योगदिवस



       योगेन चित्तस्य पदेन वाचां,मलं शरीरस्य च वैद्यकेन।
      योऽपाकरोत्तं प्रवरं मुनीनां,पतञ्जलिं प्राञ्जलिरानतोऽस्मि।।

२१ जून को अन्तर्राष्ट्रीय योग-दिवस के रुप में मनाने की घोषणा की गयी है- यह बड़े सौभाग्य की बात है। माननीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी का इसमें बहुत बड़ा योगदान है। योग को विश्व-फलक पर उतारने का श्लाघ्य और सफल प्रयास पिछले कुछ दशकों से बाबा रामदेव करते आ रहे हैं।इसके पूर्व अनेकानेक महापुरुषों का सम्यक् योगदान भी रहा है- इसमें कोई दो राय नहीं। आचार्च रजनीश तो आजीवन प्रवक्ता रहे- योग के। उनके बहुआयामी विषयों का मूल केन्द्र योग ही था,भले ही लोगों ने अपने-अपने चश्में से उन्हें देखने-समझने का प्रयास किया।
आज जिस कलेवर में ‘योग’ उभर कर सामने आ रहा है,योग के मौलिक अर्थ और उद्देश्य से उसका कोई विशेष सम्बन्ध प्रतीत नहीं हो रहा है;फिर भी हीरे का कण कंकड़ तो हो नहीं सकता;अतः जिसे,जितना,जो ग्रहण हो पारहा है,उसे ही सहर्ष अंगीकार करना चाहिए,साथ ही आगे की खोज भी जारी रखनी चाहिए। आज के भोग-बहुल युग में अनेकानेक रोगों का वाहुल्य है;और योग यदि इनसे हमें किंचित मात्र भी मुक्ति दिला सके,तो इसकी उपयोगिता और महत्ता स्वयं सिद्ध है। सचपूछें तो योग रोगमुक्ति का शास्त्र नहीं है। यह आयुर्विज्ञान नहीं है। मूल रुप से यह दर्शन भी नहीं है,भले ही विशेष कारणवश षडदर्शनों में समाहित कर लिया गया है।
योग का मौलिक अर्थ क्या है,प्रयोजन क्या है- यह गहन विचारणीय विन्दु है। फिर भी इतना तो तय है कि योग निषेधपरक न होकर,विधिपरक ही है। महर्षि पतञ्जलि ने योगसूत्र में योग का जो प्रारम्भिक वर्णन किया है- ‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः’-यह तो स्पष्टरुप से निषेधात्मक संकेत है,क्यों कि प्रारम्भिक अभ्यासी में योग के तात्विक स्वरुप को समझने की क्षमता का अभाव होता है।
वस्तुतः,विविध वृत्तियों के रुप में प्रतिक्षण उपक्षीयमाण जीवनी-शक्ति को स्वरुप में स्थिर करके,स्वयंप्रकाश आत्मा के स्वरुप को अनुभव करने की विशिष्ट कला का नाम ही योग है। अब इसे ‘समत्वं योग उच्यते’ कहें या कि ‘योगः कर्मसु कौशलम्

किंचित अज्ञानियों को इसमें सम्प्रदायिकता की दुर्गन्ध यदि मिले तो क्या कहा जाय? जब कि सच्चाई ये है कि सम्प्रदायिकता की मोटी-भोड़ी दीवार को ढाह देने का नाम ही योग है- यहीं से योगपथ की असली यात्रा शुरु होती है।अस्तु।

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