नाड्योपचारतन्त्रम्
नाड्योपचारतन्त्र पर थोड़ी चर्चा– अब से कोई चालीस वर्ष पूर्व मैं इस विधा से परिचित हुआ- पांडीचेरी के सन्त श्री मणिभाईजी की कृपा से। और फिर एक जुनून सा छा गया इसके गहन अध्ययन और शोध हेतु। छः-सात वर्षों के गहन अध्ययन और शोध के पश्चात् जो कुछ अर्जित किया उसे सन् 1987 में ‘धन्वन्तरि और सुधानिधि’ ने अपने विशेषांक रुप में स्थान दिया। आकाशवाणी पटना ने भी संक्षिप्त रुप से प्रसारित किया मेरे आलेख को। बाद में चौखम्बा,वाराणसी ने मेरे शोधप्रबन्ध के प्रथम भाग को प्रकाशित भी किया,जो आज विश्व के लगभग बीस देशों में मूल,और अनुदित रुप से उपलब्ध है। किंचित कारणों से शोधप्रबन्ध का दूसरा भाग अभी भी मेरी पाण्डुलिपियों में कैद है। विगत वर्षों के सम्पर्क में आपने पाया होगा- एक-एक कर सारी रचनाओं को डिजीटलाइज करके अपने ब्लॉग,और सोशलमीडिया के अन्य साइटों पर उपलब्ध करा रहा हूँ। तन्त्र-योग-साधना की गुत्थियां सुलझाता उपन्यास- बाबाउपद्रवीनाथ का चिट्ठा पूरा हो गया पिछले महीने ही। अब बारी है इस उपचारतन्त्र की। उसकी संक्षिप्त बानगी पहले यहां प्रस्तुत कर रहा हूँ। पूरी किताब तो छः महीने का टास्क है। आशा है आपका स्नेह इसी भांति सदा मिलता रहेगा। साधुवाद।
नाड्योपचारतन्त्रम्
विभिन्न
पारम्परिक चिकित्सा-विधाओं में सर्वाधिक प्राचीन विधा है नाड्योपचार,जिसके नवीन
स्वरुप को आज की दुनिया एक्यूप्रेशर का
नाम दे दी है। आयुर्विज्ञान और अध्यात्मविज्ञान- दोनों से सहज सम्बन्ध है
इसका। वस्तुतः यह योग का अभिन्न अंग है। आयुर्वेद का नाड़ीविज्ञान भी इसका ही एक
खण्डमात्र है। योगशास्त्रों में वर्णित बहत्तरहजार नाड़ियों में प्रमुख चौहद
नाड़ियों का सूत्रावलम्ब लेकर,यह विधा पुष्पित-पल्लवित हुयी; और आज अमरीका से लेकर जापान
जैसे सुविकसित देशों में अपने नूतन कलेवर में नाना नामकरणों से अलंकृत
होकर,अन्यान्य के साथ-साथ हम आर्यावर्त-वासियों को भी भ्रमित किए हुए है, मानों
कोई बिलकुल ही नयी चीज हो। हमसब भी इसे विदेशी ही मान-समझ बैठे हैं। विगत चार-पांच
दशकों से हम भारतवासी भी विसमित होकर, अपने विस्मृत चिकित्सा-पद्धति को पहचानने का
प्रयास कर रहे हैं। विगत कुछ वर्षों में इसे काफी हद तक पहचाना भी जा चुका
है,परन्तु उस आत्मीयता के साथ नहीं,प्रत्युत पर्याप्त भेद-सहित।
प्रारम्भ में प्रायः हर किसी ने अविश्वास भरी दृष्टि ही
डाली इसके प्रति,किन्तु समीप से देखा-परखा तो फिर अभिभूत हुए वगैर न रह सके। और
परिणाम ये हुआ कि जिसे जो नाम सूझ पड़ा,अच्छा लगा,वही दे दे डाला। अन्धों की नगरी
में अचानक घुस आये हाथी की तरह- जिसके किसी ने पूंछ छुआ और रस्सी नाम दे दिया,किसी
ने पीठ छूआ और दीवार कह दिया,किसी ने पैर टटोले,और खम्भा कह दिया। नाड्योपचार के
साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ।
अंगुलियों
द्वारा दबाव देकर उपचार किया जाता है,इस लिए जापान ने ‘शिआत्सु’
कहा, क्यों कि
जापानी भाषा में शि का अर्थ होता है अंगुली और आत्सु यानी दबाव। अमरीका ने इसे
प्रतिविम्बचिकित्सा(Reflexology)कहा, क्यों कि Any point or disease reflects on these points,
that is why this science is called Reflexology. लैटिन भाषा में Accu का अर्थ होता है सूई,किन्तु सूई
जैसी नुकीली वस्तु दबाव के लिए उपयुक्त कैसे हो सकती है?
