घातक मादक द्रव्यःएक अध्ययन

                       घातक मादक द्रव्यःएक अध्ययन
( बहुत पहले प्रो.डी.डी.गुरुजी(समाज अध्ययन संस्थान,पटना)के सौजन्य से विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा प्रस्तावित एक सर्वेक्षण कार्य में भाग लेने का अवसर मिला था। उस क्रम में प्रभावित क्षेत्रों का गहन दौरा किया था। व्यसनी-जीवन को बहुत करीब से देखने-समझने का मौका मिला।  वस्तुतः यह उसी अवसर पर (15-8-1998) तैयार किया गया रिपोर्ट है। जनोपयोगी जानकर,इसे सोशलमीडिया पर प्रकाशित कर रहा हूँ,अपने प्रिय पाठकों के लिए। )
परिचय— स्रष्टा की सर्वोत्कृष्ट कृति—मनुष्य, सभ्यता और विकास के चर्मोत्कर्ष पर पहुँचने के प्रयास में,सुख-शान्ति-आनन्द की खोज में अचानक तिमिराच्छन्न होकर,मुख्य पथ से विचलित हो, घातक मादक द्रव्यों के अन्धकूप में छलांग लगा चुका है आज।
          मादक द्रव्य अपने आप में किंचित विचारणीय है, किन्तु जब वह घातक विशेषण युक्त हो जाये,तब सर्वदा-सर्वथा विचारणीय ही होता है ; और सम्भवतः विषस्य विषमौषधम् अथवा समः समं समयति के मौलिक सिद्धान्त को निरस्त कर निज वर्चश्व स्थापित करने में सफल सिद्ध होता है।
          किञ्चित मादक और विशिष्ट औषधि-गुण-युक्त तम्बाकू और भाँग की सूची जब क्रमशः आगे बढ़ कर गाँजा,अफीम और फिर इन्हीं का परिवर्धित संस्करण—हशीश,स्मैक,हेरोइन,कोकीन, मारिजुआना, एल.एस.डी. आदि का रुप ग्रहण करता है,तब वस्तुतः सिर्फ सेवी या व्यसनी के लिए ही नहीं,बल्कि समग्र मानवता के लिए अति घातक हो जाता है।
          अब से कोई ५-६ दशक पूर्व(जिन दिनों ये लेख लिखा गया था),जिन द्रव्यों की खोज जीवन-रक्षक महौषधि के रुप में की गयी थी,आज वे ही विकराल भक्षक सा मुँह फाड़े सम्पूर्ण मानवता को निगल पड़ने के लिए आतुर-उद्धत है। उक्त द्रव्यों का आजकल औषधि के रुप में कम, दुर्व्यसन के रुप में ही अधिक व्यवहार किया जा रहा है। यहां तक कि शत्रुता साधने का मोहक शस्त्र भी बन चुका है। फलतः विश्व स्वास्थ्य संगठन,मानव कल्याणकारी संगठनों और बुद्धि- जीवियों के लिए परीक्षात्मक चुनौति बन गया है,क्यों कि इन घातक मादक द्रव्यों का मोहक मायाजाल लगभग विश्व के हर कोने में फैल चुका है। श्री योगेश्वर की कर्मभूमि,शान्ति और परमानन्द का अग्रदूत—भारतवर्ष भी इनसे अछूता नहीं रह पाया है। विगत कुछ वर्षों में यह दुर्दान्त दानव पूर्वोत्तर एवं पश्चिमोत्तर सीमाओं से शनैःशनैः प्रवेश करता हुआ, अब मध्य भारत तक,या कहें पूरे भारत में अपना साम्राज्य विस्तार कर चुका है।
          ब्राउन सूगर,स्मैक,हेरोइन आदि एक ही मादक पदार्थ की विभिन्न अवस्थायें हैं। इनके निर्माण का मूल स्रोत बहुचर्चित वानस्पतिक द्रव्य पोस्ता(पाँची-Opium plant)-अफीम का पौधा है। इससे प्राप्त दानों(बीजों)का उपयोग औषधि एवं मसाले के रुप में हमारे यहां लम्बे समय से होता आया है, एवं फलों से प्राप्त निर्यास(गोंद)से पुनः मन्थन क्रिया सम्पन्न करके,अफीम नामक मादक पदार्थ तैयार किया जाता है। पुनः इसके संघनन एवं अन्यान्य रासायनिक प्रक्रियाओं से क्रमशः उत्तरोत्तर घातक मादक द्रव्यों का निर्माण किया जाता है। अफीम का सर्वाधिक क्रियाशील तत्त्व ‘अल्कलाइड मॉर्फीन’ है। हेरोइन इसका ही प्रारुप है। हेरोइन बनाने की प्रक्रिया में प्राप्त उप-उत्पाद—गहरे भूरे रंग का गर्द ही ब्राउनसूगरके नाम से प्रचलित है। ब्राउन- भूरेपन का द्योतक है, और सूगर तीक्ष्ण मधुर स्वाद का। भले ही स्वाद महत्त्वहीन है,महत्ता तो मादकता की है।
          इसी प्रकार भाँग—शास्त्रीय नाम विजया क्षुप जातिय बहु चर्चित वनस्पति है,जिसकी पत्तियों का लेह्य अथवा पेय रुप में व्यवहार दीर्घकाल से होता आ रहा है। हशीश इसी का संघनित रुप है। एल.एस.डी.,कोकीन आदि भी इसी प्रकार के अन्य घातक मादक पदार्थ हैं।
          गाँजा भी ठीक भाँग की तरह का ही वानस्पतिक द्रव्य है,किन्तु इसकी पत्तियों के बजाय, जटा सदृश तीक्ष्ण गन्ध-युक्त फूलों का धूम्रपान तथाकथित साधुओं और शिवप्रेमियों का अद्यतन प्रमाण पत्र बन गया है। खुद डूबने में शिव को भी घसीट लिया लम्पटों ने- बोलचाल की भाषा में शिवबूटी नाम देकर।
          तम्बाकू नामक क्षुप जातिय वनस्पति की पत्तियों को ही खैनी वा तम्बाकू कहा जाता है,जिसका प्रॉसेस्ड रुप पान प्रेमियों का जर्दा है। इसकी कई प्रजातियां हैं,जिनके गुण,कर्म और आकार में भी भिन्नता है। इसका उपयोग सूखी पत्तियों के रुप में चूने के साथ मिलाकर किया जाता है,तथा इसकी ही प्रजातियों का प्रयोग बीड़ी,सिगरेट,जर्दा आदि विभिन्न धूम्रपान सामग्रियों के रुप में भी होता है।
          ध्यातव्य है कि आगे लक्षण,कारण,प्रभाव,परिणाम आदि जो भी दर्शाये जा रहे हैं,वे सब तम्बाकू,भाँग और गाँजा के बाद के ही द्रव्यों के हैं। क्यों कि इन तीनों को सीधे तौर पर घातक मादक द्रव्य नहीं कहा जा सकता। हां,ये उत्तरोत्तर क्रम में मादक अवश्य है,तदनुसार हानिकारक भी। दूसरी बात यह है कि इन तीनों का प्रचलन इतना अधिक है कि पूरी आबादी का एक या दो प्रतिशत ही अछूता हो इनके किसी न किसी रुप से।
          उपर्युक्त वानस्पतिक द्रव्यों से प्राप्त या निर्मित घातक मादक द्रव्यों के अतिरिक्त कतिपय जांगम द्रव्य भी है,जिन्हें वैकल्पिक(या तीव्र)मादक द्रव्य के रुप में व्यवहार किया जाता है। इनमें मुख्य हैं—
1)सर्प—कुछ ऐसे नशा-सेवी भी हैं,जो किसी अन्य मादकता से संतुष्ट नहीं हो पाते,उनके प्रचुर मात्रा के बावजूद पूर्ण तृप्ति नहीं मिल पाता,फलतः विषधर की पिटारी रखना ही एक मात्र विकल्प रह जाता है उनके लिए। आवश्यकता महसूस होने पर सीधे सर्पदंश ले लेते हैं। अपवाद स्वरुप ऐसा भी सुनने में आया है कि कुछ ऐसे भी पहँचे हुए नशेड़ी हैं,जिन्हें दंशित करने के बाद अभागा सांप स्वयं ही मूर्छित हो जाता है कुछ देर के लिए। तब उसे तत्काल दूध पिलाना पड़ता है- प्राण रक्षा हेतु।
2)छिपकिली— सर्प की तरह इससे दंश तो नहीं लिया जा सकता, किन्तु दूसरी विधि है,जिससे तीव्र मादक द्रव्य  प्राप्त किया जा सकता है। वैकल्पिक मादक द्रव्य के रुप में इसका काफी प्रयोग होता है,जो अपेक्षाकृत बिलकुल सस्ता भी है। यह विशिष्ट गुण सफेद की तुलना में काली छिपकिली में काफी अधिक है।
