लोकतन्त्र का ब्रह्मास्त्र
लोकतन्त्र
का ब्रह्मास्त्र
लोक यानी प्रजा,जनता- वो आम-व-खास नागरिक द्वारा,बहुमत
के आधार पर काय़म मनोनुकूल शासन-व्यवस्था — लोकतन्त्र वा प्रजातन्त्र कहलाता है।
राजनीति शास्त्र के ज्ञाता लोग और भी बहुत तरह से परिभाषित करते होंगे इसे। उन
विविध परिभाषाओं में ही लोकतन्त्र का पूर्ण स्वरुप लक्षित-दर्शित हो जाता है।
लोकतन्त्र
के सृजन का मूल घटक है— जनता। यानी यही वो बीज है, जिसका एक हिस्सा जड़ बनता है और
दूसरा हिस्सा पुष्पित-पल्लवित होकर शासन-व्यवस्था का छतनार वृक्ष । वो बीज जैसा
होगा वृक्ष वैसा ही होगा न ! आम का होगा तो
फल बहुल, बबूल का होगा तो कांटे बहुल। यहां एक बात और भी स्पष्ट है कि जनता जैसी
होगी उसका नेता भी वैसा ही होगा। जनता प्रबुद्ध होगी तो नेता भी प्रबुद्ध होने को
विवश होगा। हालाकि यह शत-प्रतिशत सही नहीं है। इसके अनेक कारण हो सकते हैं। खैर।
लोकतन्त्र
बहुमत का तन्त्र है। वैसे इसे ‘मुंडे-मुंडे
मतिर्भिन्ना’
का तन्त्र भी कहा जा सकता है। इससे साफ ज़ाहिर है कि आम और बबूल का सवाल ही नहीं
है। बहुमत बबूल चाहता है तो फिर आम का बाग कैसे लगेगा !
स्पष्ट है कि कांटे या फल-फूल का बिलकुल ही सवाल नहीं है। बेचारे फल-फूल
की क्या औकाद की वह बहुमत सिद्ध कांटे का मुकाबला कर सके।
इस
लोकतन्त्र के तरकश में अनेक अस्त्र-शस्त्र हैं, जिनमें ब्रह्मास्त्र भी है। किन्तु
अर्जुन के तरकश वाला नहीं, बल्कि अश्वत्थामा वाला,जो गर्भगत परीक्षित पर ही चला
देगा। और तथाकथित संत-असंत, नेता-अभिनेता सब उसे सह देने वाले ही होंगे। दरअसल सह
देना उनकी भी मजबूरी है,क्यों कि लोकतन्त्र के उस घटक पर ही उनका वज़ूद निर्भर है।
अनसन, धरना, प्रदर्शन— जिसका मुखौटा भले ही शान्ति-दूत वाला हो, किन्तु असली रुप
क्रान्ति-नायक वाला ही होता है, जिससे आये दिन जूझना पड़ता है आम नागरिक से लेकर
शासन,प्रशासन,यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय को भी। और सिर्फ जूझना ही नहीं,
तिरस्कृत-अपमानित भी होना पड़ता है। जल्लीकट्टु इसका लेटेस्ट एडीशन है।
मज़हब,सम्प्रदाय,पंथ,वाद,संघ,संगठन,यूनियन
ये सब इसके उपघटक हैं। इनका वरदहस्त यदि प्राप्त हो , फिर क्या कहना! सुप्रीमकोर्ट
जैसा गगन-विहारी गरुड़ भी जमीन पर लोट
सकता है। अकेले कोई किसी बकरी को गोली मार दे तो शायद उसपर भी दफा 302 के तहत सजा
हो जाए।
वक्ता-अधिवक्ता क़ाबिल मिल जाय तो फांसी के तख्ते पर भी झुला दिया जाय। किन्तु
उक्त वरदहस्त वाले का कोई बाल-वांका भी कैसे कर सकता है?
और ‘धर्म-परम्परा ’
वाला ब्रह्मास्त्र तो सबसे बलिष्ट होता है न, जिसे सम्हालने की ताकत महर्षि व्यास
में भी नहीं। ऐसे में धर्म के प्रतीक बेचारे सांढ़ की क्या विसात! कहते हैं न- कि कलिकाल में धर्म-वृष अभागा एक टांग पर टिका हुआ है, जिसकी
देख-भाल के लिए बहुत से धर्मध्वज लगे हुए हैं।
‘संघे
शक्ति कलियुगे’
का असली उपयोग लोकतन्त्र में ही होता है। वैसे भी सूत्रकार ने ये थोड़े जो कहा है
कि संघ का उद्देश्य क्या हो या होना चाहिए। वस संगठन ही काफी है। भले ही वो
आतंकवादी का हो, किसान का हो,मजदूर का हो,कर्मचारी का हो, साधु का हो,स्टूडेंट का
हो,औरत का हो, मर्द का हो, गोरे का हो, काले का हो, देहाड़ी वालों का हो, या कि फुटपाथ
वालों का। अकेला चना भांड़ नहीं फोड़ता- किन्तु संघवद्ध चना तो पहाड़ भी हिला देगा
न! फुटपाथ से लेकर सड़क तक अतिक्रमण
कर डालो। पर कोई आँख दिखाये तो गरीबी, बेरोजगारी, वो भी न हो तो दलित-महादलित का
पताका लहराने लगो। आंख बन्द कर रेलवे ट्रैक पार करते,इयरफोन ठूंसे,या कि गर्दन
टेढ़ी किये एस.पी.- डी.एम.सी व्यस्तता दिखाते, यदि कट-मर गये, या काट-मार दिए,तो
भी मुआवज़ा दिलवा ही देंगे सहयोगी जन।
उसके लिए बस दो-चार-दस हुड़दंगी चाहिए। भला सामत आयी है,जो ट्रैक-रोड जाम करा कर, आमजन या यात्री-संघ
का भी कोपभाजन बने ? बेहतर है मुआवजा दे-दा कर निश्चिन्त
होना, और कौन कहें की घर से गेंहू बेंच कर देना है मुआवज़ा, और न अपने वेतन से ही।
बातबात
में चक्का जाम होना, लोकतन्त्र का सबसे प्रधान लक्षण है। इसे तो मौलिक अधिकारों
में शामिल कर लिया जाना चाहिए था। पता नहीं अभी तक क्यों नहीं हुआ। सरकारी
सम्पत्ति तो जनता की ही होती है न, फिर उन्हें आग के हवाले करने में हर्ज़ ही क्या
है, किस बात का संकोच!
जन्तर-मन्तर
नामक एक स्थान लगभग सभी शहरों में होना चाहिए,जहां लोकतान्त्रिक-ब्रह्मास्त्र-प्रक्षेपण
हेतु पूरी सुविधा मुहैया की जा सके लोकतान्त्रिक सरकार द्वारा । किसी खास
इमपोर्टेड रॉकेट-लॉन्चर की भी जरुरत महसूस न हो,क्यों कि महान भारत में इसके
प्रोडक्शन की कमी थोड़े जो है।
वो दिन
दूर नहीं जब इस ब्रह्मास्त्र का सतत प्रयोग कर भावी लोकतन्त्र में चोर-पाकेटमार,लुटेरे, सुपारीधारी,लम्पट,रेपिस्ट,हत्यारे,सिरफिरे
सबके सब अपना बहुमत काय़म कर लें, और आपात बैठक बुलाकर, आध्यादेश जारी कर दिया
जाय। अस्तु।
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