शाकद्वीपीय ब्राह्मणःलघुशोध--पुण्यार्कमगदीपिका - पुरोवाक्

श्रीगणेश....


                                 पुरोवाक्
     प्रिय मगबन्धु !        
पुण्यार्कमगदीपिका — किंचित विचित्र सा लग रहा है न ये नामकरण !
अवश्य लग रहा होगा। लगना भी चाहिए। क्यों कि दिव्य जन्मा सूर्यांश मग (शाकद्वीपीय ब्राह्मण) निरन्तर सूर्य के विपरीत यानी अन्धकार के पथिक होते जा रहे हैं। जिनके मुख में सदा अग्नि का स्थायी वास होता था, आज अरणी-मन्थन से भी अग्नि प्रकट करना उनके लिए क्लिष्ट हो रहा है। आशु प्रज्वालक कर्पूर से भी काम नहीं चलता तो सीधे आधुनिक अग्न्योत्पादक दियासलाई का सहारा लेने को विवश हुए, जैसा कि अन्यान्य लोग विवश हैं। अन्धकार-मार्गी को तो मार्गदर्शिका के रुप में कोई  न कोई दीपिका चाहिए ही न !
कुछ ऐसी ही बातों(घटनाओं) से प्रेरित होकर, इस पुस्तिका के सम्पादन की आवश्यकता प्रतीत हुयी। क्यों कि सर्वविदित है कि काल की गति अबाध है और जो बाधा रहित होगा, उसमें अति तीब्रता स्वाभाविक है। आधुनिक वैज्ञानिक न्यूटन भी तो काल और गति के इस नियम को स्वीकारते ही हैं। उनका तृतीय नियम कुछ ऐसा ही तो कहता है।   
अभी मात्र ५११८ वर्ष ही तो व्यतीत हुए हैं गतकलि के। अभी दिन ही कितने बीते हैं शाकद्वीपियों के जम्बूद्वीप आगमन के !  कृष्ण को पृथ्वी छोड़े कोई अधिक दिन तो हुए नहीं—क्या विसात है अविनाशी काल के पैमाने पर, अनादि-अनन्त सृष्टिचक्र की धूरी पर इन थोड़े से वर्षों का?
किन्तु नहीं। सम्भवतः मैं गलत हूँ। या गलत तरीके से सोच रहा हूँ। इकाई से महाशंख तक की गणना में भी नहीं समाने वाले महर्षि लोमश की आयु,जिनके शरीर का एक रोम-पातन होता है पूरे एक कल्प में, उनके लिए भला कृष्ण के प्रस्थान का क्षुद्र काल(संवत्सर) क्या मोल रखता होगा, किन्तु हम तो क्षुद्रातिक्षुद्र प्राणी हैं न ! वैसे काल में जनमे जरा-व्याधि,काम,क्रोधादि ग्रस्त मानव, जो जीवेम शरदः शतं,श्रुणुयाम शरदः शतं.... की कामना रखता है सिर्फ, पूर्ति होनी प्रायः असम्भव है। अतः हमारे लिए ये थोड़ा समझा जाने वाला कालखंड बहुत बड़ा है- ५११८ वर्ष। इन थोड़े से वर्षों में ही हम बहुत नीचे सरक आये हैं। सरके नहीं, सीधे औंधे मुंह गिरे हैं—ऐसा कहना चाहिए। विधर्मियों द्वारा सांस्कृतिक ध्वस्तता का प्रयास निरंतर जारी है और हम प्रायः उनमें सहयोगी बनते जा रहे हैं—बिना सोचे-समझे,उनकी सभ्यता-संस्कृति को अंगीकार कर-करके।