3) निद्राकर औषधियां—सामान्य एवं तीव्र निद्राकर रासायनिक औषधियों का धड़ल्ले से इस्तेमाल नशा-सेवियों द्वारा किया जाता है। चूर्ण,गोली और इन्जेक्शन के रुप में ये द्रव्य आसानी से भ्रष्ट और धन-लोलुप दवा विक्रेताओं से प्राप्त हो जाता है। वे इसके लिए मुंहमांगी कीमतें वसूलते हैं। हालांकि ये औषधियाँ पूर्णतया जांगम द्रव्यों की श्रेणी में नहीं आती । मूलतः ये विभिन्न रासायनिक पदार्थ ही हैं,जिनका निर्माण-स्रोत स्थावर,जांगम व वानस्पतिक द्रव्य हैं। इनका निर्माण इस उद्देश्य से किया भी नहीं गया है। किन्तु इन औषधियों का गुण-धर्म है,जिसका दुरुपयोग नशा-सेवियों द्वारा किया जाता है। सामान्य निद्राकर खुराक से ५-१०-२०-५०गुना अधिक औषधि की मात्रा एक बार में लेने वाले नशेड़ी आजकल बहुतायत से पाये जाते हैं। मात्रा की अधिकता से इसे भी घातक मादक द्रव्य कहने में कोई हर्ज नहीं।
          घातक मादक द्रव्यों के संक्षिप्त परिचय के बाद अब इसके कारणों पर ध्यान दिया जाए।
कारण— आंखिर लोग क्यों शिकार होते हैं घातक मादक द्रव्य सेवन के? – यह विन्दु भी विचारणीय है। इसके कारणों को दो भागों में बांटा जा सकता है— मुख्य और गौण कारण। अब पहले मुख्य कारणों को उपखंडों में देखा-विचारा जाए—
(क) मुख्य कारण—
1)भौतिकता की अन्धी दौड़—भौतिकवादी वहुल युग में हर कोई अधिकाधिक धन चाहता है, जिसका उपयोग ऐशोआराम व नफाशत के लिए कर सके। किन्तु धनोपार्जन हेतु समुचित श्रम, पूँजी, और धैर्य तो सबके बश का है नहीं।  जो है,जितना है उसका भी पूर्ण उपयोग करना नहीं चाहता कोई । और बिना श्रम(त्याग)के ही,या कम से कम श्रम करके,सुख-शान्ति और आनन्द जैसे परमसुख भी पा लेना चाहता है। इसी रुग्ण और दुर्बल मानसिकता का लाभ उठाते हैं—मादक द्रव्यों के उत्पादक,व्यापारी और तस्कर आदि। क्षणिक शान्ति और आनन्द के लोलुप लोग(खास कर युवा वर्ग)सर्वाधिक इनके चंगुल में फंस जाते हैं। और जो एक बार फंस गए,दलदल में,तो उत्तरोत्तर धंसते ही चले जाते हैं। उबरने का अवसर दुर्लभ हो जाता है।
2)ईर्ष्या,द्वेष,शत्रुता— तीक्ष्ण प्रतियोगी भौतिकता ही विकृत होकर ईर्ष्या,द्वेष और शत्रुता को जन्म देती है। मानव का मिथ्याभिमान— अहं स्वयं को सर्वश्रेष्ठ देखना और दिखाना चाहता है। इसके लिए स्वयं को बड़ा बनाना थोड़ा कठिन और टेढ़ा है। आसान है दूसरे को छोटा करने का प्रयास, और इसी दुष्ट मानसिकता का परिणाम है द्वेष और शत्रुता। इसमें प्रबल सहायक सिद्ध होता है— घातक मादक द्रव्य। शान्तिपूर्ण विनाश का अद्भुत नुस्खा है- मादक द्रव्य। कारण एक ही है—चाहे वह दो व्यक्तियों के बीच हो या कि दो राष्ट्रों के बीच।
3)आध्यात्मिकता का अभाव— भौतिकवादी युग में धर्म और अध्यात्म का सर्वथा अभाव सा हो गया है। लोगों को यह भ्रामक विश्वास हो गया है कि सच्चा सुख भौतिक समृद्धि में ही है। जब कि सच्चाई ठीक इसके विपरीत है। अतः अज्ञानवश झूठा सुख और आनन्द ही आकर्षित कर रहा है नशा सेवन हेतु। सच्चे सुख के अभाव में वैकल्पिक सुख की खोज और उस ओर भटकाव स्वाभाविक है।
(ख) गौण कारण—उक्त मुख्य तीन कारणों के ही कारण ,प्रभाव और परिणाम तथा सहयोगी हैं, जिन्हें गौण कारणों की श्रेणी में रखा जा सकता है। यथा—
1) विकेन्द्रित परिवार— भौतिकता के दौड़ में संयुक्त परिवार का सही ढाँचा ही चरमरा गया है। अब यह लगभग, इतिहास और समाजशास्त्र का विषय बन कर रह गया है। इतना ही नहीं एकल परिवार में भी वास्तविक एकता और सौहार्द का अभाव हो गया है। भौतिकता ने समय की गति तेज कर दी है। फलतः समय का सबके पास प्रायः अभाव हो गया है। किसी के पास अतिरिक्त समय नहीं है,किसी अन्य को देने के लिए। पति-पत्नी दोनों ही प्रायः अर्थव्यवस्था के जुए में जुते हुए हैं। प्रेम और सेवा भी पेशेवर से प्राप्त करने की नौबत आ गयी है। यानी इसे भी द्राव्यिक मूल्यों से खरीदना पड़ता है,क्यों कि परिवार(अपनों)के पास अभाव है समय का। पत्नी के पास समय कहां है,क्यों कि वह खुद ही दिन भर ऑफिस में कलम चला कर थकी आयी है। बच्चे की मालिश से लेकर दूध पिलाने तक का काम आयाको करना है। और फिर नौकर,आया और नर्स की सुश्रुषा कितनी निष्कपट,कितनी निःस्वार्थ हो सकती है—यह कोई त्रिकोणमिति तो है नहीं,जो समझने में मगजपच्ची करनी पड़े ! सच्चे,निःछल प्रेम और सौहार्द के अभाव में अशान्ति और तनाव का जन्म लेना स्वाभाविक है। नशा सेवन हेतु उक्त अभाव, उत्प्रेरक का काम करता है। वाल्या और युवावस्था तो अज्ञान में गुजर जाता है- आया और कोच के संरक्षण में ,किन्तु इसके बाद ज्यूं-ज्यूं अपनी समझ-बूझ आती है,बाहर झांकने पर पूरी तौर पर अपना कहने वाला (लगने वाला)कोई नजर नहीं आता। ऐसी अवस्था में नवयुवकों का गुमराह होना स्वाभाविक है,जब कि गुमराही के प्रचुर साजो-सामान बाहर में मौजूद हैं।
2)जर्जर सामाजिक व्यवस्था—आज के समय में सामाजिक व्यवस्था अति जर्जर हो गयी है। व्यक्ति और समाज का आपसी तालमेल गड़बड़ा गया है। कर्तव्य,अधिकार और दायित्व का खास मोल नहीं रहा। चारों ओर त्रस्त दुःखी मानव बैचैन भटक रहा है। कहीं भी जरा सुकून नहीं है—न घर में,न दफ्तर में,न कारखाने में यहां तक कि मन्दिर,मस्जिद,चर्च में भी नहीं। हां,झूठा ही सही, क्षणिक ही सही,हानिकारक ही सही,है तो एक जगह कम से कम—मयखाना ही सही। फिर क्यों न दौड़ें उसी ओर ! अतः झूठी शान्ति के प्रति आकर्षण कोई शौक ही नहीं लाचारी भी बन जाती है, कुछ के लिए।
3)दुर्बल-भ्रष्ट शासन-प्रशासन— यह एक सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कारण है। नशा सेवन के बढ़ते दौर का, प्रचार-प्रसार का लगभग पचास प्रतिशत जिम्मेवार तो ये ही हैं। कहीं इनकी दुर्बलता वश तो कहीं भ्रष्टता वश तस्करों,उत्पादकों और सेवियों की संख्या दिन दूनी रात चौगुनी रफ्तार से बढ़ रही है। प्रशासन सिर्फ आन्तरिक ही नहीं,सीमावर्ती भी कम जिम्मेवार नहीं है। शासक को चाहिए चन्दा,प्रशासक को चाहिए कमीशन,फिर उत्पादक और तस्कर क्यों माने! हां,छोटे-मोटे नशेड़ियों पर प्रशासन का शौर्य अवश्य लक्षित होता है। प्रशासन की स्थिति का एक नमूना विचारणीय है—एक बार एक सर्वेक्षक नशाग्रस्त क्षेत्र के दौरे पर गया। वरिष्ठ आरक्षी पदाधिकारी से पूछताछ करने पर,स्पष्ट शब्दों में उन्होंने कहा- ‘कहां से रिपोर्ट मिली है आपको...एक दो पुड़िया वाले भले चले आते हैं कभी कभार...दरअसल अखवार वाले तो अपने प्रसार-प्रचार के लिए तिल का ताड़ छापते रहते हैं...।’ सच पूछें तो सर्वेक्षक सिर्फ आरक्षी अधीक्षक के भरोसे रिपोर्ट लेने तो गया नहीं था, अतः उनके कथन की सत्यता को,उनकी नाक के नीचे ही परखा,और तब पता चला कि फिलहाल सौ से भी अधिक नारकोटिक दफा दिग्गज सरकारी मेहमानखाने में वर्षों से आराम फरमा रहे हैं...कड़िअल जज आ गया है जिले में,नारकोटिक के नाम पर ही बेल रिजेक्ट कर देता है...।
