एडीएचडीःसमस्या-समाधान

                                                    एडीएचडीःसमस्या-समाधान
    परिचय—   एडीएचडी-Attention Deficit High per activity Disorder कोई नयी समस्या नहीं है,किन्तु वर्तमान समय में,बहुत तेजी से इसका विकास हो रहा है। आयुर्वेद के अनुसार, यह एक प्रकार की ‘आधि’ Mental Ailment (मानसिक व्याधि) है,जो मुख्य रुप से बच्चों में पायी जाती है। शैशवावस्था पार करते ही इसके लक्षण उभरने लगते हैं, जिसे आसानी से पहचाना जा सकता है। बच्चों में चंचलता,अस्थिरता,असावधानी,किंचित आवेग,जिद्द,विह्वलता आदि सहज रुप से पाये जाते हैं,जिन्हें वाल-सुलभ-गुण या कहें वाल-प्रकृति के रुप में ही देखा जाता है,किन्तु यदि ये ही बातें किसी बच्चे में ‘अति’ हो जायें,तो ‘अति सर्वत्र वर्जयेत’ सूत्र के अनुसार प्रकृति नहीं,प्रत्युत विकृति ही कही जायेगी। एडीएचडी के शिकार बच्चों में आवेग, अतिसक्रियता और ध्यान का भटकाव- तीनों ही लगभग एक साथ पाये जा सकते हैं, एक-एक भी हो सकते हैं,या तीनों की मात्रा न्यूनाधिक भी हो सकती है।
ध्यातव्य है कि सहज वाल-प्रकृति को ही हम विकृति मान बैठने की भूल न करें,और ठीक इसके विपरीत- विकृति को भी लाढ़-प्यार वस बच्चे का स्वभाव मान कर निश्चिन्त न हो जायें। ऐसे में प्रश्न उठता है कि आम माता-पिता क्या करें? सच पूछे तो चिकित्सकों के लिए भी आसानी से इसका निदान सम्भव नहीं। लम्बे समय तक,नियमित अध्ययन और परीक्षण से ही किसी निश्चय पर पहुँचा जा सकता है।
एसोचैम के रिपोर्ट के अनुसार सन् २००५ में मात्र ४% बच्चों में पाया जाता था,जबकि सन् २०११ आते-आते ११% होगया,यानी १७५% की बढ़ोत्तरी हुई। चौंकाने वाला यह आंकड़ा देश के लिए चिन्ता का विषय है। वैसे भी हमारे देश में गरीबी और कुपोषण का बाहुल्य है,जो एक अलग तरह की समस्या है;किन्तु एडीएचडी का सम्बन्ध उक्त दोनों से नहीं है,ये बिलकुल भिन्न है।
     हालाकि यह मुख्य रुप से बच्चों की ही समस्या है,किन्तु कभी-कभी किशोरों और युवाओं में भी लक्षित हो जाता है;और उनकी समस्या का निदान और निवारण बच्चों की तुलना में और भी जटिल हो जाता है।
कारण— आधुनिक चिकित्सा विज्ञान को इसका स्पष्ट/निश्चित कारण ज्ञात नहीं है। सम्भावित कारणों में कुछ ध्यान देने योग्य हैं-
Ø आनुवंशिक- कुछ परिवारों में यह वंशानुगत पाया जाता है,जो आगे चलकर या तो स्वतः सुधर जाता है,या कम प्रभावी होकर,बरकरार रहता है। हां,यह कोई जरुरी नहीं कि पिता को हो तो पुत्र को भी हो ही जाय;किन्तु पीढ़ी अन्तराल से भी प्रकट होता है।
Ø परिवेशीय- 1.आधुनिक रहन-सहन,खान-पान इसके लिए काफी हद तक,जिम्मेवार कहा जा सकता है।
Ø 2.गर्भावस्था में सिगरेट,शराब,रासायनिक खाद्य-पदार्थ के सेवन से, होने वाले बच्चे प्रभावित होते हैं। किसी भी प्रकार का धुम्रपान सिर्फ माता के लिए ही वर्जित नहीं है,बल्कि घर में कोई भी धूम्रपान करता है,तो इसका भी दुष्प्रभाव उतना ही है।
