डिप्रेशन :: परिचय,कारण,लक्षण और निवारण

                           डिप्रेशन  ::  परिचय,कारण,लक्षण और निवारण
         अवसाद(डिप्रेशन) शब्द से प्रायः लोग अवगत होंगे,क्यों कि दीर्घकालिक ना सही,अल्पकालिक ही सही,बहुतों को कमोवेश इससे सामना अवश्य हुआ होगा इस भागदौड़ की मशीनी ज़िन्दगी में,अपने में खोयी दुनिया की भीड़ में,या फिर वेरोजगारी,और अभावग्रस्त जीवन में,या विद्यार्थी जीवन के बोझ तले कराहते वचपन में...।
अवसाद एक मानसिक बीमारी है,जो चुपके से घर कर जाती है। डिप्रेशन का शिकार व्यक्ति प्रायः एकान्त-सेवी होता है,या कहें एकान्त में रहने की लाचारी अवसाद का शिकार बना देती है। मन हमेशा खिन्न रहता है,यानी किसी काम के लिए उत्साह नहीं होता। आत्मविश्वास की भारी कमी होजाती है। जिस काम को हम बेहतर अंज़ाम दे सकते हैं,उसमें भी घबराहट और बैचैनी लगने लगती है। नकारात्मक सोच हावी रहता है। अशुभ बातें ही दिमाग में अधिक आती हैं। कभी कभी तो हांथ-पैर भी कांपने लगते हैं,पशीने आने लगते हैं। ब्लडप्रेशर गिर जाता है,जब कि व्यक्ति लोप्रेशर का मरीज़ नहीं होता।
डिप्रेशन आधुनिक काल की आम समस्या होती जा रही है। सिर्फ बुज़ुर्ग या प्रौढ़ ही नहीं,युवा और कभी-कभी तो बच्चों में भी ये समस्या देखने को मिल जाती है। पुरुषों की तुलना में महिलाओं में ये अधिक पायी जाती है। दोनों के मनोदैहिक शरीर-संरचना में किंचित भेद ही इसका वजह है। शरीरशास्त्री,और मनोवैज्ञानिक इसके बारे में चाहे,जो भी राय रखते हों,किन्तु इसमें दो राय नहीं कि इसे आधुनिक जीवन-शैली का देन कहा जा सकता है। खान-पान,रहन-सहन,वातावरण,पर्यावरण-विकृति के साथ–साथ हमारा सोच-विचार यानी सामाजिक परिवेश भी काफी जिम्मेवार है इस समस्या के लिए।  प्रेम की बदलती परिभाषा और बिखरता परिवार भी एक अहम कारण है। ऐसा नहीं कि ये कोई नई बीमारी है। कोई वायरल डिजीज है। पहले भी ऐसा होता था,किन्तु आज के दौर में इज़ाफा हो गया है- संक्रामक बीमारी की तरह बढ़ रहा है,जिसे भारतीय जीवन और चिन्तन शैली के बिलकुल विपरीत कहा जा सकता है। पश्चिमी देशों की देखा-देखी,चार्वाक दर्शन से प्रभावित युवा पीढ़ी- जब तक जीओ सुख से जीओ,करजा लेकर भी घी पीओ...वाली सोच होती जा रही है। और देखा-देखी की पूर्ति के साधन समय पर यदि नहीं जुट पाये या जुटा पाने में हम असमर्थ रहे, तो धीरे धीरे,अनजाने में ही ये बीमारी अपना स्थान बनाने लगती है। हमें पता भी नहीं चलता कि कब इसके गिरफ्त़ में आगये। स्थिति जब काफी आगे बढ़ चुकी रहती है,तब कहीं जाकर पकड़ में आता है,और तबतक समय बीत चुका रहता है।
        भारतीय जीवन दर्शन स्वान्तः सुखाय,या फिर सर्वे भवन्तु सुखिनः वाला था, जो लगभग बदल चुका है। हर क्षेत्र में प्रतियोगिता(कम्पेटीशन)का बोलबाला हो गया है। होश सम्भालते के साथ ही बच्चा प्रतियोगी बनाया जाने लगता है। मेरा-तेरा का पाठ ही अधिक पढ़ता है। और इस प्रकार धीरे-धीरे उसे इसकी लत लग जाती है। हाथ की पांचो अंगुलियां कदापि बराबर नहीं हो सकती। यदि बराबर हो जायें तो हाथ के कार्य का संतुलन भी गडमड हो जाये। इसी कारण प्रकृति ने ऐसा जान बूझ कर किया है। किन्तु प्रतियोगिता के दौर में हम प्रकृति के विपरीत कार्य ही अधिक करने को विवश हैं।