दरअसल अखवार एक अच्छा साधन है सस्ते विज्ञापन का,किन्तु नारकोटिक की दूकान का खुला विज्ञापन छप नहीं सकता,परन्तु प्रशासन वरदहस्त सिद्ध होता है इसके लिए। प्रशासन की आवभगत के बाद खबरों के लहज़े में विज्ञापन हो जाता है बड़ी आसानी से। आये दिन वेश्यालय और मदिरालय का सस्ता विज्ञापन इसी तरह हुआ करता है।
4)नैतिक ह्रास—व्यक्ति,समाज और राष्ट्र ही नहीं समग्र मानवता आज रुग्ण है,जर्जर है। नैतिकता का लगभग अन्त-सा हो गया है। राम राज्य में बाघ और बकरी एक घाट पर पानी पीते थे- ऐसा कहा जाता है। आज भी पीते हैं—शहर का बड़ा गुण्डा और वरिष्ठ पदाधिकारी,गणमान्य नेता एक टेबल पर धीमी रौशनी में,ज़ाम टकराते हैं। सतयुग शीर्षासन में खड़ा है। कौन शरीफ है,कौन बदमाश,कौन साधु है,कौन लम्पट,असाधु...खादी,खाकी और गेरुआ से पहचाना नहीं जा सकता । घोर अनैतिकता के दौर में नशा का बढ़ता प्रचार जरा भी आश्चर्य का विषय नहीं रह गया है। अनैतिकता बढ़ेगी, तो शान्ति खोयेगी ही,तनाव बढ़ेगा ही। तनाव से मुक्ति सच्चे रुप में मिले या न मिले,तात्कालिक आकर्षण तो होगा ही वैकल्पिक शान्ति की ओर,तनाव मुक्ति की ओर।
5)कामपिपासा—बढ़ती  कामुकता का मुख्य कारण है अपूरित और दूषित प्रचार माध्यम। मादक द्रव्यों के व्यापारियों द्वारा किया गया झूठा प्रचार- इससे कामशक्ति बढ़ती है- अपूरित कामेच्छा को मोहक लगता है,फलतः लुफ़्त लेने के लिए एक दो चश्के ले बैठता है युवक,जिसका तात्कालिक चमत्कार भविष्य में अन्धगर्त में औंधे मुंह गिरा देता है,जहाँ से आसानी से मुक्त होना कठिन हो जाता है।
लक्षण— नशा सेवन करने वाले पर घातक मादक द्रव्यों का प्रभाव सार्वदैहिक होता है। दोस्त या
दुश्मन के मोहक बहकावे में आकर,जो कोई भी इसे सेवन करता है,तत्काल ही इसके गुणों से अभिभूत हो, ब्रह्मानन्द सहोदर के निकटस्थ होने की भावना में डूब जाता है। कुछ घंटों के लिए तो शाहंशाह ही नहीं,स्वयं को त्रिलोकीनाथ समझ बैठता है। और फिर प्रारम्भ हो जाती है- दौड़, शान्ति और आनन्द की मृगमरीचिका के पीछे। व्यसनी बनाने हेतु दो से तीन खुराक ही पर्याप्त है। घातक मादक पदार्थों के सेवन कर्ता में तरह-तरह के लक्षण बहुत तेजी से प्रकट होने लगते हैं, जिसके आधार पर व्यसनी की तीन अवस्थायें होती है,जिनमें निम्नांकित लक्षण कमोवेश पाये जाते हैं। यथा—
क) प्रथमावस्था— प्रथम प्रभाव का लक्षण तो अनुभूति के स्तर का है,जिसकी  वास्तविक अभिव्यक्ति शब्दों में सम्भव नहीं। फिर भी , सेवी की बातों से कुछ ज़ायका लिया जा सकता है। द्रव्य सेवन के साथ ही अद्भुत भार-हीनता,दबाव-शून्यता की स्थिति बनने लगती है। बौद्धिक चिन्तन पर धुन्ध सा छाने लगता है। फलतः सोचने-विचारने की शक्ति समाप्त होने लगती है। ऐसी स्थिति में दुःख या सुख का प्रश्न ही कहाँ रह सकता है ! फलतः शान्ति और आनन्द की अवस्था कह कर व्यक्त किया जाता है,जबकि असली शान्ति और आनन्द से दूर-दूर का भी सम्बन्ध नहीं है। मादकता के इस मोहक छलावे की समाप्ति के साथ ही बौद्धिक चेतना पूर्वावस्था पर आने लगती है,और पुनः उसी मोहक धुन्ध की चाह बनने लगती है,और फिर प्रारम्भ हो जाती है—मिथ्या मोह की आवृति। तब कई वाह्य लक्षण प्रकट होने लगते हैं। यथा—1.भूख की कमी(मन्दाग्नि,अरुचि)
         2.कामेच्छा प्रबल होना,किन्तु कामशक्ति का तेजी से ह्रास
         3.सिकुड़ी पुतलियाँ,अलसाई आँखें,अन्धेरे(कम रौशनी) में देखने में परेशानी
         4.शरीर का तापमान और श्वास-प्रश्वास गति का स्वाभाविक ह्रास
         5.मिचली,उलटी,बदहजमी
       6.स्वास्थ्य में तेजी से गिरावट—रस,रक्त,मांस,मेद्य,अस्थि,मज्जा,और शुक्रादि सप्त धातुओं का क्रमिक क्षय
          7.शरीर से विशेष तरह की गन्ध
ख) द्वितीयावस्था—प्रथमावस्था की समाप्ति तक उक्त सभी लक्षण प्रायः हर नशासेवी में कम या अधिक रुप से स्पष्ट होने लगते हैं,एवं आगे और भी घातक लक्षण सामने आते हैं। जैसे—
1) चुँकि सप्तधातु गहरे रुप में प्रभावित हो जाती हैं,फलतः कायगत सभी संस्थान तेजी से दुर्बल पड़ने लगते हैं। सर्वाधिक प्रभावित स्नायुसंस्थान(nervous system) होता है। पाचन, श्वसन,रक्तपरिसरण,उत्सर्जन(मल,मूत्र,पसीना आदि),प्रजनन आदि सभी संस्थान घुटने टेकने लगते हैं धीरे-धीरे।
2)अन्तःस्रावी ग्रन्थियां(Endocrine glands) विकृत और शिथिल होने लगती हैं।
ग)तृतीयावस्था—द्वितीयावस्था की चरम स्थिति ही तृतीयावस्था है। इस अवस्था में रोगी ओजहीन, निश्चल,मुर्दे-सा हो जाता है। उसका जीवन एक जीवित शव की तरह हो जाता है, किन्तु इस अवस्था में भी हर सम्भव प्रयास जारी रहता है। धन,धर्म,ईमान,मर्यादा,नाते-रिस्ते सबको ताक पर रखकर,समय पर द्रव्य की खुराक उसे चाहिए ही चाहिए। सारी विसंगतियों के बावजूद वह नशा सेवन छोड़ नहीं सकता,क्यों कि नशा ही अब आधार हो गया है,उसके जीवन का- अन्न,जल,वायु से भी महत्त्वपूर्ण।
    ऊपर्युक्त अवस्थात्मक लक्षणों के अतिरिक्त कुछ और भी बाह्य लक्षण हैं,जिन्हें नज़रअन्दाज नहीं किया जा सकता—
Ø नशासेवी प्रायः सही ढंग से चल-फिर नहीं पाता। नशे की हालत में न होने पर भी, चाल में लड़खड़ाहट पायी जाती है।
Ø शरीर से निकलने वाली विशेष गन्ध अब स्पष्ट दुर्गन्ध में बदल जाती है। इसका मुख्य कारण होता है— स्वाभाविक रुप से गन्दा रहना,समय पर स्नान न करना,तथा नशा के आन्तरिक प्रभाव वश उत्सर्जन-संस्थान एवं अन्तःस्रावी ग्रन्थियों की गड़बड़ी ।
Ø आँखों में लाली या सूजन,या दोनों,एवं अत्यधिक चंचल या फिर बिलकुल शिथिल सी आँखें।
Ø बात-बात में गुस्सा,चिड़चिड़ाहट,तर्क-वितर्क की प्रवृत्ति।
Ø जैसे पागल स्वयं को पागल नहीं मानता,उसी प्रकार नशासेवी अपनी मंडली के अतिरिक्त बाहरी लोगों से कतई स्वीकार नहीं करता कि वह नशासेवी है। इसका कारण सिर्फ भय नहीं,बल्कि उसकी आदतों में आये बदलाव के कारण होता है।
Ø पारिवारिक-सामाजिक सम्बन्धों से कटा-कटा सा रहना। नजर मिला कर बात तक न कर पाना।
Ø बांहों,कपड़ों,अँगुलियों पर जले के निशान अथवा शरीर के विभिन्न भागों में अन्तः त्वचागत इन्जेक्शन के निशान काफी संख्या में काली फुन्सियों की तरह पायी जाती हैं।
Ø नशासेवी के आसपास(विस्तर,कमरे में)भूरे या सफेद रंग का पाउडर,सिगरेट के टुकड़े, सिगरेट के डब्बे का रेपर,छोटी सीरिंज— हाफ एम.एल. वाली, हाफ-निडिल, अल्युमीनियम फॉयल, आदि अवश्य पाये जाते हैं।(ऊपर कहे गये दो लक्षण हेरोइनचियों में ही मिलते हैं,अन्य प्रकार के मादक द्रव्य— गोली आदि के रुप में लेने वाले में नहीं)
परिणाम—नशासेवी का अन्तिम परिमाम तो मृत्यु ही है,जो बहुत ही कष्टकारक होता है,औरों की अपेक्षा। यहां तक कि अन्य लोग भी उसकी अन्तिम अवस्था के दारुण रुप पर रोमांचित हो उठते हैं। जिसके शरीर की सभी ग्रन्थियां,सभी संस्थान एक साथ विकृत हो गये हों,उसके कष्ट की कल्पना सहज ही रोमांचकारी है। विष्टे के कीड़े से भी बदतर हालत होती है नशासेवी की। विष्टे का कीड़ा तो उसी में जनमता-मरता है,आनन्दमग्न होकर रहता है,पर मनुष्य(नशासेवी)? वह तो जानबूझ कर, बहकावे या धोखे में आकर इस स्थिति तक पहुँचने को विवश होता है।