Ø 3.जल,या अन्य माध्यमों से शरीर में लेड(शीशा)की मात्रा का प्रवेश भी कारण बनता है।
Ø 4.आधुनिक खान-पान(मैगी,चाऊमीन,शीतल पेय से लेकर जैम,जैली,सॉस तक) में भारी मात्रा में विविध प्रकार के घातक रसायनों का प्रयोग धड़ल्ले से हो रहा है- यह बहुत बड़ा कारण है।
Ø 5.आधुनिक जीवन-शैली(विशेष कर गर्भावस्था में) घातक है।
Ø 6.अतिशय प्रतिद्वन्द्विता सहित पाठ्य शैली भी काफी हद तक जिम्मेवार है।
Ø असामयिक जन्म- समय से पहले(छठे,सातवे,आठवें महीनें में)बच्चे का जन्म होना भी प्रमुख कारणों में आता है। भले ही उसे इन्क्यूबेटर में रखकर पोषित क्यों न कर लिया जाता हो।
Ø मस्तिक-आघात- मस्तिष्क के अग्रभाग(front lobe) में चोट लगने के कारण भी इसके लक्षण उभर सकते हैं।
Ø रासायनिक असन्तुलन- मस्तिष्क के रसायनिक असन्तुलन से भी इसके लक्षण उभर सकते हैं।
लक्षण— एडीएचडी से प्रभावित बच्चों में मुख्य रुप से दो प्रकार के लक्षण पाये जाते हैं-1.ध्यान(एकाग्रता का अभाव,या कमी) 2.अतिसक्रियता । इन्हीं दो मुख्य लक्षणों के अन्तर्गत अन्य सह-लक्षण भी लक्षित होते रहते हैं।यथा-
v एक काम करते-करते दूसरे काम की ओर खिंच जाना।
v अस्वाभाविक रुप से ध्यान भटकना।
v दिनचर्या बिलकुल असंतुलित,अनियमित होना।
v किसी कार्य को ठीक से न कर पाना- खाना-पीना,पढ़ना-लिखना,खेल-कूद,बातचित।
v सुझाव-संकेत,निर्देश,आदेश आदि का सही प्रभाव न पड़ना।
v रुचिकर कार्य में भी मन स्थिर न रहना।
v उपयोग में लायी जाने वस्तुओं का बारबार खोना।
v तोड़-फोड़,विखराव जैसी प्रवृत्ति।
v किसी बात को ध्यान से न सुनना।
v सामान्य दिमागी काम को भी सही अन्जाम न दे पाना।
v एक स्थान पर क्षण भर भी स्थिर न बैठ पाना।
v कुर्सी,मेज आदि पर बैठे हुए भी हिलते-डुलते रहना।
v अकारण बोलना,जोर से बोलना,चीखना-चिल्लाना,रोना-धोना,बात बात में पटकाना,लोटना।
v सामान्य स्थिति में भी जिद्द करना।
v बिना सोचे-समझे कोई काम कर बैठना।
v किसी बात में अधीरता,बेचैनी।
v अति आवेग।
v अतिशय गतिशीलता।
माता-पिता-अभिभावक की भूमिका-
     1.            ढाई-तीन वर्ष के बच्चे में यदि उक्त लक्षणों का बाहुल्य हो(सामान्य से अधिक),तो सर्वप्रथम किसी विशेषज्ञ की राय अवश्य लें।
     2.            बच्चे की दिनचर्या निश्चित करें- कि उसे कब क्या करना चाहिए,और सावधानी पूर्वक उसका पालन करवाने का प्रयास करेँ।
     3.            अच्छे काम की प्रशंसा करके उत्साहित अवश्य करें।किन्तु बातबात में ,जैसा कि आजकल का फैशन सा हो गया है- अनावश्यक प्रशंसित करना उचित नहीं है। बच्चे को हताश-निराश भी न करें,और न अति प्रशंसित भी न करें।
     4.            प्रतिद्वन्द्विता आज के समाज में एक विकृति का रुप ले चुकी है। अच्छे परफॉर्मेन्स के लिए बच्चे पर दबाव न डालेँ।
     5.            प्राकृतिक रुप से,स्वाभाविक तौर पर शारीरीक और मानसिक विकास होने दें।