ऊँची उड़ान भरने की ललक और जीवन-यापन की मजबूरी अपने मूल स्थानों से निरंतर दूर करती जा रही है। संयुक्त परिवार इतिहास के पन्नों में समाता चला जा रहा है। नयी पीढ़ी में दादा-दादी,नाना-नानी का गोद भला कितनों को नसीब हो रहा है ? और हो भी कैसे ! जहां माँ की लोरियां और पिता का पुच्कार ही दुर्लभ हो रहा है-  इस भाग-दौड़ भरी जिन्दगी में।  पाये और मेहराबदार दालान बन्ध हो गये - दीवारों या ग्रीलों से। अब चौपाल की बैठकी होती ही कहां है ? अब होती हैं बैठकें - ए.सी. में, राउण्डटेबल  पर,जहां विचार-विमर्श कम, बतकूचन ज्यादा होता है। तभी तो संसद में  कुर्सियां जमीन से जड़ी जानी जरुरी लगती हैं। भले ही संचार माध्यम ने संसार को मुट्ठी में ला दिया है, किन्तु एक विस्तर पर ६३ के बजाय ३६ बने पति-पत्नी अपने-अपने फेशबुक और वाट्सऐप पर व्यस्त दीखते हैं। दुधमुंहें बच्चे का भी भरसक अलग कमरा होता है। ठीक से नाभी सूखने से भी पहले प्लेस्कूल जाना पड़ता है। और यही सब सभ्य होने की निशानी भी है। वे तो बड़े असभ्य लोग हुआ करते थे न जो दालान में गुदगुदे पुआल पर  गोद में बच्चों को बिठाकर विक्रमवेताल और सिंहासनबतीसी से लेकर अमरकोश, हितोपदेश और श्रुतबोध तक रटा मारते थे -   खरी छूने से भी पहले ही। अब तो दस-बीस हजार बरबाद करने के बाद बामुश्किल abcd आता है और उस पर ही हम थिरकने लगते हैं कि मेरा बच्चा good morning बोलने लगा है।
 इन परिस्थितियों में या कहें ऐसे सांस्कृतिक विकास के दौर में यदि अगली पीढ़ी अपनी पहचान ही नहीं, बल्कि मां-वाप का नाम भी भूल जाये, तो उसमें उस अभागे की क्या गलती होगी !
जाति न पूछो साधु की,पूछ लीजियो ज्ञान... — बेझिझक क्या हम किसी की जाति पूछ सकते हैं, भले ही वह अंचलाधिकारी का विषय क्यों न हो। जाति-पाति की बात करना अविकसित होने का सबूत पेश करने जैसा है। इसकी उपयोगिता सिर्फ वोट देते समय ही देखी-समझी जाती है और छूआछूत का सवाल तो सिर्फ ओ.टी. और सर्वररुम में ही जरुरी लगता है।
ऐसे में कुल-गोत्र-पुर-परम्परा और फिर सबसे बड़ी बात—अपने कुलदेवता/ देवी का परिचय और ज्ञान बहुत ही कठिन,असामयिक और अव्यावहारिक विषय हो चला है।
इन सब सवालों से जूझते,अकुलाते,भटकते इस लघुदीपिका की खोज पर ध्यान गया । विगत कई वर्षों तक पुस्तकालय के झाड़पोंछ के बाद, छोटी बुद्धि और निरीह हाथों से अथाह मन्थन के पश्चात् जो थोड़ा कुछ नवनीत संग्रहित हो पाया है, उसका स्वाद आपको भी चखा देना आवश्यक प्रतीत हो रहा है। हो सकता है मेरी यह मगदीपिका वर्तमान ही नहीं, भावी पीढ़ी के लिए भी मार्गदर्शिका का काम करे।