प्रभाव—घातक मादक द्रव्यों के सेवन का प्रभाव व्यापक है। यथा—
1)वैयक्तिक प्रभाव—नशासेवी का वैयक्तिक वा निजी शारीरीक प्रभाव और उसका परिणाम ऊपर के लक्षणों से पूर्णतया स्पष्ट है—सुन्दर-सलोना मानव शरीर कंकाल और फिर राख-मिट्टी का ढेर बन जाता है।
  2)आर्थिक प्रभाव—शरीर के साथ-साथ दूसरा प्रभावित क्षेत्र अर्थव्यवस्था का है। प्रारम्भ में तो मित्रमंडली (धोखेबाज शत्रु-मित्र) दो-चार चस्के मुफ्त में दिला देती है,जो व्यसनी बनाने के लिए पर्याप्त है। किन्तु वही मित्र फिर मंहगी कीमत वसूलने लगता है। एक खुराक के लिए स्थिति के अनुसार 20-50-100 या इससे भी अधिक रुपये तक व्यय करने पड़ते हैं। ऐसी स्थिति में कोई कितना भी पूर्व सम्पन्न क्यों न हो,माली हालत खास्ता हो जाना लाज़िमी है। शारीरिक दुर्बलता वश कमाई और फिर नगदी जमा पूँजी जब चुकने लगती है,तब जेवर-जायदाद में हाथ लगता है। ऋण-बोझ बढ़ता है,और अन्त में चोरी-डकैती,हत्या का रास्ता अपनाने को मजबूर हो जाता है। महाकवि की उक्ति ...द्यूतेन चौर्येन वा...नष्टस्य कान्या गतिः...चरितार्थ हो जाती है, और इस प्रकार मीठे जहर देने वाले का स्वार्थ सिद्ध हो जाता है।
  3)पारिवारिक प्रभाव—जिसकी शारीरिक और आर्थिक स्थिति दयनीय हो उसका पारिवारिक जीवन कैसा होगा—यह स्वयं में ही स्पष्ट उत्तर है। प्रश्न नहीं। प्रश्न रह ही कहाँ जाता है- कैसा का? कौन हत् भाग्या पत्नी होगी जो प्रबल कामेच्छु,किन्तु शीघ्रपाती पति को सहृदयता से याद करेगी, जिसने उसके मांग के सिन्दूर के अतिरिक्त सारे श्रृंगार झटके से उतरवा लिया हो ! कौन पिता होगा जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी की कमाई राख और धुऐं में बदलता देखकर भी सहृदय बना रहेगा रही बात कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति –की ,तो यह भी बहुत पुरानी बात हो गयी। हाँ श्वासों की डोर पर ध्यान टिकाये ,घर परिवार के साथ ज़िगर के टुकड़े की जर्जर स्थिति पर और अपने खोटे भाग्य पर चार आँसू जरुर बहायेगी । प्रारम्भ में माँ-बाप,भाई-बन्धु थोड़ा-बहुत प्रयास जरुर करते हैं व्यसन से छुटकारा दिलाने का,लेकिन वह व्यसन ही क्या जो सहज ही छूट जाय ! शरीर छूटने के पूर्व तक न छूटना ही तो व्यसन की असली पहचान है !
4) सामाजिक प्रभाव—जन्मदात्री माँ,पालनकर्ता पिता,जन्म-जन्मान्तर की प्रतिज्ञाओं की डोर में बाँध कर लायी गयी ( या आयी) पत्नी ही जब साथ नहीं दे सकती ,फिर उसे स्वार्थ साधक मित्र, कुटुम्ब और समाज क्या साथ देगा ! समाज,और समाज का कर्तव्य सिर्फ सिद्धान्त का विषय बन कर रह जाता है। उठना-बैठना-बोलना तो दूर,निगाह भर कर देखना भी कोई भला मानस नहीं चाहता । नाम लेने में भी मानों पाप समझता है नशेड़ी का। इस प्रकार व्यसनी की सामाजिक मौत जीवन रहते ही हो चुकी रहती है। इसका ज्वलन्त उदाहरण प्रभावित क्षेत्रों में भ्रमण करने पर मिलता है। शादी–विवाह के विषय में  तलाश करने वक्त परम्परागत प्रश्न—कुल-गोत्र,शील-शिक्षा, सम्पदा आदि उन क्षेत्रों में बाद का सवाल होता है। पहले यही पता किया जाता है कि लड़का ड्रग-एडिक्ट तो नहीं है? ड्रगिस्ट- शब्द के एक नये अर्थ का चलन हो गया है समाज में। और फिर घर नहीं,गांव नहीं,इलाके के इलाके पटे पड़े हैं बुढ़ऊ वरों से, क्यों कि कोई वरान्वेषी जाता तक नहीं वैसे इलाके में- अनजाने में कहीं धोखा न हो जाय ऐसा सोच कर। परिणाम ये होता है कि जो मुक्त हैं इस दुर्व्यसन से उन्हें भी खामियाजा भुगतना पड़ता है। समाज में रुग्ण और कुआंरों की संख्या बढ़ती जा रही है दिनों-दिन। साथ ही इस सूची में किंचित कुआंरियां भी हैं। मादक द्रव्य सेवन से परोक्ष रुप से नपुंसकता  भले आवे,प्रत्यक्षतः तो कामोत्तेजना पैदा होती ही है,फलतः अवैध सम्बन्ध और बलात्कार की घटना आम होने लगती है। इस प्रकार समाज में अनैतिकता पनपती है,भ्रष्टाचार बढ़ता है। नशासेवी आज सिर्फ अपने घर-परिवार के लिए ही नहीं, प्रत्युत समग्र मानवता के लिए अभिशाप बन चुके हैं। विकसित परमाणु और इलेक्ट्रोनिक युग में ,परमाणु वम से जितना खतरा नहीं है,उससे कहीं अधिक खतरा ऐसे नशेड़ियों से है। इसके उत्पादक से है। विक्रेता और तस्कर से है।
प्रभावित वर्ग—इस महत्त्वपूर्ण विन्दु पर विचार करने से पूर्व वर्ग का ही कई कोण से विभाजन करना होगा। यथा—उम्र ,लिंग,शिक्षा,अर्थ,बैद्धिकता आदि के अनुसार।
1)   उम्र के अनुसार—मादक द्रव्य सेवियों में 75-80%युवावर्ग के हैं,जो 15 से 25 वर्ष की उम्र में मादक द्रव्यों के गिरफ्त में आते हैं। 20%लोग ऐसे हैं,जो 25 से 35 वर्ष की उम्र में मादक द्रव्य सेवन की शुरुआत करते हैं। 15% ऐसे लोग भी हैं,जो 40 से 50 या ऊपर की उम्र में पहला लुफ़्त लेते हैं। 1-2 प्रतिशत किशोर भी हैं,जो 10 से 15 के बीच किसी तरह चक्कर में आ जाते हैं।
2)   लिंग के अनुसार— विदेशों में तो नशा सेवन के मामले में लिंग की कोई मर्यादा ही नहीं रह गयी है,किन्तु भारत में 98 प्रतिशत नशासेवी पुरुष वर्ग के हैं। निम्न जाति,पिछड़ी जातियों में स्त्रियों की संख्या भी करीब 20-25 प्रतिशत है। हालाकि ये अनुपात तेजी से बदल रहा है, खासकर महानगरों में। स्वयं को सभ्य कहने वाले परिवारों में नशा-सेवन काफी होता है। नशा का रुप(स्तर)भी पिछड़ी और निम्न जातियों से भिन्न ही होता है।
3)   शिक्षा के अनुसार—मादक द्रव्य सेवियों में शिक्षितों,यहां तक कि स्नातक , स्नातकोत्तर स्तर के शिक्षार्थी वा शिक्षित बेरोजगारों का प्रतिशत 75 से 80 है। गौर तलब है कि प्रतिशत का ये अनुपात नशा-सेवियों का है,न कि कुल शिक्षितों का। 20-25 प्रतिशत अल्प शिक्षित भी मिल जायेंगे,तो इसी अनुपात में अशिक्षित भी।
4)   अर्थ के अनुसार—मादक द्रव्य सेवन करने वाले 75 से 80 % लोग उच्च वर्ग के हैं। शेष अनुपात में करीब आधे-आधे यानी 10-10 % मध्य एवं निम्न वर्ग के कहे जा सकते हैं।
5)   बौद्धिकता के अनुसार—उच्च स्तर के नशा-सेवियों में 75%लोग ईन्जीनियर, डॉक्टर,बड़े व्यवसायी,राजकीय उच्चाधिकारी आदि परिवार के हैं। खासकर ऐसे परिवार के लोग अधिक प्रभावित हैं,जहाँ रहन-सहन अत्याधुनिक है,और दिनचर्या भी अति व्यस्त है। विलासिता पूर्ण जीवन है,और आध्यात्मिकता से दूर का भी कोई सम्बन्ध नहीं है। दूसरी ओर बौद्धिक चेतना के अभाव में शिक्षित या अशिक्षित परिवार में भी नशा का काफी चलन है,जहाँ बाप-बेटे,भाई-भाई एक ही चिल्लम से कश ले रहे हैं। हालाकि यह स्थिति अत्याधुनिक जीवन शैली वाले उच्च वर्ग में भी बहुतायत से देखी जा सकती है। हां,धार्मिक और आध्यात्मिक वातावरण वाले परिवार में नशा का सर्वथा अभाव है। किंचित है भी तो बहुत मर्यादित ढंग से।
           
