श्रीकृष्णसाधना-भाग चार

(४) श्री कृष्ण साधना- भाग चार
मुरली-रहस्य
श्रीकृष्ण का ‘द्विभुजमुरलीधर’ रुप ही पूर्णतम है- शेष का क्या? वे तो लीलाविलास मात्र हैं— पूर्ण और पूर्णतर मात्र;पूर्णतम कदापि नहीं।द्वारका के कृष्ण,मथुरा के कृष्ण और व्रजविहारी कृष्ण में क्रमिक भेद है-पूर्ण > पूर्णतर > पूर्णतम।
कृष्णस्य पूर्णतमता व्यक्ताऽभूद् गोकुलान्तरे। 
पूर्ण पूर्णतरता द्वारकामथुराऽऽदिषु।। (हरिभक्तिरसामृतसिन्धु)
पौराणिक प्रसंग है कि एक बार गिरिराज की उपत्यका में पारसौली नामक रासस्थली के कुंज में बांकेविहारी विराज रहे थे।प्रेम-विह्वल गोपियाँ उन्हें ढूढ़ती हुयी वहाँ पहुँच गयी। प्रेमातुराओं को देखकर,गोपीनाथ को परिहास सूझा,और चट अपना मुरलीधर रुप त्याग कर चतुर्भुज हो गये।गोपियाँ अचकचा गयीं।यहाँ तो ‘तुलसी’से भी विकट स्थिति हो गयी।तुलसी ने तो पहचान लिया था,अड़चन स्वीकारोक्ति में थी— कित मुरली कित चंद्रिका,कित गोपिअन का साथ।तुलसी मस्तक तब नवैं धनुष-वाण लेओ हाथ।। किन्तु यहाँ चतुर्भुज का अंगीकार तो दूर, पहचान भी अस्वीकार।त्रिलोकी के ‘प्रियतम’ से ही अपने ‘प्रियतम’ का पता पूछने लगीं ,और स्पष्टी के अभाव में,निराश गोपियाँ उन्हें अन्यत्र ढूढ़ने लगीं।तभी अचानक ‘रासेश्वरी’ का प्रवेश हुआ।परम अंतरंगा ‘स्व-रुप-शक्ति’ वृन्दावनेश्वरी,राजराजेश्वरी राधा के समक्ष कृष्ण का छद्म रुप कैसे टिक पाता?  चतुर्भज को तिरोहित हो जाना पड़ा। कहा गया है- भुजाचतुष्ट्यं क्वापि नर्मणा दर्शयन्नपि।वृन्दावनेश्वरी प्रेम्णा द्विभुजः क्रियते हरिः।। प्रेम के महामाधुर्य के समक्ष ऐश्वर्य का निर्वाह असम्भव है। वस्तुतः श्रीकृष्ण का परम अधिष्ठान तो उनका द्विभुज विग्रह ही है- निराकारो महाविष्णुः साकारोऽपि क्षणे क्षणे।यदा साकाररुपोऽसौ द्विभुजो मुरलीधरः।।(सर्वोल्लास तंत्र १६/४२)
श्रीकृष्ण का मुरलीधर नाम भी बड़ा गूढ़ है।मुरली एक सुषिर वाद्य है।वेणु,वंशी आदि इसके समकक्ष होकर भी आकारिक वैभिन्य वाले हैं- हस्तद्वयमितायामा मुखरन्ध्रसमन्विता।चतुःस्वरश्छिद्रयुक्ता मुरली चारुनादिनी।।—से इसे व्याख्यायित किया गया है।यहचारु’ नादवाली विशेष रुप से लम्बी है- दो हाथ लम्बी,जो मुखरन्ध्र सहित चार स्वरछिद्रयुक्त है।
