायु,न अग्नि, न आकाश,न पृथ्वी—कुछ भी नहीं,जरा कल्पना करें कैसा होगा वो काल !
किन्तु काल भी तो नहीं था न, फिर क्या होगा- ओह ! बिलकुल अकल्पनीय है न, यह स्थिति—ऐसा ही तो कहता है हमारा वैदिक नास्दीय
सूक्त ।
इन्हीं
भावों को महर्षि व्यास के शब्दों में देखें — नाहर्नरात्रिर्न नभो न भूमिः ।
नासोत्तमो ज्योतिरभूच्च नान्यत् ।
श्रोत्रादि बुध्याऽनुपलभ्यमेकम् ।
प्रधानिकं
ब्रह्म पुमांस्तदासीन् ।। (विष्णुपुराण
१-२-२३)
कुछ
ऐसे ही भावों को व्यक्त करते हैं श्रीमद्भगवत्गीता में श्री कृष्ण —
सहस्रयुगपर्यन्तमर्हयद्ब्रह्मणो
विदुः ।
रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः ।।
अव्यक्ताद्व्यक्तयः
सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे ।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके ।।
(अ.८ श्लोक १७,१८)
यानी
सहस्र चतुर्युगी अवधिवाले ब्रह्मा के दिन और रात्रि के रहस्य को जो पुरुष तत्त्वतः
जानता है, वही ज्ञानी काल के तत्त्व को या कहें सृष्टि के रहस्य को समझ सकता है। ध्यायत्व
है कि ब्रह्मा का एक दिन मानवी गणनानुसार चार अरब बत्तीस करोड़ वर्षों(४,३२,००,००,०००)
का हुआ करता है और पुनः उनकी रात्रि भी इतने ही अवधि वाली होती है। दिन के
प्रारम्भ में सारी सृष्टि सक्रिय होती है और रात्रि के प्रारम्भ के साथ-साथ सारी सृष्टि
उसी काल के गर्भ में समा जाती है । इसी अध्याय के सोलहवें श्लोक में बता चुके हैं
कि आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन । यानी ब्रह्मलोक पर्यन्त सभी
लोक पुनरावर्ती ही हैं, यानी आवागमन(जन्म-मृत्यु)वाले हैं ।
महर्षि
पाणिनि ने चौदह माहेश्वरसूत्र प्राप्त किया – अइउण् । ऋलृक् । एओङ् । ऐऔच् ।
हयवरट् । लण् । ञमङणनम् । झभञ् । षढधष् । जवगडदश् । खफछठथटतव् । कपय् । शषसर् ।
हल् ।।
वस्तुतः ये पाणिनि और शिव के बीच हुआ कोई सीधा
संवाद नहीं है,प्रत्युत डमरु से निस्सृत ध्वनियाँ हैं,जिन्हें आम जानकार व्याकरण
के सूत्र मात्र समझते-रटते रहते हैं, जबकि
इन्हीं चौदह सूत्रों में चौदह भुवनों का या कहें सम्पूर्ण सृष्टि का रहस्य छिपा
है, जिसे आगे चल कर महर्षि पतञ्जलि ने व्याख्यायित किया- महाभाष्य के रुप में। ज्ञातव्य
है कि यही पतञ्जलि योगसूत्र के भी रचयिता हैं और आयुर्वेद पर भी समानाधिकार है। इसी
कारण कहा गया है—योगेन चित्तस्य पदेन वाचां मलं शरीरस्य च वैद्यकेन । योऽपाकरोत्तं
प्रवरं मुनीनां पतञ्जलिं प्राञ्जलिरानतोऽस्मि
।। क्यों कि महर्षि ने त्रिविध कल्याणार्थ मार्गदर्शन किया है।
मूलतः
परब्रह्मपरमात्मा निर्गुण-निराकार हैं, किन्तु सृष्टि-लीला के लिए समयानुसार
सगुण-साकार हुआ करता है। एक बात हृदयंगम कर लेने योग्य है कि जो सगुण-साकार होगा, वो
सदा नश्वर ही होगा। अनश्वर कदापि हो ही नहीं सकता । सगुण-साकार सदा काल के वशीभूत
हुआ करता है । और जो काल के वशीभूत है, वो अक्षर-अविनाशी
कैसे हो सकता है
!