वास्तव में यह इसके सौतेले पद्धति Accupuncher के लिए
व्यवहृत होना चाहिए। किन्तु हां, Accu एक और शब्द है जिसका
अर्थ होता है- बाहर निकालना। इस प्रकार एक्यूप्रेशर (Accupressure) नाम की सार्थकता सिद्ध होती है,उस पद्धति के लिए जिसमें दबाव देकर रोगों
को शरीर से बाहर किया जाता है। और इन नाना नाम-जंगल में खोकर रह गयी ‘शिरादाब और शिरावेध’ नामक भारतीय संज्ञा,और इससे
भी काफी पीछे उपनिषद कालिक संज्ञा-
नाड्योपचारतन्त्रम्।
नाड्योपचारतन्त्र
का चिकित्सा-सिद्धान्त अति सूक्ष्म,सरल,और सहज है। पञ्चभूतात्मक शरीर का संचालन
जैव ऊर्जा(Bio-electricity) के उभय उपखण्डों- धन एवं ऋण द्वारा होता है। उपनिषदों ने ‘रयिं
च प्राणं च’ से
इस महाशक्ति को व्याख्यायित किया है। इसका मुख्य मार्ग मेरुदण्ड के अन्तर्गत है, जिसके
विस्तृत ज्ञान के लिए योग-शास्त्र का अध्ययन अपेक्षित है। आहार-विहार-विपर्यय जनित
व्यवधान से यह महास्रोतस्विनी ऊर्जा वाधित होकर ‘काय संचालक कक्ष’ को
सूचित करती है,जिसे आमजन आधि-व्याधि की संज्ञा देता है। वस्तुतः रोग-व्याधि कुछ
अन्य नहीं,प्रत्युत ‘रयि’
और ‘प्राण’
के आपसी संयमन का ही व्यवधान मात्र है। यौगिक क्रियाओं द्वारा इसे पुनः
संतुलित,व्यवस्थित कर दिया जाय अथवा पंचभूतात्मक औषधि द्रव्यों द्वारा- व्याधि-मुक्ति
हेतु-- इतना ही तो करना है सिर्फ । किया भी यही जाता है- चाहे योगी यह कार्य
करे,वा भिषग।
आगे एक चित्र के माध्यम से शरीर में
चेतना-प्रवाह को दर्शाया गया है। (चित्रांक १)
इस पंचभूतात्कम चेतना-प्रवाह को ईंगित करती है चारों उपखण्डों की पंचतत्त्वात्मक
प्रतिनिधि- क्रमशः पांचों उंगलियां,और इसके फलस्वरुप हमारा शरीर
ऊपर-नीचे,दांयें-बांयें- चार उपखण्डों में विभक्त हो जाता है। इन चारों के शीर्ष
ही नियामक स्थल हैं पंचतत्त्वों के। फलतः इन स्थलों पर स्थित सूक्ष्म नाड़ी
केन्द्रों को व्याधि-सूचना-केन्द्र कहा जा सकता है। यहां चिकित्सक के द्वार पर
दस्तक देने जैसी क्रिया करनी होती है- इन खास विन्दुओं पर खास ढंग से दबाव देकर।
दबाव की सूचना पाकर शरीरगत अन्तः चिकित्सक चैतन्य होकर अपना कार्य करने लगता
है,जिसके फलस्वरुप रोग-मुक्ति होती है।
यूं तो पूरे शरीर में हजारों की
संख्या में ये सूचना केन्द्र अवस्थित हैं, फिर भी वरीयता और सुगमता की दृष्टि से
क्रमशः चारों उपखण्डों और सबके प्रधान यानी मेरुदण्ड को माना जाता है। इसका
स्पष्टावलोकन निम्नांकित चित्रों और उनकी तालिका से किया जा सकता है- (चित्रांक २,३,४,५)
क्र.
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अवयव सम्बन्ध
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Organs
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१.
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मस्तिष्क
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Brain nerves
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२.
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मानसिक नसें
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Mental nerves
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३.
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पीयूष ग्रन्थि
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Pituitary gland
|
४.