वेणु का एक नाम ‘पाविक’ भी है।छः छिद्रों से युक्त बारह अंगुल लम्बाई वाला,स्थूलता में अंगुष्ठ परिमित,जैसा कि कहा गया है- पाविकाख्यो भवेद्वेणुर्द्वादशांगुलदैर्घ्यभाक्।स्थौल्येंऽगुष्ठमितः षड्भिरेष रंध्रैः समन्वितः।।
और वंशी —अर्धांगुलान्तरोन्मानं तारादिविवराष्टकम्।ततः सार्द्धांगुलाद्यत्र मुखरन्ध्रं तथांऽगुलम्।। शिरो वेदांगुलं पुच्छं त्र्यंगुलं सा तु वंशिका। नवरन्ध्रा स्मृता सप्तदशांगुलमिता बुधैः।। दशांगुलान्तरा स्याच्चेत् सा तारमुखरन्ध्रयोः। महानन्देति विख्याता तथा सम्मोहिनीति च।। भवेत् सूर्यांतरा सा चेत्तत आकर्षणी मता।आनन्दनी तदा वंशी भवेदिन्द्रान्तरा यदि।। (हरिभक्तिरसामृतसिन्धु)— आधे-आधे अंगुल के अन्तर पर तारादि अष्ट विवरों के बाद,डेढ़ अंगुल पर मुखरन्ध्र होता है इसमें,तथा शिरोभाग चार अंगुल और पुच्छ भाग तीन अंगुल मात्र।परिमितिक भेद से - नवरन्धों और, सत्रह अंगुल वाली वंशी को ‘वंशिका’ कहते है।किंचित आकारिक भेद से महानन्दा, संमोहिनी,आकर्षणी,आनन्दी आदि इसकी अन्य संज्ञायें भी हैं।वैसे महानन्दा तो संमोहिनी में ही समाहित है। थोड़े और गहराई में जायें तो कायिक भिन्नता भी लक्षित होती है-मणिमयी,हैमी(स्वर्णमयी)और वैणवी- यानि बाँस की बनी हुयी।
वंशी > वंशुली > वाँसुरी गोपांगनाओं को अतिशय प्रिय है।वावली वृषभानुनन्दिनी ने मचलकर कभी कहा था- ‘श्याम तेरी वंशी मैं नेकू बजाऊँ...तुम बनो वृषभानु नन्दिनी,मैं नन्दलाल कहाऊँ...।’ ‘श्रीराधाकृष्णगणोद्देशदीपिका’ में वंशी को ‘भुवनमोहिनी’ भी कहा गया है,जो रासेश्वरी के सुकोमल हृदमीन के लिए बडिशी(कांटा)का काम करता है। ध्यातव्य है कि ‘मीनहारी’- मछली मारने वाला जिस उपकरण का उपयोग करता है उसे भी ‘वंशी’ ही कहते हैं,जो जलक्रीड़ारत मछलियों की वेधिका है।प्रेमक्रीड़ा-विह्वल गोपांगनाओं के हृदय को बींधकर,कायसौष्ठव को ‘कर्षित’ कर लेता है जो, वह ‘वंशी’ ही है...राधाहृदयमीनबडीशी महानन्दा भिधाऽपि च...। छः रन्ध्रयुक्त इस वेणु की एक संज्ञा ‘मदनझंकृति’ भी है। क्यों न हो? कृष्ण का यह मोहक ध्यान किसी बडीशी से कम है क्या?