मनुष्य
गुण-दोषयुक्त है । आकार वाला है । अतः सीधे-सीधे निर्गुण-निराकार की आवधारणा सही ढंग
से कर भी नहीं पाता । यही कारण है कि सगुण-साकार ईश्वर की कल्पना करके क्रमशः आगे
बढ़ने का प्रयास करता है । ताकि काल-पाश से मुक्त हो सके ।
सृष्टि
के इस रहस्य को जरा संक्षेप में समझने का प्रयास किया जाये— निर्गुण-निराकार
ब्रह्म जब ऐष्णा करता है, तब सगुण-साकार रुप ग्रहण कर लेता है । वह रुप एक
विशालकाय-अपरिमित अण्डे सा हुआ करता है । श्रीमद्भागवतकार
ने इस स्थिति का बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया है— कालं कर्मस्वभावं च मायेशो
मायया स्वया । आत्मन् यदृच्छया प्राप्तं विवुभूपुरुषाददे ।। (भा.पु.स्क.२ अ. ५
श्लोक २१ से ४२ तक
इस विषय का विशद वर्णन है । साथ ही आगे इसी स्कन्ध के छठे अध्याय में भी ऐसे ही
प्रसंग हैं।)
मयापति
ने एकोऽहं बहुस्याम्... की इच्छा शक्ति से यानी मैं अनेक हो जाऊँ की कामना
से त्रिगुणात्मक क्षोभ उत्पन्न किया । इस कर्म ने महतत्त्व को जन्म दिया, जिसमें
रजोगुण और तमोगुण की वृद्धि होने पर महतत्त्व के विकार से ज्ञान-क्रिया-द्रव्य रुप
तमःप्रधान विकार हुआ, जो अहंकार के नाम से ख्यात हुआ । यही अहंकार विकारी होकर तीन
भागों में बंट गया—वैकारिक,तैजस और तामस । इसे ही क्रमशः सात्विक, राजस और तामस भी
कहा जाता है । ये तीनों क्रमशः ज्ञानशक्ति,
क्रियाशक्ति और द्रव्यशक्ति प्रधान हैं । इसी तामस अहंकार से पंचमहाभूत (क्रमशः-
आकाश,वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी) की उत्पत्ति हुयी। किन्तु सीधे-सीधे यूं ही नहीं।
इसे
ऐसा समझें— पंचमहाभूतों के ‘कारण’
स्वरुप तामस अहंकार में विकार होने से आकाश महाभूत की उत्पत्ति हुयी । आकाश की
तन्मात्रा और गुण है शब्द । इस शब्द के द्वारा ही द्रष्टा और दृष्य का बोध होता है,
यानी ये न हो तो बोध भी न हो । आगे उक्त आकाश में विकार उत्पन्न हुआ,जिससे वायु की
उत्पत्ति हुयी । इसका गुण है स्पर्श । ध्यातव्य है कि अपने कारण(आकाश)का गुण भी
इसमें समाहित है, यानी वायु का मूल गुण तो स्पर्श है ही,फिर भी शब्दगुण युक्त भी
है । इन्द्रियों में स्फूर्ति,शरीर में जीवनी शक्ति,ओज-बल-वीर्यादि सब इसीके रुप
हैं । आगे क्रमशः काल-कर्म-स्वभाववश वायु में भी विकार उत्पन्न हुआ,जिससे
तेज(अग्नि)की उत्पत्ति हुयी । अग्नि की तन्मात्रा है रुप । ध्यातव्य है कि मूल गुण
रुप के साथ-साथ पूर्व भूत (आकाश और वायु) के क्रमशः गुण(शब्द और स्पर्श) भी इसमें
विद्यमान हैं । आगे तेज के विकार से जल की उत्पत्ति हुयी, जिसका गुण है रस। पूर्व
की भांति ये भी अपने पूर्व के तत्त्वों (आकाश,वायु,अग्नि) के गुण शब्द, स्पर्श, रुपादि
से युक्त है। आगे जल के विकार से पृथ्वी की उत्पत्ति हुयी, जिसका गुण है गन्ध ।
