विसर्जन का विकल्प

विसर्जन का विकल्प

अभी हाल में वाराणसी में गणेश-मूर्ति-विसर्जन को लेकर जो कुछ भी हुआ,उससे कई सवाल खड़े हो रहे हैं। स्वाभाविक है कि एक ही घटना को अलग-अलग दृष्टिकोण से देखने पर,दृश्य और उसका कारण भी अलग-अलग नजर आयेगा,भले ही घटना एक हो। ऐसे में दृश्य गौण हो जाता है,और दृष्टि महत्त्वपूर्ण बन जाती है,और आगे परिणाम भी दृष्टि से होने लगता है। दृश्य दृश्य ही बना रह जाता है।
इस पर सोचने-विचारने के कई पक्ष हो सकते हैं।राजनैतिक,सामाजिक,धार्मिक,न्यायिक, वैज्ञानिक इत्यादि। यहाँ इन्हीं पक्षों जरा विचार करते हैं।

सबसे पहले राजनैतिक पक्ष को ही लें- कितना घिनौना है यह कर्म- साधुसंत हो या कि आम जनता,पुलिस यह क्यों भूल जाती है कि वह नौकर है जनता का;और किसी नौकर का अपने मालिक पर लाठी भांजना न उसका अधिकार है,और कर्तव्य। पुलिस खुद को मुट्ठी भर दबंग,मूर्ख,भ्रष्ट मंत्रियों का सेवक खुद को क्यों समझे बैठी है?जनता का वह नौकर है,जनता ने अपनी सुरक्षा के लिए उसे नियुक्त किया है,उसी पर लाठी भांजने के लिए नहीं। उसे अपने कर्तव्य और अधिकार की समझ होनी चाहिए। जो वर्दी उसके आबरु को ढांके हुए है,जो वेतन उसे मिल रहा है,जिससे उसके बीबी-बच्चे पल रहे हैं, वह जनता के खून-पसीने की कमाई का अहम हिस्सा है। ‘न्याय’ ने भी ‘व्यवस्था’ को ये अधिकार नहीं दिया है,जो वह कर रहा है।क्या उग्र और अनियंत्रित हो रही भीड़ पर काबू पाने के लिए उसके पास अश्रुगैस या जल-फौब्बारे नहीं थे,सिर्फ लाठी ही थी?क्या वह इतना कर्तव्यनिष्ठ है कि सिनियर ने आदेश दिया और लाठी चलाने लगा? क्या सीनियर के आदेश से ही वह चौराहों पर उगाही भी करता है? ‘जनता की अदालत’ में वह जवाब दे इसका।

दूसरा पक्ष सामाजिक है।यह राजनैतिक से भी कहीं अधिक विचारणीय है। हम जरा सा मौका मिलते ही ‘आदमी’ से ‘भीड़’ क्यों बन जाते हैं? जब कि जानते हैं कि भीड़ कोई आदमी नहीं होता,वह सिर्फ भीड़ होती है,आदमियत कहीं गायब हो जाती है,भीड़ में खो जाती है। हम जरा सी बात पर हैवानियत के लिए उतारु हो जाते हैं। तोड़फोड़,दंगे, फशाद,  हुड़दंगयी को स्वतन्त्रता का पहला अधिकार मान लेते हैं। किसने दिया अधिकार, हमें ये सब करने का? अधिकार और कर्तव्य की सीमा से बाहर जायेंगे, तो वही होगा जो आये दिन किसी जलसे-जुलूस में हो रहा है।हम अनियंत्रित होंगे तो हमारा नौकर भी वही करेगा,जो आये दिन कर रहा है। हम मालिक हैं,मालिक की गरिमा तो समझनी ही होगी न ! मर्यादा का पालन करना होगा न !

और तीसरा, धार्मिक पक्ष तो सर्वाधिक विचारणीय है। हम धर्मप्राण देश के वासी हैं। धर्म की परिभाषा तो ज्ञात होनी ही चाहिए। धर्म के नाम पर अधर्म का तांडव क्यों कर रहे हैं? हम अपने आप से सवाल करें- क्या धार्मिक हैं? हैं तो कितने धार्मिक हैं? पूजा समारोहों में पाश्चात्य भोड़े डीजे के कर्कश धुन पर थिरकते हुये युवक,और अब तो युवतियां भी...क्या आपको धार्मिक नजर आते हैं- ये मटकते कमर? पूजा पंडालों में हाईफ्रिक्वेंसी स्पीकर से अश्लील गानों के कानफोडू आवाज निकालते समय क्या हम सोचते हैं कि पड़ोस में कोई दिल का गम्भीर मरीज भी हो सकता है,किसी के घर मातम भी मनाया जा रहा होगा ? पूजा समारोह के नाम पर भक्ति कम,आडम्बर और व्यवसाय अधिक हो रहा है।अभद्रता पूर्वक तसीले गये चन्दे का कौन सा हिस्सा पूजा-सामग्री पर खर्च किया जाता है? सच पूछें तो विविध प्रकार के समाजिक समारोह के आयोजन की गरिमा को समझने की जरुरत है। उसके महत्त्व और क्रिया पर ध्यान देने की जरुरत है। शास्त्रीय सामाजिक समारोहों का वहुआयामी पहलु है। आयोजन को समायोजन रहने दिया जाय,नासमझों का भीड बनने से बचाया जाय।