वंशीविभूषितकरान्नवनीरदाभात्,पीताम्बरादरुणबिम्बफलाधरोष्ठात्। पूर्णेन्दुसुन्दरमुखादरविन्दनेत्रात्,कृष्णात्परं किमपितत्त्वमहंनजाने।।
तथा च ‘वेणुगीत’ प्रसंग में शुकदेवजी की उक्ति- (श्रीमद्भागवत,१०-२१-५,६)-
वर्हापीडं नटवरवपुः कर्णयोः कर्णिकारं, विभ्रद् वासः कनककपिशं वैजयन्तीं च मालां। रन्ध्रान् वेणोरधरसुधया पूरयन् गोपवृन्दैर्वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद् गीतकीर्तिः।। इति वेणुरवं राजन् सर्वभूतमनोहरम्।श्रुत्वा व्रजस्त्रियःसर्वा वर्णयन्त्योऽभिरेभिरे।।
त्रिभंगललित मुद्रा में मन्दस्मित खड़े, नवनीरद आभावाले,पीताम्बरधारी नटवरनागर मुरलीमनोहर की सुपरिपक्व विम्बाफल(कुन्दरी)सदृश अधरोष्ठों पर विराजित वेणु में ‘क्लीँ..क्लीँ..क्लीँ’ महा सम्मोहन की झंकृति जब होती है,तो अनंग ‘मन्मथ’ का मन भी आलोड़ित हो उठता है,अन्य की क्या विसात? इतना ही नहीं,जो स्मरारि-शिव के मन को भी मथित कर दे— पीताम्बरधरः स्रग्वी साक्षान्मन्मथमन्मथ।(श्रीमद्भागवत,१०-३२-२)में शुकदेवजी का भाव सामान्य जन-मन-मन्थन कर्ता कामदेव के भी चित्त को मथित करने वाला स्वरुप-वर्णन है,जिसकी व्याख्या चैतन्यमार्गी प्रभुपाद श्रीजीवगोस्वामी किंचित भिन्न रीति से करते हैं।इनके अनुसार मन्मथ का पदच्छेद है—मद् मथ। ‘मदयतीति मदः’ वा ‘मथ्नातीति मथ्’ अर्थात् मदन को भी मथित करने वाले- रुद्र से अभिप्राय है।
वस्तुतः यहाँ बात इससे भी आगे बढ़ गयी है-असीम...निःसीम लंघन-प्रयास में है। सामान्य जन-मन को मथित करने वाले कामदेव को पराभूत किया शिव ने-स्वयं को कामजयी सिद्ध किया,किन्तु श्रीकृष्ण के मोहिनी रुप दर्शन ने उस कामजयी को भी मथित कर दिया। ओह ! कैसा अद्भुत-रोमांचकारी दृश्य रहा होगा- अपने ही वरदान से आवद्ध, भस्मासुर से भयभीत, भूतभावन भोलेनाथ का इतसततः भागना,और तभी अचानक मोहिनीरुप-प्राकट्य...।आद्यशंकरने आनन्दलहरी में इस मनोहारी क्षण को यूँ ग्रथित किया है-हरिस्त्वामाराध्य प्रणतजनसौभाग्यजननीं, पुरा नारी भूत्वा पुररिपुमपि क्षेभमनयत्....स्मरोऽपि त्वां नत्वा रतिनयनलेह्येन वपुषा,मुनीनामप्यन्तः प्रभवति हि मोहाय महताम्।।-ये स्तवन महात्रिपुरसुन्दरी के साथ-साथ श्रीकृष्ण के लिए भी उतना ही प्रासंगिक है।एक और प्रसंग- मोहिनीकृतकृष्णस्तोत्रम् में ...रतिबीज रतिस्वामिन् रतिप्रिय नमोऽस्तुते- कह कर स्तवन किया गया है।यह ‘रतिबीज’- कामराज ‘क्लीँ’ सरस रुप ही तो है ॐ का।ओंकार का उदात्तीकरण ही क्लींकार है। क्लींमोंकारं च एकत्वं पठ्यते ब्रह्मवादिभिः।(गोपालोत्तरतापिन्युपनिषद्) समस्त गायत्रियों का शिरमौर- कामगायत्री- क्लीँ कामदेवाय विद्महे पुष्पबाणाय धीमहि तन्नोऽनंगः प्रचोदयात् , और इस कामगायत्री का बीज क्लीँ - सर्वसार-निःसृतसार।इसकी विरुदावली के लिए कोई शब्द हो सकता है क्या? ‘वैखरी’ में सामर्थ कहाँ ? और ‘परा’ बहुत दूर है।
