जन्माष्टमी पर विशेष पोस्ट


जन्माष्टमी पर विशेष पोस्ट-





 मेघैर्मेदुरमम्बरं वनभुवः श्यामास्तमालद्रुमैर्नक्तं भीरुरयं त्वमेव तदिमं राधे ! गृहं प्रापय। इत्थं नन्दनिदेशतश्चलितयोः प्रत्यध्वकुञ्जद्रुमं राधामाधवयोर्जयन्ति यमुनाकूले रहः केलयः।। भक्तकवि जयदेव के अहोभावमय इन ललित पंक्तियों का तनिक रसास्वादन करें—एक बार नन्दजी गौवों को लेकर भाण्डीरवन में विचरण कर रहे थे। साथ में शिशु श्रीकृष्ण भी थे- बिलकुल छोटे,अभी अपने पांवों से चलने में भी असमर्थ। तभी अचानक आकाश में मेघ घुमड़-घुमड़कर गर्जन-तर्जन करने लगे। घोर गर्जना से भयभीत श्रीकृष्ण नन्दबाबा के गले से चिपट गये,और जोर-जोर से रोने लगे। नन्दजी चिन्तित हो उठे कि गौवों को सम्भालूं या रोते श्रीकृष्ण को। गोद में चिपकाये कृष्ण को पुचकारते हुए चुप कराने का प्रयास करने लगे,और पराम्बा का ध्यान भी-  ‘हे महाशक्ति ! तुम जरा थिर हो जाओ,मेरा बालक भयभीत हो रहा है।’ तभी एकाएक राधा प्रकट हुयी। राधा का यह स्वरुप अतिशय दिव्य था। अपने परममित्र वृषभानु की लाडिली राधा को नन्द कई बार देख चुके थे,किन्तु आज सामने खड़ी मन्द स्मिता राधा का रुपलावण्य विलक्षण था। कुछ पल अपलक उसे निहारते रहे,और फिर जब ‘स्व’ का भान हुआ तो हर्षित होते हुए बोले- ‘तूने मेरी समस्या का निवारण कर दिया। जाओ कृष्ण को मैया यशोदा के पास पहुँचा दो। मैं भी गौवों को लेकर आता हूँ।’
चुंकि राधा कृष्ण से  काफी बड़ी हैं,अतः उन्हें चतुर जान,नन्दजी ने राधा की गोद में कृष्ण को दे दिया। राधा तो चाहती ही थी,कुछ ऐसा अवसर मिले- कृष्ण के एकान्त सेवन का। नन्दबाबा का आदेश मिलते ही राधा चल पड़ी कृष्ण को लेकर,उनके घर पहुँचाने। कैसी विलक्षण लीला है कृष्ण की- महान भय को भी भयभीत करने वाले त्रिलोकपति, मेघ से भयभीत हो रहे हैं।
अब देखिये आगे की लीला- नन्द की गोद से निकल कर राधा की गोद में आरुढ कृष्ण चल दिये,सो चल दिये। इस सम्बन्ध में कृष्ण का हृदय कहा जाने वाला श्रीमद्भागवत तो मौन है लगभग, राधा का स्पष्ट नामोच्चारण भी नहीं हुआ है वहां; किन्तु ब्रह्मवैवर्तपुराण, श्रीकृष्णजन्मखण्ड, अध्याय १५ में वर्णन है कि उसी नन्द-गृह-यात्रा के बीच मार्ग में अनेक लीलायें हुयी। शिशु कृष्ण को गोद में चिपकाये,चूमती,सहलाती राधा गजगामिनी सी चली जा रही हैं, तभी अचानक कृष्ण गायब हो जाते हैं- राधा की गोद खाली हो जाती है। हिरणी सी चंचल राधा की आंखें वन में इधर-उधर ढूढने लगती हैं कृष्ण को। थोड़ी देर बाद किशोर कृष्ण नजर आते हैं,जिनके हाथों में मुरली है,मोर मुकुट है माथे पर,और त्रिभंगलिलत मुद्रा में खड़े,मुस्कुरा रहे हैं राधा की ओर देखकर। विरह-व्याकुल राधा दौड़ कर लिपट पड़ती है बांकेबिहारी से। थोड़ी देर तक उलाहनों-शिकायतों का सिलसिला चलता है। श्रीकृष्ण राधा को गोलोकधाम का स्मरण दिलाते हैं,अपनी अन्तरंगाशक्ति राधा का भेद याद दिलाते हैं।अभेद को भी भेद भान होता है क्षण भर के लिए,और फिर माया का डोर खिंच जाता है.सब कुछ पूर्ववत हो जाता है।
उसी समय चतुरानन ब्रह्मा प्रकट होते हैं। राधा-कृष्ण की आमगविधि से स्तुति करते हैं, और आगे की लीलाओं के लिए निवेदन करते हैं। क्षण भर में दृश्य परिवर्तित हो जाता है। रत्नमंडप सज जाता है। देव,यक्ष,गन्धर्व,किन्नर,अप्सरायें सभी उपस्थित हो जाते हैं। एक साथ पिता और पुरोहित दोनों का कार्यभार सम्भालते हुये ब्रह्माजी राधा का कन्यादान करते हैं,और परम निर्बन्ध श्रीकृष्ण-राधा को वैवाहिक बन्धन में बांध कर पिता बन कर आशीष भी देते हैं,और पुरोहित के रुप में ‘अक्षय भक्ति’ की दक्षिणा भी मांगते हैं।
फिर मिलययामिनी की दिव्य शैय्या सजती है। कृष्ण पान खिलाते हैं अपनी प्रियतमा को,राधा भी पान खिलाती हैं अपने प्रियतम को। दोनों आलिंगनवद्ध होते हैं,और तभी पुनः छलिया छल कर जाता है। राधा स्वयं को बिलकुल अकेली, घोर वन में खड़ी पाती हैं। गोद में रुदन करते शिशु कृष्ण की करुण चित्कार से जंगल गुंजायमान हो रहा है। तेजी से पग बढ़ाती राधा नन्दगृह की ओर लपक पड़ती है। नन्दगृह में पहुँच कर, मैया यशोदा की गोद में कृष्ण को सौंपती हुयी उदास राधा कहती हैं- आज तुम्हारे लल्ला ने मुझे बहुत सताया । अस्तु।

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