फल्गु दर्शन का दर्द
फल्गु
दर्शन का दर्द
आज
पुरुषोत्तमी एकादशी है- पैंतीस महीनों के पश्चात् आने वाला व्रत। मन में आया,तीर्थों
के तीर्थ ‘गयाजी’ में हूँ ; क्यों न पवित्र नदी फल्गु का दर्शन कर लूँ। डेरे
से मात्र चार मिनट तो दूर है- सीढ़िया घाट। नगर विधायक की कृपा से सुन्दर घाट बना
हुआ है,साथ ही सैकड़ों लोगों के बैठने की व्यवस्था – चबूतरे भी। हरिद्वार-वाराणसी
के तर्ज पर कुछ दिनों से खास तिथियों को महाआरती का आयोजन भी होने लगा है। ‘आर्द्रा’
बढ़िया बरस गया है,और ‘पुनर्वस’ भी। फल्गु उमड़ आयी होगी। सीता के शाप से
अल्पकालिक क्षमादान मिल गया होगा- ‘आजीवन’ से सिमट कर,मात्र एक वर्ष के लिए, ‘वृहन्नला’ के शाप की तरह।
प्रफुल्लित
मन से घाट पर पहुँचा। चबूतरों पर भक्तों के स्थान पर बकरियाँ बैठी थी। विधायक के नाम
का शिलापट्ट पान की पीकों से ढका था। सीढ़ियों के समीप मोटे-मोटे खूंटों में
सैकड़ों गाय-भैसें बंधी थी,कुछ ‘अनत्यज’ किस्म के चौपाये आवारगी भी कर रहे थे। नदी
के कलेवर का लगभग चतुर्थांश आरक्षित था- सुप्रिमकोर्ट से मान्यता प्राप्त ‘आरक्षकों’
और भूमाफियाओं द्वारा। अगले चतुर्थांश में पड़ोसी-भवनों के नालों का आधिपत्य है। आखिर
कहाँ जायें बेचारे नाले !
सुनते
हैं- ‘स्वच्छ भारत अभियान’ के विज्ञापन पर महज नव्वे करोड़ खर्च किये गये हैं।
सफाई का काम तो अब होगा न !
या ना भी हो
अभी,क्यों कि पानी नाक से अभी काफी नीचे है। ‘मन की बात’ से मन कितना साफ होगा,ये
तो पता नहीं;किन्तु इतना तो अवश्य पता होना चाहिए कि पत्थर की मूर्ति और ‘पनाले’ में
तब्दील फल्गु को आरती दिखाने से स्वर्ग का राजपथ प्रसस्त नहीं हो सकता ।
प्रकृति-पूजा-परम्परा का क्या यही अर्थ है? यदि
किसी को अर्थ मालूम हो,तो समझाने का कष्ट करें। मेरा मन तो खटास से भर उठा है।
डेरा वापस जा रहा हूँ। धन्यवाद।
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