        हमारी आकांक्षायें बड़ी-बड़ी हो गयी है। और संयोग (दुर्भाग्य) से यदि असफलता मिलती है तो अवसाद(डिप्रेशन) का जन्म होना स्वाभाविक है। हालांकि मनुष्य को महत्वाकांक्षी होना चाहिए। विकास के बारे में सोचना चाहिए,किन्तु पड़ोसी को देख कर,कुंण्ठित होते रहेंगे,तो परेशानी होगी ही। सच पूछें तो डिप्रेशन और कुछ नहीं,बल्कि हमारी दबी,अपूरित आभिलाषाओं, कुंठाओं का प्रत्यक्ष प्राकट्य है। जो जितना सामाजिक होगा,जितना सभ्य होगा,बुद्धिजीवी होगा,उसे उतना ही खतरा है- इस बीमारी का। वहिर्मुखी(एक्ट्रोवर्ट) की तुलना में अन्तर्मुखी(इन्ट्रोवर्ट)इसके अधिक शिकार होते हैं। कम शब्दों में परिभाषित करें तो कहा जा सकता है कि अवसाद सभ्यता की मानस व्याधि का नाम है। किन्तु इसका ये अर्थ न लगा लिया जाय कि हम असभ्य होने,रहने के हिमायती हैं।
        हां,इतना अवश्य कहूंगा कि सर्वप्रथम हमें अपने जीवन-शैली पर ध्यान देना चाहिए। इसे संतुलित,और व्यवस्थित बनाने का प्रयास करना चाहिए। ये मान कर चलें कि समय से पहले और भाग्य से ज्यादा कभी कुछ नहीं मिल सकता। यह कह कर मैं भाग्यवादी होने यानी कर्मच्युत होने की बात भी नहीं कर रहा हूँ। बल्कि सही तरीके से कर्म करने की सततता की बात कर रहा हूँ । सन्तुष्ट होना सीखें। प्रसन्न रहने की आदत डालें। नकारात्मक सोच से बचें। अनैतिकता से परहेज करें। आत्मविश्वास को कमजोर न होने दे। जहां तक हो सके सत्य का साथ दें– यदि इन थोड़ी सी बातों पर ध्यान दिया जाय तो अवसाद के क्षण जीवन में शायद कभी न आये। अन्ध भक्त बन कर; चार हाथ,चार सिर वाले ईश्वर की उपासना कोई जरुरी नहीं है। हमारे सामने जो भी दीख रहा है–– नदी,पहाड़,पेड़-पौधे,लतायें,धूप,हवा,पशु-पक्षी,मनुष्य––काला,गोरा,अमीर,गरीब,दाड़ीवाला, बिना दाड़ीवाला,दो पैर वाला,चार पैर वाला,बिना पैर वाला...सबका सब उस ईश्वर का ही तो विस्तार है। उस एक्योंकार के सिवा है ही कहां कुछ इस संसार में। अतः उस परमसत्ता में आस्था,श्रद्धा और विश्वास रखते हुए विहित कर्म करते जायें। सच्चे कर्मनिष्ठ को अवसाद कदापि नहीं छू सकता।
        कुछ उपचार  अवसाद(डिप्रेशन)बहुत अधिक बढ़ गया है,तो ऐसी स्थिति में अंग्रेजी दवाइयों के प्रयोग से भी बचने की सख्त जरुरत है,क्यों कि जो दवाइयां इसमें दी जाती हैं,उनका बहुत ही साइड एफेक्ट है। सर्वाधिक उचित है कि प्राकृतिक उपचार का प्रयोग किया जाय। शीघ्र लाभ और विशेष परेशानी की स्थिति में आयुर्वेद का सहारा भी लिया जा सकता है। इसके लिए एक अति सरल औषधि सुझा रहा हूँ-
        नागौरी असगन्ध 100ग्रा.,विधारा-50 ग्रा.,ब्राह्मी-100ग्रा.शंखपुष्पी-100ग्रा.,मिश्री-100ग्रा. लेकर चूर्ण बना लें। इसे चौबीस घंटे में दो या तीन बार 5-5ग्रा. की मात्रा में सुषुम(वार्म) दूध या पानी के साथ महीने- दो महीने सेवन करें। चुंकि इसके और भी बहुत से फ़ायदे हैं,इसलिए अधिक समय तक भी लिया जा सकता है। बच्चा,बूढ़ा,पुरुष-स्त्री,गर्भवती,प्रसूता- कोई भी इसे ले सकता है। यह एक निरापद औषधि है।