ध्यातव्य है कि ऊपर वर्णित प्रभावित वर्ग की जो स्थिति दर्शायी गयी है, इसमें गाँजा और भाँग को ध्यान में नहीं रखा गया है,अन्यथा सेवियों की संख्या और भी अधिक होगी। क्यों कि आजकल इनकी संख्या काफी बढ़ गयी है। स्वयं के साथ साथ शिव की छवि धूमिल करने वाले,निम्नस्तरीय विचार वाले, तथाकथित शिव-भक्त इसे शिव का प्रिय प्रसाद कह कर,स्थान और परिवेश की मर्यादा का विचार छोड़कर,बेखटके धुएं का गुब्बार छोड़ते रहते हैं। न पीने वाले सात्विकता का लबादा ओढ़े रहें,किन्तु महापातकियों द्वारा छोड़े गये गुब्बार को भीतर लेने को मजबूर है उनका भी फेफड़ा।  यों तो ऐसे पातकी समाज-घाती सर्वत्र देखे जाते हैं,किन्तु भारत में इनका गढ़ है- धार्मिक स्थल,खासकर शिव-मन्दिर,काली-मन्दिर या हनुमान-मन्दिर। सच पूछा जाय तो इन मन्दिरों की स्थापना ही ऐसे ही उद्देश्य से की गयी होती है,या फिर पुराने किसी लावारिस मन्दिर पर ये नशेड़ी अपना कब्जा जमा लेते हैं। धर्म और धर्म-धुरन्धरों का अधःपतन देख कर श्रद्धेय गुप्त जी की पंक्तियां भारत की जन्मपत्री का तात्कालिक फलादेश जैसा लगता है—दमकी चिलम पर लौ लगाना मुख्य इनका काम है...पीता न गाँजे की कली उस मर्द से औरत भली....।

प्रभावित क्षेत्र—घातक मादक द्रव्य सेवियों का प्रभाव-क्षेत्र बहुत व्यापक है।सेन्टमेरीहॉस्पीटल,लन्दन से निकलकर,अमेरिका,कोलम्बिया, पनामा, पेरु, वोलीविया जैसे हर बड़े-छोटे देशों में मानवता-विनाशक इस दानव का महाताण्डव नृत्य चल रहा है। ड्रग-माफिया की कुटिल दृष्टि से  शायद ही कोई राष्ट्र अछूता हो। मठ,मन्दिर,और गिरिजाघर ही नहीं, ऑक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज, हार्वर्ड, उसमानियाँ,जे.एन.यू.,और बी.एच.यू. जैसे सरस्वती मन्दिर भी नशेड़ियों के ताण्डव-मंच बने हुए हैं। फिर पी.यू.,एम.यू.,आर.यू.,डी.यू को कौन कहे। तात्पर्य यह कि विश्व का लगभग कोना-कोना व्याप्त है घातक नशाबाजों से।

द्रव्य की उपलब्धि—अर्थ लोलुप,मानवता-द्रोही,ड्रग-माफिया का गिरोह सर्वत्र सक्रिय है। भ्रष्ट प्रशासन और कस्टम काफी हद तक उनका मित्र ही है,आँखिर चाँदी की जूती किसे नहीं भाती। जिसे न भाये,वो तो साक्षात् सन्त है। नौकरी क्यों करने जायेगा ! नायकों और पालकों की क्षत्र-छाया में यह व्यवसाय फलफूल रहा है। उधर मानवता-रक्षक मादक द्रव्य उन्मूलन के लच्छेदार भाषण और प्रयास भी समान्तर रुप से चलते ही रहते हैं,आम जनता के सन्तोष के लिए,और खुद की कमाई के लिए भी। आंखिर विविध योजनाओं के माध्यम से भी तो कमाई होती ही है--अपनी भी, अपने भाई-भतीजों की भी। रोजमर्रा की दुकानें- खासकर पान,खैनी की दुकानें,दवा की दुकानें, होटल-रेस्तोराँ आदि मुख्य प्राप्ति-स्थल हैं,जहाँ सांकेतिक शब्दावली में धड़ल्ले से मादक द्रव्यों का व्यापार चलता है। यहां गौरतलब एक बात और है कि प्रायः मूल (शुद्ध) द्रव्य सामान्य उपभोक्ताओं तक पहुँचता ही नहीं है। उसके पूर्व ही कई स्तर पर मिलावट- अधिक मुनाफा,विपणन-सुविधा,और परिवहन की सावधानी आदि के तौर पर कर दी जाती है।

कानूनी स्थिति—घातक मादक द्रव्यों की उत्पादकता और उपयोग पर अंकुश रखने के लिए अन्तरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर कई कठोर कानून बनाये गये हैं। सर्वप्रथम एक सूची बनाई गयी है,जिसमें उपर वर्णित सभी घातक मादक द्रव्यों का नाम है। तदनुसार स्थितिनुसार सजा और जुर्माना आदि का प्रावधान है। एन.ड़ी.एस.1885 के अन्तर्गत निम्न व्यवस्था है—
             1.व्यक्तिगत उपयोग के लिए अल्प मात्रा में नशीले पदार्थ रखने पर छःमाह से एक वर्ष तक की सजा या जुर्माना 10,000रु. या दोनों।
             2.कोई व्यापारी या उत्पादक उक्त वर्जित नशीले पदार्थों की उपज,उत्पादन, जमाखोरी, विपणन, आयात-निर्यात, या उसके लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रुप से आर्थिक सहयोग या साजिश करता है तो—
             (क)पहली बार पकड़े जाने पर 10 वर्ष की न्यूनतम सजा वा 1 लाख रु. जुर्माना, तथा अधिकतम 20 वर्षों की सजा व 2 लाख रु.जुर्माना।
               (ख) दुबारा पकड़े जाने पर 15 वर्ष की न्यूनतम सजा वा 1 लाख,50 हजार रु. जुर्माना वा अधिकतम 30 वर्ष की सजा व 3 लाख रुपये जुर्माना।
               (ग)दो से अधिक बार पकड़े जाने पर सारी सम्पत्ति की कुर्की-जप्ती के साथ-साथ उक्त दण्ड का प्रावधान है।
                         कानून की इस कठोर व्यवस्था के बावजूद उत्पादन और विपणन जारी है। पीना और पिलाना भी जारी है,क्यों कि अन्धा कानून सोया पड़ा है,कानून की किताबों में। कभी कभार जगता भी है तो कानूनचियों की  फूहड़ दलील से शर्माकर, लजा कर,कभी डर-सहमकर भी,कुछ कर नहीं पाता। परिणामतः कानूनविदों का व्यापार भी जारी है,और न्यायमूर्ति – वे तो  बेचारे जीव है पृथ्वी पर,जिनके हाँथ प्रायः बंधे रहते हैं,वैसे ही जैसे न्याय की देवी की आँखें। पुलिस,प्रशासन और अधिवक्ता की कृपादेश पर न्याय की कठपुतली नाचती है। न्यायाधीश की हैशियत ही क्या है—वे चाह कर भी जेल की सलाखों में किसी अपराधी को नहीं रख सकते, और न किसी निरपराध को भीतर जाने से रोक ही सकते हैं। यह सब तो कानून का करिश्मा है। वचाव पक्ष की चूक से यदि कोई दुर्भाग्यवश पहुँच भी गया लालहाते में तो भी कोई परेशानी नहीं,क्यों कि व्यापारी का व्यापार और व्यसनी का व्यसन पूरी व्यवस्था से बेखटके जारी रहेगा कारा-परिसर में भी। द्रव्योपलब्धि के अद्भुत-अद्भुत तिलस्मी नुस्खे वहां इस्तेमाल होते रहते हैं। सच तो ये है कि इतना सुरक्षित क्षेत्र बाहर है भी नहीं जितना लालघर