पर्यावरणीय पक्ष भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है,बल्कि वर्तमान के संदर्भ में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कह सकते हैं,क्यों कि विकास के जुनून में मानव ने प्रकृति के साथ बहुत अन्याय किया है,और निरंतर करता भी जा रहा है।अभी हाल की दो घटनायें- नेपाल का भूकम्प और उत्तराखंड का भूस्खलन इसका ताजा उदाहरण है। नदी,पहाड़,जंगल,जीव-जन्तु,यहां तक कि जीवाणु और कीटाणु भी प्रकृति-परिवार के अहम हिस्से हैं,जो निरंतर उसके संतुलन में सहयोगी हैं।प्रकृति अपने आप में सबसे बड़ी संतुलिका,संयोजिका, और व्यवस्थापिका है।सृष्टि-संरचना का गहन ज्ञान नहीं होने के कारण,और एक पक्षीय ज्ञान रखने के कारण प्रायः हम मित्र को भी परम शत्रु समझ लेने की भूल कर बैठते हैं। प्रकृति-परिवार के बहुत से सदस्यों के साथ हमने यही व्यवहार किया है। प्रकृति में विकृति पैदा करने,और उसका दोहन करने में हमने कोई कसर नहीं छोडा है।भूमि तो भूमि,आकाश और पाताल तक को भी हमने नहीं वक्शा। ‘ओजोन’ के मरम्मत के लिए वैज्ञानिक प्रयास हो रहे हैं,किन्तु वह और भी विकृत न हो उसकी व्यवस्था पर ध्यान नहीं जा रहा है।भूगर्भ से अधिकाधिक तेल-गैस निकाल कर जमीन पर लाते हैं,और फिर उनसे जहर बना कर आकाश के हवाले कर देते हैं-इस पर विचार नहीं हो रहा है। ये  ‘नो कार डे’ का ड्रामा कितना कारगर होगा? अरे भई! बूढे ऋषियों की बात तो नहीं सुने,नये वैज्ञानिकों की बात तो सुन लें कम से कम।

अब जरा न्याय-पक्ष की बात करते हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने आदेश दे दिया कि बनारस में मूर्ति विसर्जन न हो,इससे गंगा प्रदूषित हो रही है। यानी कि मूर्तियों में अधिक दूषित पदार्थ हैं अपेक्षाकृत चमड़ा फैक्ट्री के कचरे से? अब भला ऐसी मुंहदेखी न्यायालय भी करेगा तो जनाक्रोश तो होगा ही न?

क्या इसे राष्ट्रीय पक्ष से देखूँ ? इन मूर्तियों के विसर्जन से राष्ट्रीय आय में बढ़ोत्तरी नहीं होती,जब कि चमड़ा फैक्ट्री से बड़े व्यवसायी से लेकर,आम मजदूरों और राष्ट्र तक को लाभ है- क्या यही सोच कर न्यायालय उस पर विचार करना व्यर्थ समझी?
विधायिका यह नियम क्यों नहीं बना देती कि किसी भी नदी में किसी तरह का कचरा डालना दण्डनीय अपराध है? वैसे सिर्फ नियम बना देने भर से कुछ विशेष होना-जाना नहीं है। नियम तो हजारों बने हैं,जिनका पालन चेहरा देखकर किया जाता है। अतः जो नियम बने हैं,उन्हीं का कठोरता और ईमानदारी से पालन होना, कम नहीं है। कचरे के रिसॉयकलिंग के नियम जो बने हैं,उन्हें ही कठोरता से लागू कर दिया जाय तो नदियां यूं ही स्वच्छ हो जायेगी,और सफाई के नाम पर अरबों का राष्ट्रीय क्षति भी बच जायेगा।

क्या ही अच्छा होता जल संरक्षण हेतु हर गांव,नगर,महानगरों में तालाब बनाये जाते, मूर्ति का विसर्जन वहीं किया जाता। तालाबों में मत्स्य-पालन होता,सिंघाडे,कमल आदि जलीय कृषि से किसानों के आय में वृद्धि होती। यहाँ तथाकथित धार्मिकों को यह नहीं कहना चाहिये कि विसर्जन तो सिर्फ गंगा या अन्य नदियों में ही करने का शास्त्रीय विधान है; हम अपने प्रियजनों की अस्थियां यहाँ-वहां कैसे फेंक दें?
दरअसल हम शास्त्रों की आधी-अधूरी बातों को जान कर, पूरा समझने का भ्रम पाल लेते हैं। गंगा में अस्थि-प्रवाह गंगा के प्रति आस्था और श्रद्धा का द्योतक है। ऐसा नहीं कि उसमें अस्थि डालने से प्राणी की मुक्ति हो जायेगी। प्राणी की मुक्ति तो उसके अपने कर्म पर निर्भर है। गंगा में डूबे रहने मात्र से यदि ऐसा होना होता तो मेढ़क,मछली,घड़ियाल सब मुक्त हो गये रहते।

और अन्त में मूल बात,जहां से ये बात शुरु हुयी- एक ओर गंगा इत्यादि नदियों की सफाई की बात हो रही है,और दूसरी ओर प्राकृतिक जलस्रोतों को गांव-शहर के नाले का विसर्जन-क्षेत्र बना दे रहे हैं। लाखों टन कचरे प्रवाहित किये जा रहे हैं; और हम सरकार का मुंह देख रहे हैं। आसान तो यही होगा कि सफाई की चिन्ता न करें,प्रकृति वह काम खुद कर लेगी। हम सिर्फ उसे और गंदा होने से बचावें। अस्थि-विसर्जन से लेकर मूर्ति-विसर्जन तक का विकल्प तलाशें- सच्चे धार्मिक का यही कर्तव्य है।  अस्तु।


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