कुछ अभ्यास- प्रातः,सायं,एवं रात सोने से पहले- यानी चौबीस घंटे में तीन सीटिंग लें इस अभ्यास के लिए। प्रत्येक बैठकी कम से कम आधे घंटे की अवश्य हो। रात वाला समय और भी अधिक रखा जाना चाहिए। अभ्यास का स्तर कम से कम एक सप्ताह  तक एक समान हो,अधिक दिनों तक भी एक ही अभ्यास को चलया जा सकता है। फिर अगले अभ्यास में जायें। अभ्यास के समय शरीर पर मौसम के अनुकूल,किन्तु ढीले-ढाले कपड़े होने चाहिए। अभ्यास सीधे विस्तर पर भी बैठ कर किया जा सकता है- अलग से कोई विशेष आसन जरुरी नहीं है। चाहें तो अन्य समय में भी,कहीं भी सुविधानुसार,थोड़ी देर के लिए कुर्सी,तख्त आदि पर बैठे हुए भी अभ्यास कर सकते हैं। भोजन के तुरत बाद(45मि.का अन्तराल जरुरी) अभ्यास न करें,और अभ्यास के तुरत बाद स्नान भी न करें- इसका सख्ती से पालन हो। कुर्सी पर बैठ कर यदि अभ्यास कर रहे हों,वैसी स्थिति में सीधे अर्थिंग लेने से बचे,यानी पैर में चप्पल वगैरह पहन रहें। अन्यथा ऊर्जा-प्रवाह शरीर से होकर गुजरता रहेगा,और इसका उचित लाभ आपको नहीं मिलेगा, बल्कि नुकसान हो जा सकता है।
अभ्यास 1)––  अभ्यास के प्रारम्भ में आपको कुछ नहीं करना है। जीवन में अबतक आप बहुत कुछ करते आये हैं,बहुत व्यस्त रहे हैं,बेचैन रहे हैं। अतः थोड़ी देर के लिए मैं आपको कुछ न करने का अभ्यास करने कह रहा हूँ। चुप बैठ जायें- पलथीमार कर,चित्त लेटकर,या कुर्सी पर पांव लटकाये हुये- जैसी आपकी मर्ज़ी। आंखें बन्द कर लें। गहरी सांस लें,और छोड़ें भी गहरी ही। यह काम कम से कम पांच बार अवश्य करें। और फिर सामान्य हो जायें। आंखों को बन्द रखें,और अनुभव करें नथुनों में आती-जाती सांस का। देखने-जानने का प्रयास करें कि आपके शरीर में ये प्राणवायु कहां कैसे जा रहा है। बस देखते रहें,देखते रहें,देखते रहें। करना और कुछ नहीं है। समय के ज्ञान के लिए एलार्म का उपयोग कर सकते हैं। बैठकी की समाप्ति पर अचानक विस्तर से उठना उचित नहीं है। धीरे-धीरे आंखें खोलें। चेहरे पर हथेली फेरें। क्षण भर रुकें, फिर उठना हो तो उठें।
अभ्यास 2) ऊपर बताये गये अभ्यास 1 का ठीक से अभ्यास होजाने के बाद,इस अभ्यास का प्रारम्भ करना चाहिए। प्रारम्भिक अन्य वातें और नियम लगभग अभ्यास 1 की तरह ही है। प्रत्येक बैठकी में थोड़ी देर उसी भांति सांस का निरीक्षण करने के बाद,अनुभव करें कि सांस केवल फेफ़ड़े तक नहीं,बल्कि पेट में बिलकुल नाभी तक जा रहा है,और नाभी पर हल्का दस्तक देकर, थोड़ी देर बाद, पुनः वापस नथुने से बाहर निकल जा रहा है। इस क्रिया को आसानी से गिना भी जा सकता है,यानी कितनी बार सांस अन्दर गयी नाभी तक,और कितनी बार वापस लौट कर बाहर आयी।आप भावन करें कि स्वच्छ प्राणऊर्जा आपके भीतर प्रवेश कर रही है,और भीतर से वापसी में कूड़े-कचरे लेकर बाहर निकल जा रही है। इस भांति थोड़ी ही देर में काफी ताज़गी अनुभव करने लगेंगे। मन लग रहा हो तो अधिक देर तक भी किया जा सकता है। किन्तु जब चित्त(मन)चंचल होने लगे,तो उसके साथ जोर-जबरदस्ती न करें। धीरे-धीरे आंखें खोलें और हथेलियों से पूरे शरीर का स्पर्श करें,और जरा ठहर कर,तब आसन छोड़े।