सुधार के प्रयास और परिणाम—लगभग विश्व-व्याप्त इस नयी महामारी के प्रति गहरी चिन्ता व्यक्त की जा रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन,वरिष्ठ चिकित्सक,मनोचिकित्सक,कल्याण मन्त्रालय, स्वयंसेवी संस्थायें आदि काफी जागरुक हैं इस समस्या को सुलझाने में। नित नये अभियान – परियोजनायें चलायी जा रही हैं, ताकि घातक मादक द्रव्यों के प्रति लोगों को सावधान और सचेष्ट किया जा सके,तथा नशाग्रस्त लोगों में शारीरिक व मानसिक रुप से सुधार लाकर उनके पुनर्वास की व्यवस्था की जा रही है। एक ओर उत्पादन और उपलब्धि पर नियंत्रण रखने के लिए कठोर कानून बनाये गये हैं,तस्करी के रोकथाम के लिए सीमा-चौकसी और कस्टम को चुस्त बनाया गया है,तो दूसरी ओर कल्याण मन्त्रालय एवं अन्य स्वयं सेवी संस्थाओं द्वारा नशा-विमुक्ति एवं पुनर्वास केन्द्र काफी संख्या में प्रायः हर प्रभावित इलाकों में चलाये जा रहे हैं। उन केन्द्रों में अनुभवी डॉक्टर,साइकोलॉजिस्ट,साइक्रियेटिस्ट,कौन्सलर,सोशल वर्कर आदि कई व्यक्तियों की टोली होती है,जो एक ओर तो क्षेत्रों में घूम-घूमकर परिवारों से सम्पर्क कर,नसासेवियों की जानकारी करती है, एवं विभिन्न प्रणालियों द्वारा उपचार-सेवा उपलब्ध कराती है। प्रायः नशा-सेवियों को केन्द्र में आवश्यकतानुसार कुछ दिन या महीने कड़ी सुरक्षा व्यवस्था के अन्तर्गत रखकर, उपचार किया जाता है,साथ ही समुचित व्यावसायिक प्रशिक्षण देकर स्वावलम्बी बनाने का भी प्रयास किया जाता है। नशा-सेवन को एक रोग मानकर रोगी के गिरे आत्मबल को जागृत करने का प्रयास किया जाता है। आत्म सम्मान प्राप्त करने की दिशा में उचित परामर्श दिये जाते हैं। ध्यातव्य है कि ये सारी सुविधायें,सारी सेवायें निःशुल्क प्रदान की जाती हैं। कुछ ही दिनों के प्रयास से रोगी की दशा में काफी सुधार आने लगता है। लगभग पूर्ण सुधार के पश्चात् ही घर जाने की अनुमति दी जाती है। नशा-विमुक्ति-उन्मूलन  और पुनर्वास कार्यक्रम के अन्तर्गत दृश्य-प्रचार एवं विज्ञापन निदेशालय की भी काफी अच्छी भूमिका रही है। जनसम्पर्क के विभिन्न माध्यमों का प्रचुर मात्रा में उपयोग किया जाता रहा है। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन का भी सक्रिय योगदान रहा है।
                             किन्तु इतने प्रयास के बावजूद सन्तोषजनक परिणाम नजर नहीं आ रहा है,जिसके कई कारण हैं। यथा—
             1)घातक मादक द्रव्यों के सेवन का घातक प्रभाव रोगी की नस-नस में व्याप्त हो जाता है। प्रारम्भ में तो किंचित तनाव-मुक्ति और क्षणिक आनन्द का लुफ्त अवश्य मिलता है,परन्तु बाद में ये सारा मोह और आकर्षण समाप्त हो जाता है,और द्रव्य की विपरीत प्रतिक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। परिणामतः नशा-सेवी नशा छोड़ने का प्रयास भी करता है यदि,तो छोड़ नहीं पाता,क्यों कि उसे विच्छु-दंश की भांति भयंकर पीड़ा होने लगती है,श्वांस लेने में दिक्कत होने लगती है,पेट दर्द,उलटी,गले का सूखना, बैचैनी,ऐंठन आदि कई तरह के कष्ट होने लगते हैं,जिससे घबराकर व्यसनी पुनः नशा करने लगता है। रोगी न मर पाता है, और चैन से जी पाता है।
             2)नशा के आन्तरिक प्रभाव से सेवी का आत्मबल और संकल्प शक्ति अति दुर्बल पड़ जाती है,जो कि किसी कठिन कार्य के लिए अत्यावश्यक माना जाता है।
             3)नशा विमुक्ति केन्द्र से बाहर आते ही पुनः पुराना परिवेश धर दबोचता है। मित्र-मंडली छूट नहीं पाती,अर्थ-लोलुप व्यवसायी शत्रु अपना जाल फेंकने से बाज नहीं आते। समाज और परिवार शंकित निगाहों से देखता है,जिसकी विपरीत प्रतिक्रिया नशासेवी को फिर-फिर वापस जाने को मजबूर कर देती है।
             4)सुधार के लिए किये जा रहे चिकित्सकीय प्रयास भी किंचित दोषपूर्ण हैं,क्यों कि यहां कड़ी नशा की लत को छुड़ाने के लिए अपेक्षाकृत हल्की नशा का प्रयोग किया जाता है,जब कि नशा का यह वैकल्पिक प्रयोग सर्वथा उचित नहीं कहा जा सकता।
             5)नशा विमुक्ति की अबतक प्रचलित विधि एलोपैथी ही रही है,जो कि सर्वथा असमर्थ है। सच पूछा जाए तो कुछ-कुछ बीमारियों का सही उपचार है ही नहीं इस चिकित्सा पद्धति के पास, किन्तु अग्रणी पद्धति इसे ही मान लिया गया है,जिसके स्वयं में ही अनेक कारण हैं। हालाकि उन कारणों पर प्रकाश डालना इस आलेख का उद्देश्य नहीं है।
             6)समाज की रग-रग में व्याप्त भ्रष्टाचार ही 95 प्रतिशत दोषी है,बाधक है,जो मुट्ठी भर शुभेच्छुओं का गला घोंट रहा है। द्रव्य का उत्पादन दवा के नाम पर होगा ही। अर्थ लोलुपता रहेगी ही। भौतिकता का अन्धा दौड़ जारी ही रहेगा, ‘ मैं सर्वशक्तिमान होऊँ ’ का भूत सिर से उतरेगा नहीं, मेरे सारे प्रतिद्वन्द्वी मात हों की लालसा रहेगी ही, सत्तापरस्ती के सारे हथकंडे अपनाये ही जाते रहेंगे, फिर ऐसी स्थिति में तस्करी और चोर बाजारी जारी ही रहेगा,और जब द्रव्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है,तो फिर सेवन करने वाला तो बेचारा जीव है,वह तो लुफ्त के लिए लेता ही रहेगा।
             7) येन केन प्रकारेण द्रव्य की उपलब्धि ही प्रमुख बाधक है— उन्मूलन-प्रयास विफल करने में। बाजार में माल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है,कारा-परिसर में भी बेखटके प्रवेश है द्रव्य का,यहाँ तक कि भ्रष्ट अर्थ-लोलुप कुछ नशा विमुक्ति केन्द्र भी आकंठ डूबे हैं, इस व्यवस्था में। अधिकांश केन्द्र स्थापित ही इसीलिए किये गये हैं,जो एक ओर तो परियोजना का बजट ढकार जाते हैं,तो दूसरी ओर नशेड़ियों के परिवार से भारी दक्षिणा भी ऐंठते हैं,साथ ही छद्मवेष में अपना व्यापार भी सुदृढ़ करते हैं।
             8) घातक मादक द्रव्य सेवन को मानसिक तौर पर बीमारी मान ली गयी है—एक भयंकर बीमारी— नयी महामारी,किन्तु सच पूछा जाए तो यह कोई बैक्टीरियल या वायरल डिजीज तो है नहीं,जिसका चिकित्सकीय सिद्धान्तों और प्रयोगों से पूर्णतया उन्मूलन किया जा सके।
             9) सबसे बड़ा रोड़ा है—  प्रयास-पथ का—क्या कोई बड़ा या छोटा राष्ट्र ईमानदारी पूर्वक सीने पर हाथ रखकर हृदय के अन्तःप्रकोष्ठ से शपथ पूर्वक संकल्प ले सकता है कि नशा उन्मूलन हो जाय? एकदम बन्द हो जाए? असम्भव । बिलकुल असम्भव । ज्यादा से ज्यादा शुभेच्छु होगा तो यही सोचेगा कि मेरे यहाँ से समाप्त हो जाए,किन्तु अन्यत्र फलता-फूलता रहे। अधिकांश की स्थिति तो यह है कि स्वयं को काना बनाकर भी,पड़ोसी को अन्धा बनाने के सिद्धान्त में आस्था रखता है।
                     ऐसी स्थिति में ये सारे तामझाम—किये जा रहे हर प्रयास—प्रचार-प्रसार, सेमीनार क्या सिर्फ हाथी के दांत नहीं हैं? बल्कि इससे भी उपर— झूठ,आडम्बर, छलावा, धोखा,मानवता के साथ खिलवाड़। वस इसके सिवा और कुछ नहीं।