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चेतना ग्रन्थि
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Pineal gland
|
५.
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ललाट
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Forehead
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६.
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गला
|
Throat
|
७.
|
गर्दन
|
Neck
|
८.
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अवटुका ग्रन्थि
|
Thyroid, parathyroid
|
९.
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मेरुदण्ड
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Spinal cord
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१०.
|
अर्शग्रन्थि
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Piles gland
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११.
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पौरुषग्रन्थि
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Prostate gland
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१२.
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गर्भाशय
|
Uterus
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१३.
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जननेन्द्रिय
|
Penis & Vagina
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१४.
|
अण्डाशय
|
Ovaries
|
१५.
|
शुक्रपिण्ड
|
Testes
|
१६.
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मेरुदण्ड का निचला भाग
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Lower lumber & lymph
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१७.
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कमर,घुटना,जांघ
|
Hip, knee, Thigh
|
१८.
|
मूत्राशय
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Urine bladder
|
१९.
|
छोटीआंत
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Small intestine
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२०.
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बड़ीआंत
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Large intestine
|
२१.
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आन्त्र पुच्छ
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Appendix
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२२.
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पित्ताशय
|
Gall Bladder
|
२३.
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यकृत
|
Liver
|
२४.
|
कंधा
|
Shoulders
|
२५.
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अग्न्याशय
|
Pancreas
|
२६.
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वृक्क(गुर्दे)
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Kidney
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२७.
|
आमाशय
|
Stomach
|
२८.
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अधिवृक्क
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Adrenal gland
|
२९.
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सूर्यकेन्द्र
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Solar Plexus
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३०.
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फेफड़ा
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Lungs
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३१.
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कान
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Ear
|
३२.
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शक्तिकेन्द्र
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Energy point
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३३.
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अन्तःकर्ण
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Ear nerves
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३४.
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नाक
|
Nose
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३५.
|
आंख
|
Eye
|
३६.
|
हृदय
|
Heart
|
३७.
|
प्लीहा
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Spleen
|
३८.