पूर्व के तत्त्वों (आकाश, वायु, अग्नि और जल) के गुण क्रमशः शब्द, स्पर्श, रुप और
रस भी विद्यमान हैं इसमें । इस प्रकार हम पाते हैं कि पूर्व की अपेक्षा बाद वाले
तत्त्व पूर्व तत्त्वों के गुण को भी समाहित किये हुए हैं। एक बात और ध्यान देने की
है कि उत्तरोत्तर स्थूल स्वरुप भी है इन पांचों का । यानी पृथ्वी सर्वाधिक स्थूल
है, और आकाश सर्वाधिक सूक्ष्म । दूसरे शब्दों में स्पष्ट करें तो कह सकते हैं कि
सृष्टि-क्रम में तत्त्व सूक्ष्म से स्थूल होते गए हैं और संहार क्रम में(विपरीत
क्रम में) स्थूल से सूक्ष्म। ‘
कार्य-कारण न्याय ’
के अनुसार इनमें पूर्वोत्तर गुण भी
विद्यमान हैं । यहां तक हुआ महतत्त्व के विकार तामस अहंकार की सृष्टि । अब आगे
महतत्त्व के विकार सात्विक (वैकारिक) अहंकार की सृष्टि में मन और दस इन्द्रियों के
अधिष्ठातृ देवता—दिशा,वायु, सूर्य, वरुण, अश्विनी, अग्नि, इन्द्र, विष्णु, मित्र
और प्रजापति हुए । और उससे आगे तैजस (राजस)अहंकार के विकार के पांच
ज्ञानेन्द्रियां (श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्वा,घ्राण) और पांच कर्मेन्द्रियां (वाक्,हस्त, पाद,गुदा
और जननेन्द्रिय) उत्पन्न हुयी। इनके साथ ही ज्ञानशक्ति स्वरुपा बुद्धि और
क्रियाशक्ति स्वरुपा प्राण भी तैजस(राजस) अहंकार से ही उत्पन्न हुए।
इतना कुछ होने पर भी सृष्टि की क्रिया
आगे नहीं बढ़ी, क्यों कि यह सब कार्यभाव था । मायापति की कृपा से जब ये सब कारणभाव
स्वीकार किये,तब जाकर व्यष्टि और समष्टि रुप पिण्ड और ब्रह्माण्ड की रचना हुयी । किन्तु ये ब्रह्माण्ड भी सहस्र वर्षों तक
निर्जीव-सा(निष्क्रिय)पड़ा रहा । फिर काल-कर्म-स्वभाव को स्वीकार करने वाले निर्गुण-निराकार
परमात्मा की कृपा से उस अण्ड में विस्फोट हुआ,जिसके परिणाम स्वरुप विराटपुरुष की
उत्पत्ति हुयी । यह विराट् ही वास्तव में
ब्रह्माण्ड है । ध्यातव्य है योगेश्वरेश्वर श्रीकृष्ण ने अपने रोम-रोम में
ब्रह्माण्ड होने की बात कही है। वस्तुतः यह सृष्टि अनादि-अनन्त,अपरिमेय है । योगीगण
ध्यानावस्था में इसकी अनुभूति भले कर लें, किन्तु सामान्य मानवी बुद्धि में इसकी
समग्र कल्पना भी असम्भव है।
उस अद्भुत विराट् पुरुष की कमर के ऊपर
के अंगों में स्वर्गादि सप्तलोकों की कल्पना की जाती है, तथा कमर से नीचे के अंगों
में सातो पाताल की । पैरों से कटि पर्यन्त सप्त पाताल क्रम में ही हमारा भूलोक भी
है । उसके नीचे क्रमशः कटि में अतल, जांघों में वितल,घुटनों में सुतल,जानु में तलातल,एड़ी
के ऊपर की गांठों में महातल,पादपंजों में रसातल और तलुए में पाताल हुए । ऊपर नाभि
में भुवर्लोक, हृदय में स्वर्लोक,वक्ष में महर्लोक,ग्रीवा में जनलोक,दोनों स्तनों
में तपलोक और मस्तक में सत्यलोक है । इस
प्रकार सात+सात चौदह भुवन कहे गए हैं। अस्तु।
क्रमशः...
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