मगबन्धुओं तक अपना ये मगदीपिका-संदेश पहुँचाने में पितृव्य पं.बालमुकुन्द पाठक जी, उनके परम मित्र मगविभूति श्री विश्वनाथ शास्त्रीजी (कलकत्ता) (मूल निवासी- चनकी, छत्रहार, भागलपुर, बिहार), पं.देवदत्त मिश्रजी (माहेश्वरी विद्यालय, कलकत्ता) (मूल निवासी-फखरपुर,अरवल,बिहार), फूफाजी पं.रङ्गेश्वर नाथ मिश्र (मधुरेशजी) (कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय,दरभंगा) (मूल निवासी- करहरी, औरंगावाद,बिहार), फूफाजी मत्तकवि श्यामसुन्दर मिश्रजी (धर्मपुर,औरंगावाद), फूफाजी पं.वासुदेव पाठकजी (पाठक विगहा, जम्होर, औरंगावाद), आचार्य चन्द्रशेखर मिश्रजी (करौंदी, गुमला), मगदर्शन के रचयिता- श्री गौरीनाथ पाठकजी,गुमला, डॉ.सुधांशुशेखर मिश्र (संपादक मगबन्धु-अखिल, राँची) पं.शिवशंकर पाठकजी (पड़रिया, माली, औरंगाबाद), पं.गणेशदत्त मिश्रजी (शिवसागर, नवीनगर), पं. रुद्रदत्त पाठकजी (कलकत्ता) (मूलनिवासी-आनन्दपुरा,देव, औरंगाबाद), पं.चन्द्रमोहन मिश्रजी (पिथनुआं, सोननगर, औरंगाबाद), प्रो.वनेश्वर पाठकजी (संत जेवियर्स कॉलेज, राँची), डॉ.श्रीमती शैलकुमारी मिश्र (प्रयाग), पं.राम अवतार मिश्रजी (वेनीपुर,टेकारी,गया), पं.वृहस्पति पाठकजी (महाबलिपुरम्,पाली, पटना) आदि के सानिध्य, संवार्ता और सुलेखों का प्रचुर योगदान रहा है। अतः उनके प्रति हार्दिक आभार प्रकट करता हूँ। सन्दर्भ ग्रन्थों के लिए विगत पांच पीढ़ियों से संग्रहित श्री गोपाल पुस्तकालय, मैनपुरा, कलेर, अरवल, बिहार के संग्राहकों (पं.माधव पाठकजी,पं.भवानी पाठकजी,पं.सुमंगल पाठकजी, पं.पुरुषोत्तम पाठक जी, पं.श्रीवल्लभ पाठकजी)(मेरे पिता से वृद्ध प्रपितामहादि पर्यन्त) का आभार व्यक्त करने हेतु मेरे पास शब्दों और भावों का सर्वथा दारिद्र है। उनके प्रति मैं कैसे आभार प्रकट करुँ समझ नहीं आता,अतः सिर्फ आँखें मूंद मौन हो जाने का प्रयास करता हूँ। विषयवस्तुगत और भाषायी त्रुटियों को परिमार्जित करने में आदरणीय भैया श्री नरेशनाथ मिश्र(करहरी),एवं अनुज चि.नरेन्द्र कुमार का भी महत् योगदान रहा।  हां, एक और है जिसे अतिशय स्नेह पूर्वक आभार व्यक्त करना चाहूंगा—मेरी सहचरी पुष्पा पुण्यार्क,जो सदा अगाध पौराणिक साहित्योदधि में डुबकी लगा-लगाकर मेरे उपयोग के मोती छांट-छांटकर मेरे कम्प्यूटर टेबल पर रखती रहती है। मेरा काम तो सिर्फ विषय वस्तु को तराश कर सजा देने भर का होता है। और हां, प्रिय डॉ. आशीष पाण्डेयजी, लोकनाथ प्रकाशन, वाराणसी को स्नेहाषीश सहित धन्यवाद करना चाहूंगा, जिनके सहयोग के बिना इस पुस्तिका को आप बन्धुओं तक पहुँचाना असम्भव होता। जय भास्कर।
निवेदक- कमलेश पुण्यार्क,
ग्राम-मैनपुरा,पो.मैनपुरा-चन्दा,वाया-कलेर,जि.अरवल,बिहार
मो.08986286163, guruji.vastu@gmail.com

वैशाख शुक्ल द्वादशी,विक्रमाब्द २०७४, ई.सन् २०१७. 
क्रमशः...

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