     6.            टी.वी.का विज्ञापन देखकर,चटपट बच्चों के विकास के लिए विविध पदार्थों का चयन न करें।
     7.            जहां तक हो सके शुद्ध,और प्राकृतिक आहार पर बल दें।
     8.            अपनी दबी,अपूरित लालसा के लिए बच्चे को मोहरा न बनायें।
     9.            विकास में सहयोगी बने,उत्प्रेरक नहीं।
10.            टी.वी.,मोबाइल आदि आधुनिक उपकरणों के उपयोग-प्रयोग पर सतर्कता और सावधानी बरतें।
11.            भोजन की मात्रा,और संख्या का भी ध्यान रखें। बहुत अधिक खाना,या बहुत कम खाना दोनों अनुचित है।
12.            बच्चे में आत्मविश्वास को जगाने का प्रयास करें।
13.            अपना क्रोध उस पर कदापि न निकालें।
14.            जहां तक हो सके,बच्चे को बिलकुल अकेला न छोड़े।
15.            पारिवारिक लाढ़-प्यार समुचित रुप से दिया जाय। आधुनिक परिवारों में इसका नितान्त अभाव दीख रहा है।या तो अति लाढ-दुलार मिलता है,या बिलकुल नहीं मिल पाता।
16.            माता-पिता दोनों के कामकाजी होने पर समस्या और गहरी हो जाती है- इसका ध्यान रखें।
उपचार और निवारण—
v पारिवारिक,सामाजिक और व्यावहारिक शिक्षा दी जाय।
v सामूहिक वातावरण में खेल-कूद,पठन-पाठन की व्यवस्था हो।
v स्थिति और आवश्यकतानुसार इन्डोर-आउटडोर खेल,नृत्य-गीत आदि में बच्चा भाग ले।
v विशेष परिस्थिति में स्टिमुलेन्ट मेडिकेशन अति सावधानी से,और दक्ष चिकित्सक के देख-रेख में होनी चाहिए।
v साइकोथेरापी,विहेवियरल थेरापी भी कारगर होता है।
v गहन योग की आवश्यकता नहीं है,किन्तु सामान्य तौर पर सरल श्वांस प्रक्रिया,और सामान्य एकग्रता सिखलायी जानी चाहिए।जैसे- गहरी सांस लेना-छोड़ना,आँखें बन्द करके थोड़ी देर बैठना,स्वच्छ हवा में दौड़ना,टहलना,खेलना आदि।
v एक्यूप्रेशर थेरापी में हाथ और पैर की सभी अँगुलियों के अग्रभाग पर वीस-पचीस बार सुबह-शाम दबाव देना,काफी लाभदायक सिद्ध होता है। चारों अंगूठों पर विशेष ध्यान दें।अंगूठे में ही पिनियल,पिट्यूट्री,और मानसग्रंथियों के केन्द्र विन्दु हैँ।
v आयुर्वेद में असगन्ध,निशोथ,जटामांसी,मुनक्का,शतावरी,ब्राह्भी,शंखपुष्पी आदि का प्रयोग योग्य वैद्य के निर्देंशन में कराना लाभदायक होता है।
v बच्चे की जन्म कुण्डली का विचार करके- यदि चन्द्रमा और मंगल की स्थिति सही है,तो मूंगा और मोती दोनों या कोई एक, गले में धारण कराना भी लाभदायक होता है। प्रायः देखा जाता है कि नीच या दुर्बल चन्द्रमा और मंगल के होने पर ऐसी स्थिति आती है।
निष्कर्षः-सही समय पर सही निदान और उपचार होजाने से यह बीमारी बिलकुल ठीक हो जाती है। बच्चों की तुलना में बयस्कों को ठीक होने में अधिक समय लगता है। उनके लिये गहन योग का प्रयोग सर्वाधिक आवश्यक है। प्राणायाम,और ध्यान के विविध प्रयोग लाभदायक होते हैं,जो योग्य निर्देशक के देख-रेख में ही उचित है। आयुर्वेदिक,और अन्य उपचार भी कारगर हैं।अस्तु।

                             -----()()-----

टिप्पणियाँ

लोकप्रिय पोस्ट