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मात्रिका ग्रन्थि
|
Thymus gland
|
नोटः-
1. ये सभी केन्द्र दोनों हथेली और तलवे में हैं,किन्तु हृदय,यकृत,प्लीहा जैसे एक
पक्षीय अंगों से सम्बन्धित केन्द्र मात्र उसी भाग में हैं,जिस भाग में शरीर में ये
अंग हैं। यथा- हृदय का विन्दु सिर्फ बायी हथेली और बायें तलवे में ही है।
2. एक
लिंगीय अंगों के केन्द्र विपरीत लिंग में रिक्त रहेगा।
3. हृदय(क्रमांक
36पर) दबाव उपचार विशेष सावधानी से करना चाहिए,एवं दबाव की मात्रा और संख्या दोनों
अन्य अंगों की तुलना में अपेक्षाकृत कम (आधा या चौथाई)होना चाहिए। खास कर जो पहले
से ही हृदयरोगी घोषित हो,उसे विशेष सावधानी वरतनी चाहिए।
4. क्रमांक
11 से 15 जिस भांति हथेली से बाहर कलाई पर हैं,उसी भांति पैरों में टखने के पास
हैं,जिसे अलग चित्र में समझाया गया है।
5. क्रमांक
38 हथेली के विपरीत भाग में सक्रिय है। इसी भांति क्रमांक 17 और 24 अपने मूल स्थान
से बाहरी किनारे की ओर सक्रिय हैं।
उपचार
विधि- उक्त
अवयवों से सम्बन्धित उपचार केन्द्रों तो थोड़े अभ्यास से बड़ी आसानी से परखा जा
सकता है। ‘जहां
दुखे,वहीं दबायें’
इस चिकित्सा पद्धति का मूल मन्त्र है। यानी स्वयं पूरी हथेली और तलवे की विधिवत
जांच करें- पेन्सिलनुमा लकड़ी के चट्टु या ऐसी ही किसी चीज से। जिस अंग में खराबी
होगी,उस अंग का केन्द्रविन्दु सामान्य दबाव से ही तीखी वेदना देगा- यही पहचान है।
केन्द्र की पहचान हो जाने पर,उसी उपकरण से कम से कम पचास,और अधिक से अधिक सौ बार
दबाव डालना चाहिए किसी एक विन्दु पर। दबाव पम्प करने जैसी हो,यानी दबायें-छोड़ें।
कभी-कभी पुरानी बीमारियों की स्थिति में तत्सम्बन्धी केन्द्र निष्क्रिय भी हो जाते
हैं। जहां प्रथम प्रयास में कोई वेदना अनुभव नहीं भी हो सकता है। किन्तु एक दो बार
के प्रयास से सही अनुभव होने लगता है। ठीक इसके विपरीत ऐसा भी होता है कि
नयी(एक्यूट)बीमारी में केन्द्रविन्दु अति संवेदनशील भी हो जाता है। जैसे जुकाम
है,तो नाक का विन्दु अधिक सक्रिय हो जा सकता है। ऐसी स्थिति में अधिक दबाव नहीं
देना चाहिए। कुछ नवसिखुये ऐसा समझते हैं कि ज्यादा दबाव देना जरुरी है,किन्तु
ध्यान रहे- यह बिलकुल गलत सोच है। अत्यधिक दबाव से भीतर के नाज़ुक कोशिकायें
क्षतिग्रस्त होने लगेंगी,और फफोले भी हो
जा सकते हैं। अतः सावधान। अधिक संवेदी विन्दुओं पर प्रारम्भिक दबाव धीर-धीरे ही
देना चाहिए। नये या पुराने रोगों का उपचार स्वयं,या किसी सहयोगी से कराया जा सकता
है।
उपचार
की अवधि एवं दबाव की मात्रा नये और पुराने रोगों में बिलकुल भिन्न होगी। नये रोगों
में 10 से 30 मिनट के अन्तराल पर उपचार-आवृति उचित है। सामान्यतया जीर्ण रोगों में
प्रातः,दोपहर,सायं यानी तीन बार का उपचार उचित है। ध्यान देने योग्य है कि प्रति
केन्द्र पर दबाव की मात्रा चौथाई पौंड से
पांच पौंड तक की हो सकती है। इसका निर्धारण रोगी की उम्र,चमड़ी की बनावट
आदि पर निर्भर करता है। इसमें सूझवूझ और सावधानी से काम करना चाहिए।
हृदयरोगी,गर्भवती
महिला,अन्य भाउक व्यक्तियों के उपचार में विशेष सावधानी वरतनी चाहिए। उनके मूल
केन्द्र पर विशेष दबाव न दिया जाय। हल्के-हल्के नियमित दाब उपचार लेते रहने
से,महिलाओं को प्रसब-वेदना में भी सहुलियत हो सकती है। कभी-कभी अचानक घबराहट होने
लगती है,ऐसे में उपचार तत्काल रोक देना चाहिए। रोगी को पीठ के बल लेटाकर,हथेली और
तलवे को सिर्फ हाथों से रगड़ना चाहिए। मौसम के अनुसार गरम या ठंढा पानी घूंट-घूट
करके पीना भी लाभदायक होता है। नियमित दबाव पड़ने से केन्द्र थोड़े दुर्बल भी हो
जाते हैं,छाले पड़ जा सकते हैं। ऐसी स्थिति में गरम पानी में नमक डाल कर
हथेली-तलवे की सिंकायी करनी चाहिए।
नाड्योपचार
एक निरापद उपचार पद्धति है। इसे बच्चा,बूढ़ा,पुरुष-स्त्री कोई भी प्रयोग कर सकता
है। आजकल बाजार में एक्यूप्रेशर के बहुत से उपकरण मिलते हैं,जिनमें ज्यादातर
व्यर्थ के हैं। पैसे की बरबादी या कहें दिखावा भर है। कुछ ही उपकरण कारगर हैं।
पेशेवर लोग इसे तमाशा बना दिये हैं। और भारी फीस भी वसूलते हैं। सच पूछा जाय तो यह
स्वउपचार पद्धति है। तन्त्रिकातन्त्र की कुछ जटिल बीमारियों में चमत्कारिक लाभ
मिलता है। धैर्य पूर्वक इसके अभ्यास की आवस्यकता है। स्वस्थ रहने के लिए भी इसका
नियमित प्रयोग किया जा सकता है। वस्तुतः यह योग का ही तो विस्मृत अंग है।अस्तु।
यहां दिये गये चित्रों की संख्याओं पर ध्यान देने की जरुरत नहीं है,ये संख्यायें मेरे मूल पुस्तक की हैं,यहां सिर्फ उन चित्रों के भीतर दी गयी संख्याओं पर ध्यान देना है,और उनके अनुसार ही दबाव डालना है।)
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