दाम्पत्यसुखप्राप्ति◌एक अद्भुत् प्रयोग
दाम्पत्यसुखप्राप्ति◌एक अद्भुत् प्रयोग
दाम्पत्यसुखप्राप्ति-
आज के अर्थ और स्वार्थ बहुल युग में ईश्वर की प्राप्ति तुल्य दुर्लभ होता जा रहा
है।इसके अन्य अनेक कारण भी हैं।जन्मकुण्डली जनित दोषों के कारण का निवारण विगत
आलेख में मैंने प्रस्तुत किया था, जिसकी काफी सराहना हुयी थी।पुनः एक प्रयोग यहाँ
सुझा रहा हूँ।
ध्यातव्य
है कि मन्त्र-श्लोकवद्ध है,जिसके लिए संस्कृत का अच्छा अभ्यास आवश्यक है। मांसाहारी
लोग (स्त्री-पुरुष) इस प्रयोग को स्वयं कदापि न करें,प्रत्युत किसी योग्य ब्राह्मण
से ही करावें। शाकाहारी लोग(स्त्री-पुरुष) इसे श्रद्धा-विश्वास पूर्वक स्वयं साध
सकते हैं, वा योग्य ब्राह्मण से करवा सकते
हैं। दूसरे से करवाने हेतु भी स्वयं की उपस्थिति(सुनने के लिए) अनिवार्य है। यह
बात भी ध्यान देने योग्य है कि पति-पत्नी के बीच तनाव की स्थिति कैसी है। यानी वे
दोनों साथ बैठ सकते हैं या नहीं। घोर तनाव की स्थिति में दोनों एकत्र बैठने की
मनःस्थिति में यदि न हों, तो दोनों में कोई एक जो अधिक प्रयासेच्छुक हो अकेले ही
बैठ कर सत्कामना तो कर ही सकता है।वस्तुतः यह मन्त्रजप नहीं,बल्कि मन्त्र-पाठ
है,जिसे ध्यान से सुनने की आवश्यकता है।
यह
क्रिया समय और श्रम साध्य है।स्वाभाविक है कि अर्थसाध्य भी होगा ही। न्यायालय में अधिकार
या विच्छेद की अर्जी लगाकर लोग वर्षों भटकते रहते हैं। समय-श्रम-धन सबकुछ खपाने के
बाद भी अनुकूल न्याय की प्राप्ति संदिग्ध रहती है। सबकुछ होकर भी,सुख नहीं है,तो
कुछभी किस काम का ? और यदि सुख है तो शेष कुछ नहीं, फिर भी बहुत कुछ है।सच्चाई यह
है कि किसी विकट कार्य की अचूक सिद्धि के सामने समय-श्रम-अर्थ सब तुच्छ हो जाते
हैं। अतः सुख-शान्ति हेतु दयानिधि मारुतिनन्दन के शरण में जायें,जो श्रीराम के
दुःखसागर को पाट सकते हैं,उनके लिए सामान्यजन के दुःख की क्या विसात ?
यह अचूक उपचार मात्र ग्यारह दिनों का है।विशेष परिस्थिति में ‘‘कलौसंख्या
चतुर्गुणः’’ के अनुसार,किंचित अन्तराल पर चार आवृति कर लेना श्रेयस्कर है। लागातार
चौआलिस दिनों का अनुष्ठान भी किया जा सकता है। किसी भी महीने (खरमास छोड़कर) के
शुक्ल पक्ष मंगलवार,वा अमृत सिद्धि, सर्वार्थ सिद्धि योग में प्रारम्भ किया जा
सकता है। अनुष्ठान रात्रि में भी किया जा सकता है।
चौआलिस दिनों का अनुष्ठान लेने पर स्त्रियों को मासिक धर्म सम्बन्धी
व्यवधान का सामना निश्चित रुप से करना पड़ेगा,अतः व्यावहारिक नहीं है। उचित होगा
कि रजोस्नान के पश्चात् (यानी सातवें दिन से) प्रारम्भ किया जाय। इस प्रकार चाहें
तो दो आवृति सहज ही हो जायेगा। अगले महीने पुनः दो आवृति सम्पन्न किया जा सकता है।
अनुष्ठान-विधिः-आचमन,प्राणायाम,आसनशुद्धि के पश्चात् संकल्प करें-
संकल्प-
ॐ अद्येत्यादि.......स्वकीय/यजमानस्य भार्यायां/भर्तरि प्रेमाविर्भाव
प्राप्त्यर्थं झटिति आनन्दप्राप्तिपूर्वकसंगमनार्थं च ॐ यथाहि वानरश्रेष्ठ
दुःखक्षयकरो भवेत्। त्वमस्मिन् कार्यनिर्वाहे प्रमाणं हरियूथपः।।
राघवस्त्वन्समारम्भान्मयि यत्नपरोभवेत्। काममस्य त्वमेवैकः कार्यस्य परिसाधने।
पर्याप्त परिवीरघ्न यशस्यस्ते फलोदयः।। एतयोर्द्वयोर्मन्त्रयोः
सर्गस्याद्यन्तयोः सम्पुटितपूर्वक श्री पवनसुत हनुमतः प्रीत्यर्थं एकादश दिवस
पर्यन्तं प्रतिदिनं श्रीवालमीकि रामायणस्य सप्तम्सर्गस्य पाठमहं करिष्ये/करिष्यामि।
नोट- पुष्पाक्षत लेकर उक्त संकल्प करे। ..... /
इन चिह्नों का ध्यान रखते हुए यथोचित
शब्द,नाम,गोत्रादि का प्रयोग करे।स्वयं के लिए करिष्ये और यजमान के लिए करिष्यामि
शब्द प्रयोग पर भी ध्यान दें।तिलतेल का रक्षादीप और घृत का साक्षीदीप भी अवश्य जला
लें।
अन्य आंगिक पूजन (गौरीगणेशनवग्रहादि,कलशादि) के
पश्चात् अञ्जना नन्दन का चित्र,(राम-लक्ष्मण को दोनों ओर कंधे पर विठाये हुए,या संजीवनी
लाते,पर्वत उठाये हुए)सामने पीठिका पर स्थापित कर पंचोपचोर पूजन करने के बाद श्रीवाल्मीकि
रामायण के सुन्दरकाण्ड का सम्पूर्ण पाठ करना है। ध्यातव्य है कि उक्त
सुन्दरकाण्ड में अड़सठ सर्ग हैं।प्रत्येक सर्ग के आदि और अन्त में
अग्रलिखित संकल्पित मन्त्र का सम्पुट अनिवार्य है। यानी अड़सठ गुणे दो बराबर एकसौछत्तीस
बार इस मन्त्र का पाठ भी संयुक्त होगा- मूलपाठ में।
मूलमन्त्र- ॐ यथाहि वानरश्रेष्ठ
दुःखक्षयकरो भवेत्। त्वमस्मिन् कार्यनिर्वाहे प्रमाणं हरियूथपः।।
राघवस्त्वन्समारम्भान्मयि यत्नपरोभवेत्। काममस्य त्वमेवैकः कार्यस्य परिसाधने।
पर्याप्त परिवीरघ्न यशस्यस्ते फलोदयः।।
नित्य पाठ समाप्ति के बाद
आरती कर,उस दिन की क्रिया समाप्त करे। नित्य नैवेद्य में भूना हुआ चना और गूड़ का
प्रयोग करे,तथा अन्तिम दिन शुद्धघी में तला हुआ गेंहू का आटा और गूड़ घी मिश्रित
ठेकुआ(रोट) का प्रयोग करे। अस्तु।
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