सुझाव— ऊपर्युक्त कारणों और अवरोधों की पृष्ठभूमि में गहराई से झांकने पर स्पष्ट होता है कि समस्या का पूर्णतया निदान कतई सम्भव नहीं । क्यों कि मूल समस्या घातक मादक द्रव्य नहीं प्रत्युत अमानवीय स्वार्थ और अहं है। और स्वार्थ और अहं कोई अद्यतन समस्या नहीं है। युग-युगान्तर से चली आ रही सनातन समस्या है। दुनिया की सारी समस्याओं का मूल बीज यही है। किन्तु हाँ,ज्यों-ज्यों भौतिकता का दौर बढ़ता जा रहा है, आध्यात्मिकता तिरोहित होती जा रही है, आये दिन एक से एक नयी समस्यायें खड़ी नजर आ रही हैं। घातक मादक द्रव्य की समस्या भी उन्हीं में एक है। अतः इसके लिए बहुत हायतौबा मचाने की जरुरत नहीं है,बल्कि समस्या के मूल रुप पर अमल-पहल करना होगा। समस्या जो भी है,जहाँ भी है,वहीं रहने दी जाए। नशा करने वाला कर रहा है,अभी करने दें उसे थोड़े दिन। अभी जरुरत है—मुट्ठी भर सच्चे, आत्मनिष्ठ, ईमानदार, अहं-शून्य व्यक्तियों की, जिसमें विश्व-बन्धुत्व की सच्ची भावना हो, वसुधैव कुटुम्बकम् में पूर्ण आस्था हो। फिर धीरे-धीरे ऐसे लोगों की भीड़ इकट्ठी करनी होगी — कृतसंकल्प लोगों की, जिनका खास अपना कुछ न हो,जो भी हो रुग्ण और त्रस्त मानवता के लिए हो,जिन्हें कुछ भी पाने की लालसा(धन,मान,यश) न हो,सिर्फ देना ही देना एक मात्र लक्ष्य — अभीष्ट हो।
                     हालांकि ये बातें कोरी सैद्धान्तिक लग रही हैं,किन्तु इसकी भी व्यावहारिकता है, जो श्रम-साध्य है,समय-साध्य है। परन्तु शीघ्रता की क्या बात है ! आजतक तो हम शीघ्रता ही करते आए हैं। अन्ज़ाम क्या हुआ—समय,श्रम,और अर्थ की बरबादी। अन्धेरे में चलाये गये तीर से हो गया शिकार, शिकार करना नहीं कहा जा सकता। जो हो गया थोड़ा वो तो इत्तफाक से हुआ। जल्दबाजी में कुछ गलत कर जाने से कहीं अच्छा है,कुछ न करना,यानी सोच-समझ कर करना। आहिस्ते-आहिस्ते करना। परन्तु इसके लिए बहुत आशावादी होने की भी आवश्यकता नहीं है,क्यों कि आशावादी होने का परिणाम होगा—ध्यान टिक जायेगा उपलब्धि पर,और फिर उपलब्धि की आकांक्षा अपने साथ उन सारे विकारों को समेट लायेगी,जिनसे बचने की बात सोची जा रही है। कहने का तात्पर्य यह है कि योगेश्वर के दिशा-निर्देश पर कदम बढ़ाने का प्रयास करना होगा—कर्मण्येवाधिकारस्ते,मा फलेषु कदाचन...। इस  निर्देश का पालन बहुत आसान नहीं है,परन्तु प्रयास तो करना ही होगा।
                         उक्त सतत प्रयास का परिणाम होगा—धीरे-धीरे जागृत जनों का सैलाब उमड़ पड़ेगा। सिंचाई की प्रचुर व्यवस्था हो जायेगी,भूमि तो पहले से मौजूद है ही। हवा अनुकूल जान,अवसर देख, आहिस्ते से बीज बो देना होगा—परमार्थ का बीज, पर-अर्थ नहीं,परमअर्थ का बीज। फिर काम रह जायेगा झंझाबातों में थोड़ी निगरानी करने भर का। धीरे-धीरे आध्यात्मिकता का पौधा लहलहाने लगेगा,और उसके प्रसस्त परिसर से भौतिकता का भूत स्वयमेव पलायन करने लगेगा। अलग से प्रयास करने की आवश्यकता नहीं होगी। आध्यात्मिकता की जड़ जम जायेगी,भौतिक समस्याओं का स्वयमेव अन्त हो जायेगा।
                                  आध्यात्मिकता को उतारने का,भौतिकता को तिरोहित करने का और सूत्र हो सकता है—प्रबुद्ध विचारकों के पास। समय और सुविधानुसार ऐसी कोई भी विधि,ऐसा कोई भी सूत्र प्रयोग में लाया जा सकता है। उद्देश्य वस एक ही होना चाहिए – स्वार्थ और अहं की समाप्ति,भ्रष्टाचार और अनैतिकता का अन्त।
                                  उक्त बातों पर विचार करते हुए,उन पर पहल करते हुए,प्रतिपाद्य समस्या—घातक मादक द्रव्य सेवन उन्मूलन अभियान की सफलता हेतु निम्नांकित तथ्यों के आलोक में कदम उठाये जा सकते हैं—
               1)ऐसा नियम हो,इस बात का प्रयास हो कि सत्ता का मुख्य बागडोर सरस्वती के हाथों रहे,जिसे कर्म(श्रम)का सहयोग प्राप्त हो।
               2)न्याय परमुखापेक्षी न हो,साथ ही चुस्त और कठोर हो। न्याय प्रक्रिया अत्यधिक श्रम,समय,
अर्थ-साध्य न हो। न्याय विभाग से सम्बन्धित प्रत्यक्ष और परोक्ष सीढ़ियों और विचौलियों का सर्वथा समापन हो।
               3)आन्तरिक और सीमावर्ती प्रशासन चुस्त,कर्मनिष्ठ और ईमानदार हो। क्यों कि ऐसे महत्त्वपूर्ण स्थानों पर किंचित भ्रष्टाचार और अयोग्यता भी सारा गुड़ गोबर कर देता है। अतः इनका चयन बहुत ठोंक-बजाकर किया जाए।
               4)सही शिक्षा का सम्यक् प्रसार हो ताकि शिक्षा का सही उद्देश्य—ज्ञान का प्रस्फुटन हो सके।
               5) राष्ट्रीय आय को कितना भी बड़ा नुकशान क्यों न पहुंचे,मादक द्रव्यों का उत्पादन अति सीमित मात्रा में,सिर्फ औषधीय प्रयोगार्थ,कड़ी निगरानी में हो।
               6)मादक द्रव्यों के अवैध व्यापार में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रुप से संलग्न लोगों की सजा में और कठोरता वरती जाए। सामान्य जेल-जुर्माना से तो और भी बढ़ावा मिलता है। अतः उन्हें कठोर शारीरिक एवं मानसिक यातनायें दी जाएं। सारी सम्पत्ति जप्त कर ली जाए तथा अपरिहार्य स्थिति में खास कर उच्च स्तरीय व्यापारियों,तस्करों को प्रथम बार में ही(जब कि अब तक के कानून में तीसरी बार का प्रावधान है) मृत्युदण्ड दिया जाए।
               7) व्यापारियों,तस्करों आदि के समान ही भ्रष्ट प्रशासकों-शासकों को भी दण्डित किया जाए- ऐसा तभी हो सकेगा,जब न्याय के हाथ और मजबूत होंगे। कान के साथ आँखें भी हों,और अपना मस्तिष्क भी।
               8)नशा विमुक्ति केन्द्रों का संचालन पूर्व कथित गुण-धर्मा लोगों के द्वारा हो,न कि पेशेवर लुटेरों द्वारा,क्यों कि केन्द्र संचालन ज्यूं ही पेशे का रुप लेगा,मुनाफे की बात आयेगी,और फिर राह गलत धरायेगा ही।
                                 
  स्थिति-स्थापक उपर्युक्त आलोक-रश्मियों के अतिरिक्त खास तौर पर ध्यान दी जाने वाली बातें निम्नांकित हैं—
क)वैकल्पिक द्रव्यों (निद्राकर औषधियां आदि) की सामान्य उपलब्धि पर भी कठोर नियंत्रण रखा जाए।
ख)अपेक्षाकृत अल्प घातक—विभिन्न तरह के शराब,गाँजा,आदि द्रव्यों पर भी राष्ट्रीय आय का प्रलोभन छोड़कर,कठोर नियंत्रण वरता जाए। धड़ल्ले से जब और जहाँ भी चाहे,इनका व्यापार और व्यवहार कठोर दंडनीय हो,और इस नियम का सख्ती से पालन भी हो। ऐसा नहीं कि सिगरेट की डब्बी पर बिलकुल महीन अक्षरों में लिखे स्लोगन की तरह इस्तेमाल हो,जिसे चाह कर भी पढ़ना दुरुह होता है।
ग)नशा सेवियों के उपचार क्रम में निद्राकर औषधि द्रव्यों का प्रयोग न के बराबर किया जाए,खासकर सीधे आधुनिक रासायनिक औषधियाँ।
घ)कतिपय आयुर्वेदीय योगों का प्रयोग किया जा सकता है। होमियोपैथी भी सफल सिद्ध हो सकता है,वशर्ते कि महात्मा हनिमन के मूल सिद्धान्तों का गला न घोटा गया हो,जैसा कि तथाकथित नये होमियो चिकित्सक प्रायः कर रहे हैं।
ङ)अन्य चिकित्सा पद्धतियों को यथावश्यक सहयोगी चिकित्सा के रुप में व्यवहार करते हुए, मुख्य चिकित्सा यौगिक रीति से की जाए,जो सच्चे योग साधकों की देख-रेख में सम्पन्न हो। पद्धति योग की हो, योगा की नहीं। ध्यातव्य है कि योग और योगा में मौलिक अन्तर है,जिस पर बिलकुल ही ध्यान नहीं दिया जा रहा है। नशा सेवी को पूर्णतया आश्रम परिवेश में रखकर,यथावश्यक योग-सूत्रों का पालन और प्रयोग कराया जाए। सामान्य यम-नियम (विशेष नहीं) के साथ षट्कर्म,जलधरी,प्रज्ञादेश,योगनिद्रा, अध्यास, मार्जनी,आरोपण,प्रक्षेपण आदि क्रियाओं का यथोचित प्रयोग किए जाएँ।
