मातृका ग्रन्थि :: एक उपेक्षित अंग
मातृका
ग्रन्थि :: एक उपेक्षित अंग
मानव
शरीर एक अजायबघर और चिड़ियाखाना दोनों है,एक अभेद्य दुर्ग,और एक अद्भुत कारखाना
भी। इसके अन्तर्गत भौतिक-अभौतिक,जैविक-रासायनिक,जितनी भी क्रियायें
निरन्तर,निर्बाध रुप से हो रही हैं,उन्हें बाह्यतल पर समग्र रुप से प्रदर्शित करने
हेतु दस-बीस मील,क्षेत्रफल विस्तार में अत्याधुनिक संयंत्रों की स्थापना करनी
होगी,तब भी शायद सिर्फ भौतिक आयाम को ही देख पायेंगे हम। योग और तन्त्र की तो बात
ही यहाँ फिजूल है,वो तो भूतातीत है।
मानव
शरीर में बहुत सी अन्तःस्रावी ग्रन्थियां(Endocrine gland)हैं,जिनमें एक है- मातृकाग्रन्थी। अंग्रेजी में इसे Thymus Gland कहते हैं। इसकी अवस्थिति दोनों ओर की पर्शुकाओं (पसलियां)(Ribes) के बिभाजन विन्दु के ठीक बीच में घुण्डीदार रुप में होती है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान कहता है कि इसका
उपयोग मानव शरीर में सिर्फ सत्रह-अठारह वर्षों तक ही है,या उससे भी कम। इसके पश्चात् वह निष्क्रिय हो जाती है। फलतः
कायगत, अन्य अन्तःस्रावी ग्रन्थियों
की तुलना में यह उपेक्षित सा है। आन्त्रपुच्छ-(Appendix) को तो डार्विन-विकासवादी वैज्ञानिकों ने चौपायों का अवशेष घोषित
करके,निरस्त ही कर दिया है,नतीजन इसे वाल्यावस्था में भी निकाल फेंकने का सुझाव दे
दिया जाता है। खैरियत है कि मातृकाग्रन्थि पर अभी ऐसा फरमान लागू नहीं हुआ है। नीचे दिये गये चित्र में इसे लाल रंगों में
चित्रित किया गया है।
शैशवावस्था
से लेकर किशोरावस्था पर्यन्त,
विकास और संरक्षण में इस ग्रन्थि का विशेष योगदान है। कभी-कभी इसकी निष्क्रियता का
भारी खामियाजा भुगतना पड़ता है। यूँ
तो विकास में पीयूष और
अवटुका ग्रन्थियों(Pituitary
& Thyroid glands)
का भी महत योगदान है,फिर भी मातृकाग्रन्थि अतुलनीय है।
यहाँ
एक अद्भुत प्रयोग की चर्चा कर रहा हूँ। इसे विशेष कर, बालक की माता द्वारा ही प्रयोग
किया जाय। वैसे इस प्रयोग को अन्य किसी के द्वारा भी किया जा सकता है,किन्तु माता
का प्रभाव अत्यधिक होगा,इसमें कोई दो राय नहीं।ध्यातव्य है कि प्रयोग करते समय
माता को भी बिलकुल शान्त-चित्त होना चाहिए,और बालक के कल्याण की कामना मन में हो।
प्रातः-सायं
पांच मिनट, नियमित रुप से कम से कम तीन माह (इच्छा,और आवश्यकतानुसार अधिक भी)तक
किया जाय। करना सिर्फ इतना ही है- माता अपनी दाहिनी हथेली को आशीर्वाद की मुद्रा
में बालक के सिर पर रखे,और बायें हाथ के अंगूठे से, चित्र में दर्शाये गये स्थान—
मातृकाग्रन्थी पर आहिस्ते-आहिस्ते दबाव डालें। बालक के मनोदैहिक विकास में बहुत
लाभ होगा। उदण्ड और मानसिक रुप से कमजोर बच्चों पर कुछ अधिक समय तक प्रयोग करना
चाहिए।
कुछ ऐसी ही विधि का
प्रयोग शिष्य के आध्यात्मिक विकास हेतु गुरु द्वारा भी किया जाता है,जिसमें स्थिति
और आवश्यकतानुसार दाहिने हाथ की मुद्रा और स्थान में परिवर्तन किया जाता है। इस
विषय में फिर कभी चर्चा होगी।अस्तु।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें