धर्मराज की न्यायव्यवस्था

धर्मराज की न्यायव्यवस्था

ऋषि माण्डव्य जन्मजात शूलविद्ध थे। उनके गुदामार्ग में एक शूल चुभा हुआ था,जो अतिशय कष्टकारक था। त्रिकालदर्शी ऋषि ने इस शूल का कारण जानना चाहा,तो धर्मराज ने चित्रगुप्त से परामर्श के पश्चात् जानकारी दी कि पूर्व जन्म में ऋषि माण्डव्य ने अपनी वाल्यावस्था में एक फतिंगे के गुदामार्ग में तिनका चुभोकर मार डाला था।

हत्या गैरइरादतन ही थी,वो भी वाल्यावस्था में,किन्तु सजा— इतनी कष्ट दायक,जिसे सुनकर ही दूसरों के रोंगटे खड़े हो जांय।

मौके-बेमौके ‘न्याय’ अपनी ही पीठ थपथपा लेता है,गौरव पूर्वक कहता है—मैं निपक्ष हूँ...मेरे द्वार सबके लिए खुले हैं।

जरा गौर फरमायें—ये वही न्याय है,जो सत्रह वर्ष ग्यारह महीने,उनतीस दिन,तेइस घंटे,उनसठ मिनट,उनसठ सेंकेन्ट के हैवान को भी नाबालिग कह कर वा-इज्जत वरी करता है...ये वही न्याय है जो ‘रब दी मर्जी’ से तेरह साल की किशोरी की दुःखद मृत्यु पर शोक भी प्रकट नहीं करता....ये वही न्याय है,जिसकी उच्चपीठिका से किसी को चन्द घंटों में मनचाही मुराद मिल जाती है और किसी की पीढियाँ तिरोहित हो जाती हैं- कुछ पाने की आश में....तो आइये हम सब मिल कर उस न्याय की पीठ थपथपायें,ताकि महामहिम को ये काम खुद करने का कष्ट न उठाना पड़ें...कष्ट के लिए तो हम हैं ही।   


धन्यवाद...आप यहाँ आये,इस पोस्ट को आपने देखा।

टिप्पणियाँ

लोकप्रिय पोस्ट