शाकद्वीपीयब्राह्मणःलघुशोध--पुण्यार्कमगदीपिका भाग दो

गतांश से आगे...

                 
           ३. मेरी व्यथा

    पूर्व अध्याय का प्रसंग था- नारद की जिज्ञासा यानी पौराणिक काल का प्रश्न, किन्तु आगे जो कहना चाह रहा हूँ, वो बिलकुल ही पौराणिक नहीं है। हां, प्रसंग कोई साठ साल पुराना जरुर है। मेरे पितृव्य पं.वालमुकुन्द पाठक जी उत्तराखंड की यात्रा पर थे। जमाना अतिथि देवो भव वाला था, होटल-ग्राहको भव वाला बिलकुल नहीं। दिन भर की यात्रा के बाद, जहां अन्धेरा हुआ, किसी द्वार पर दस्तक दें दें, स्वागत के लिए तत्पर है वह । मेरे स्वयंपाकी पितृव्य महोदय भी ऐसे ही एक विप्र के द्वार पर टिके । एक बालिका ने चूल्हा-चौका,अन्नादि का प्रबन्ध कर दिया । गृहस्वामी ने सादर निवेदन किया कि सबकुछ व्यवस्थित है,आप अपना भोजन बनायें । किन्तु पितृव्य ने कहा कि ईंधन तो है,पर अग्नि नहीं । बालिका शायद भूल गयी है । गृहस्वामी मुस्कुराये,और अपनी बालिका को बुलाकर कहा कि पंडितजी को आग जलाने में सहयोग करो । फुदकती हुयी छोटी बालिका आयी । गोइठा तोड़ कर सजायी,और हाथों में उठा कर,फूंक मार दी। अग्नि प्रज्वलित हो उठा । पितृव्य आवाक । उधर गृहस्वामी भी । गृहस्वामी ने सशंकित दृष्टि डाली — पंडितजी ! आपने तो कहा कि हम शाकद्वीपीय ब्राह्मण हैं, और भोजन बनाने के लिए आग मांग रहे हैं ? मेरे यहां तो छोटी बच्चियां भी निपुण हैं इस विधा में...।
    मेरे दादा-परदादा हाथी रखते थे,हम उसकी सांकल झनझनाते फिर रहे हैं— यही तो दशा है हमारी । कहने को तो मगद्विजकुलोजात हैं,परन्तु सामान्य संध्या-गायत्री से भी कोसों दूर । जब कि शास्त्र कहते हैं कि तीन दिन भी संध्या-गायत्री छूठ जाये तो ब्राह्मण चाण्डालवत हो जाता है।
    कृष्ण ने गीता में विप्र-कर्म-संकेत किया है— 
    शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च । 
   ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ।।         या फिर एक और संकेत है, जो शायद सरल लगे — अध्ययन-अध्यापन, यजन-याजन, दान-प्रतिग्रह वाला । यथा-- अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा । दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानामकल्पयत् ।।(मनुस्मृति १-८८)
  किन्तु यहां भी घपला मार जाते हैं - तीनों जोड़ों को अधियाकर — ज्ञानार्जन में अभिरुचि नहीं, प्रवचन खूब करते हैं । स्वयं यजन में जरा भी रुचि नहीं, पर याजन (यजमनिका) को परम कर्तव्य समझते हैं । दान लेने हेतु सदा हाथ पसरा रहता है, पर देने में महा संकोची...।

लगता है देवर्षि को पुनः कलापग्राम की यात्रा करनी होगी- नये बीज हेतु, किन्तु डर है कि कहीं वो भी हाईब्रीड न हो ! महाकवि की उक्ति याद आती है— हम कौन थे, क्या हो गए और क्या होंगे अभी ? आओ विचारें बैठ कर, हम समस्यायें सभी....। उत्तिष्ठ ! जाग्रत ! !                                                  ---)जय भास्कर(---
क्रमशः...

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