च)ध्यातव्य है योग पूर्णतया मनोवैज्ञानिक है,अतः अलग से मनो चिकित्सा की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। फिर भी आवश्यकता प्रतीत हो तो आधुनिक शैली का भी उपयोग किया जा सकता है।
छ)एक से तीन माह के आश्रम-परिवेश और उपचार के पश्चात् नशा सेवी स्वस्थ और सामान्य हो जाए,तो उसे घर जाने दिया जाए,किन्तु नित्य आगन्तुक तौर पर आश्रम सम्पर्क बना रहे कुछ दिनों तक। आश्रम से बाहर भी उसकी दिनचर्या पर आश्रम का परोक्ष नियंत्रण बना रहे।
ज) स्वास्थ्य लाभ कर वापस होने पर पारिवारिक ,सामाजिक और आर्थिक पुनर्वास की यथोचित जिम्मेवारी सुधारक संस्था(आश्रम)की हो,क्यों कि पुनर्वास भी एक जटिल समस्या है, उपचार के बाद। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि परिवार और समाज का कोई कर्तव्य ही नहीं है, मुख्य कर्तव्य तो उन्हीं का है। संस्था तो सिर्फ सहयोगी की भूमिका निभायेगी।
      उपर्युक्त मुख्य सुझाओं के अतिरिक्त कुछ अन्य बातें भी हैं,जिनका सम्बन्ध सिर्फ भुक्तभोगी या सुधारक से ही नहीं,बल्कि पूरे समाज से है। यथा—
1)मुख्य रुप से अज्ञान,धोखा,प्रलोभन,शत्रुता आदि का शिकार होकर ही मादक द्रव्यों की चपेट में लोग आते हैं। अतः हर नागरिक का कर्तव्य होता है कि उसे समाज के रुग्ण अंग के रुप में स्वीकारते हुए,समुचित उपचार और सही दिशा में प्रेरित करें। न कि तिरस्कृत और अपमानित करें। उसे स्नेह और सहयोग दें। हां,कतिपय अन्यान्य कारणों से विकृत नशासेवी भी हैं,जो जानबूझ कर जहर से खेल रहे हैं,तथा समाज में जहर फैला रहे हैं। अतः इसका विचार करते हुए यथोचित उपचार के साथ-साथ शारीरिक और मानसिक दण्ड की भी व्यवस्था होनी चाहिए,ताकि उनका मनोबल टूटे।
2)मादक द्रव्यों का अवैध उत्पादक,प्रसारक आदि तो वस्तुतः मानव है ही नहीं। एक नशेड़ी दो-चार नशेड़ी पैदा करता है,जब कि एक व्यापारी नशेड़ियों की फौज तैयार कर देता है। अतः व्यापारी कतई क्षमा का पात्र नहीं है। उसे कड़ी से कड़ी सजा दी जानी चाहिए- कानूनी और सामाजिक भी।
3)हर नागरिक का कर्तव्य है कि किसी भी व्यापारी या नशेड़ी की सूचना पाते  ही प्रशासन को अगाह करे,साथ ही सुधार केन्द्र को भी। नशासेवी के परिवार को भी स्पष्ट जानकारी सामाजिक चेतावनी पूर्वक दी जाय।
4)सुधार केन्द्रों का कर्तव्य सिर्फ सुधार करना ही नहीं,बल्कि अपने स्तर से भी गुप्तचरी कर,पता लगाते रहने की है- नशेड़ियों और व्यापारियों के बारे में। इस सम्बन्ध में केन्द्र को भी कानूनन विशेष अधिकार प्राप्त होना चाहिए,ताकि कार्य करने में व्यावहारिक कठिनाई न हो।
5)राष्ट्रीय हित को ध्यान में रखते हुए किसी भी प्रकार का असामाजिक कार्य न होने देना हर जागरुक नागरिक का परम कर्तव्य है—इसे आज कल हम विसार चुके हैं। आम आदमी यही सोच कर रह जाता है कि मेरा क्या जाता है, किन्तु ध्यान रहे—पड़ोस के आग की लपट कब अपने भी ड्योढ़ी में प्रवेश कर जाय,कहा नहीं जा सकता। हालांकि इसके पीछे भी कई कारण हैं—एक तो हर आदमी लापरवाह और कर्तव्यहीन हो गया है। व्यक्तिगत स्वार्थ तक सिमट कर रह गया है। उसे अपने अधिकार तो जरुरत से ज्यादा याद हैं,पर कर्तव्यों का जरा भी परवाह नहीं है,और दूसरी बात ये कि नागरिक सुरक्षा में कमी,प्रशासनिक बेअदबी और कानूनी जटिलता भी आड़े आता है—कर्तव्यनिष्ट के सामाने। यही कारण है कि चाह रहते हुए भी लोग,न्याय और प्रशासन को सहयोग नहीं कर पाते।
6)पुलिस विभाग का कर्तव्य है कि अपने अधिकार का भरपूर उपयोग करे,किन्तु कर्तव्य को ध्यान में रखते हुए। वह ये न भूले कि नागरिक का सेवक है,स्वामी नहीं। उसका वेतन नागरिक के खून-पसीने के वदौलत है। पुलिस और नागरिक के बीच जो विसंगतियां गहराती जा रही हैं,दिनों दिन, उस खाई को पाटने की जरुरत है।
7)नशा-सेवन एक बीमारी है—यह कथन सिर्फ आंशिक सत्य है। आग में हाथ डाल देना या जान बूझ कर गिर पड़ना कोई बीमारी नहीं हो सकती। बीमारी तब कही जायेगी,जब आग से प्रभावित होकर,कोई अंग जल जाए। उसी भांति नशा सेवन का सायास प्रारम्भ किसी भी स्थिति में बीमारी नहीं है। नशा के चंगुल में फंस जाना भले ही बीमारी की स्थिति कही जायेगी। और इस अवस्था में सहानुभूति पूर्वक सम्यक् उपचार आवश्यक है।
8)रोगी सदस्य से दुराव न बरतें। उसे एकान्त सेवन का अवसर न दिया जाए। उन्हें हर वक्त शारीरिक और मानसिक कार्यों में व्यस्त रखने का प्रयास किया जाना चाहिए।
9)रोगी के नियोजक,शिक्षक,अधिकारी आदि पूछताछ या स्पष्टीकरण चाहते हों,इस सम्बन्ध में कठोरता बरतते हों,तो इसमें पारिवारिक सहयोग अपेक्षित है,न कि हस्तक्षेप या बचाव या बहाना।
10)नशा सेवी में हर सम्भव तरीके से आत्मबल जागृत करना संरक्षक ,अभिभावक और हर नागरिक का कर्तव्य है। उसमें नशा के प्रति घृणा पैदा करने का प्रयास करना चाहिए। नशा छोड़ने का दृढ़ संकल्प पैदा हो- इसके लिए आवश्यक है आत्मबल का पैदा होना,तभी उपचार भी सफल और सरल हो सकता है।
11)रोगी और अभिभावक नशा विमुक्ति के प्रयास में असफल होने पर निराश हो जाते हैं। ध्यान रहे—सही समय पर सही ढंग से किया गया प्रयास और उसके बाद की आवश्यक सावधानियों का ठीक से पालन किया जाय तो नशा विमुक्ति  एक वरदान सिद्ध हो सकता है। किन्तु इस विन्दु पर रोगी और अभिभावक का सतत सावधान रहना अति आवश्यक है। नशा विमुक्ति के पश्चात् भी लम्बे समय तक आध्यात्मिक परिवेश रहना आवश्यक है। साथ ही स्वस्थ मानसिक खुराक—खेल-कूद, मनोरंजन आदि तथा अन्य रचनात्मक कार्यक्रम भी जारी रहे,ताकि पुनर्वापसी का खतरा न हो। पुरानी मित्र मंडली का तो सर्वथा त्याग किया जाना चाहिए। नशा विमुक्ति पुनर्जन्म है—नव जीवन है। अतः इसे नव जीवन की भांति सहेज कर जीने का प्रयास किया जाए।
12)दान दाताओं और सहयोगियों से अपेक्षा की जाती है कि मन्दिर,मस्जिद,चर्च बनवाने से अधिक महत्त्वपूर्ण,अधिक धार्मिक कार्य है—विद्यालय और औषधालय बनवाना,जहां जीवन्त मूर्तियों की सेवा-अर्चना होती है। ज्ञान-दान और औषध-दान सबसे बड़ा दान है—त्रस्त और रुग्ण मानवता के लिए। अतः नशा विमुक्ति केन्द्रों के संचालनार्थ यथासम्भव दान दिए जाऐँ।
          सभी सुखी हों,सभी निरोग हों,सभी कल्याणमयी दृष्टि रखें,किसी को किसी प्रकार का दुःख न हो—आर्यावर्त का सनातन उदघोष रहा है— सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित दुःखभागभवेत्।।
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