 मैं पूरी उम्मीद के साथ कह सकता हूँ कि 1 से लेकर 100 तक की गिनती पूरी करनी मुश्किल हो जायेगी। इसके बीच ही नींद आने लगेगी। नींद न आने की बीमारी वाले लोगों के लिए यह बड़ा ही अद्भुत उपाय है। ध्यान देने की बात है कि ये क्रिया चित यानी पीठ के बल(बिना तकिये के)लेट कर भी किया जा सकता है। रात के समय किया जाने वाला अभ्यास सोकर ही करें। ताकि अच्छी नींद आये। उद्देश्य यदि ध्यान करना हो तो,चित्त को सदा चैतन्य रखें,और सोने से बचें। खुद को बारबार याद दिलाते रहे कि हमें सोना नहीं है,हम ध्यान का अभ्यास कर रहे हैं।
अभ्यास 3)–– ऊपर बताये गये अभ्यास 2 का ठीक से अभ्यास होजाने के बाद, इस अभ्यास का प्रारम्भ करना चाहिए। प्रारम्भिक अन्य वातें लगभग अभ्यास 1-2 की तरह ही है। प्रत्येक बैठकी में थोड़ी देर उसी भांति सांस का निरीक्षण करने के बाद,अब कल्पना में अपने मेरुदण्ड को देखने का प्रयास करें। और ये अनुभव करें कि सांस की गति उसके भीतर में हो रही है। नथुने से सांस भीतर जाकर,मेरुदण्ड के बिलकुल निचले हिस्से पर प्रहार कर रहा है,और पुनः उसी मार्ग से वापस आरहा है। इस प्रकार स्वांस के आवागमन का करीब आधे घंटे तक निरीक्षण करते रहें। मन लग रहा हो तो अधिक भी किया जा सकता है। उद्देश्य है- इस अभ्यास को अधिक से अधिक बढ़ाना। जब चित्त(मन)चंचल होने लगे,तो धीरे-धीरे आंखें खोलें और हथेलियों से पूरे शरीर का स्पर्श करें,और जरा ठहर कर,तब आसन छोड़े। ध्यान देने की बात है कि ये क्रिया चित यानी पीठ के बल(बिना तकिये के)लेट कर भी किया जा सकता है। लेट कर करने में एक खतरा ये भी है कि जल्दी ही नींद आने लग जाती है। अतः जिन्हें नींद न आने की बीमारी है,उनके लिए बहुत लाभ दायक है। उद्देश्य यदि ध्यान करना हो तो,चित्त को सदा चैतन्य रखें,और सोने से बंचे,खुद को बारबार याद दिलाते रहे कि हमें सोना नहीं है,हम ध्यान का अभ्यास कर रहे हैं।

ऊपर बताये गये तीनों अभ्यास का ठीक से अभ्यास सिद्ध होने में छः महीने से एक वर्ष तक लग सकते हैं। किन्तु ध्यान रहे,यदि आपने ईमानदारी से ये अभ्यास किये हैं,तो आपका जीवन ही बिलकुल बदल जा सकता है,यानी जो आज हैं,उससे अगले एक वर्ष वाद बिलकुल भिन्न होंगे। जीवन में सुख-शान्ति भरी होगी। निराशा बिलकुल नहीं होगी। किसी-किसी को तो महीने भर में ही चमत्कारिक लाभ दीखने लगता है। अभ्यास के बाद कैसा अनुभव हो रहा है,या कोई परेशानी हो रही है- आदि बातों की जानकारी समय-समय पर देते रहें,और जरुरत के मुताबिक और नये अभ्यास सीखें,और योगमार्ग में आगे बढ़ें। इन अभ्यासों को कोई भी कर सकता है। हां,स्त्रियों को महीने के पांच दिन विशेष अभ्यास नहीं करना चाहिए। लोब्लडप्रेशर या डायबिटी के रोगियों को बिना गुरु के निर्देशन का अभ्यास कदापि नहीं करना चाहिए।अस्तु।

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