श्रीकृष्ण के प्रियतम राग—गौरी और गुर्जरी में,प्रियतमा-नाम— ‘राधा’ ही तो निरन्तर निर्झरित होते रहता है।कृष्ण की वंशी और कुछ नहीं कहती,बस प्रियतमा का नामजप मात्र करती है। महर्षि व्यास ने इस अलौकिक क्षण का अद्भुत चित्रण किया है।श्रीमद्भागवत का रास प्रसंग(स्कन्ध १०, अध्याय २९ से ३३)इस सम्बन्ध में गहन अवलोकनीय है।अनुभवी जन कहते हैं- रासपञ्चाध्यायी की चतुर्मासीय साधना से, उन्मुक्त ‘काम’ निर्मूल होता है।दमन तो प्रायः सभी साधक करते रहते हैं- आजीवन;शमन के इस अद्भुत रसायन का एक बार तो सेवन करके देखा जाय। एक बानगी यहाँ प्रस्तुत है—दृष्ट्वा कुमुद्वन्तमखण्डमण्डलं,रमाननाभं नवकुङ्कुमारुणम्।वनं च तत्कोमलगोभिरञ्जितं,जगौ कलं वामदृशां मनोहरम्।। (उक्त,श्लोक-३)। कितनी दक्षता पूर्वक व्यासजी यहाँ सबकुछ कह कर भी कुछ न कहने जैसा प्रतीत हो रहे हैं। इस गोपनतन्त्र का ही चमत्कार है कि विद्वत् जन भी प्रायः भ्रमित  होकर, साक्षात् श्रीकृष्णविग्रह-श्रीमद्भागवत में ‘राधा’ नाम की अप्राप्ति में उलझ जाते हैं।अब भला ‘गोस्तन क्षरित’ दुग्ध में किसी नादान बालक को घृत कहाँ से दीखे?
श्रीकृष्ण का चिदानन्दमय वेणु—‘व’+‘ई’+‘अणु’ यानि ब्रह्मानन्द+विषयानन्द दोनों को अणु(तुच्छ)करदे,या कहें- जिसके समक्ष दोनों तुच्छ हो जायें,जो परमानन्द का विधायक है- वह है वेणु- वेणुरिति वश्च इश्च वयौ स्वरुपानन्दविषयानन्दावणू यस्मात् स वेणुः। (श्रीमद्भागवत १०-१२-२)  ‘नादब्रह्म’ किंवा ‘शब्दब्रह्म’ का अधिष्ठान व प्रकाशक है- वेणु।यह नाद ही सृष्टि का बीज है,जो ‘प्रणव’ में अन्तर्निष्ठ है।नाद की अनन्त शक्तियां समाहित हैं इसमें।प्रथमस्पन्दन स्वरुप सृजनात्मक नाद प्रणव ही है। नाद ही किंचित स्थूल होकर शब्दब्रह्म- प्रणव में व्यक्त होता है,जो विन्दु स्वरुप वेद-बीज है, जिससे चौबीश अक्षरा त्रिपदा वेदमाता ‘गायत्री’ का स्फुरण होता है।‘क्लींकारी’ वेणु का माहात्म्य अनिर्वचनीय है।
नादब्रह्म > शब्दब्रह्म > प्रणव- निष्णात होकर ही परब्रह्मपरमात्मा की प्राप्तव्यता सिद्ध हो सकती है।यथा- द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये शब्दब्रह्म परं च यत्।शब्द ब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति।।(विष्णुपुराण ६/५/६४)
इस ‘शब्दतत्त्व’ को ही अनादि-अनन्त ब्रह्म कहा गया है-अनादि निधनं ब्रह्म शब्दत्त्वं यदक्षरम्।विवर्त्तते अर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः।। (वाक्यपदीय)
वस्तुतः यह शब्दतत्व-कुछ और नहीं, प्रत्युत ही है- ऐसा कहने पर आशंका हो सकती है- किंचित भेद भासित हो रहा है न - और परब्रह्म में ! इसे निर्मूल किया है- तैत्तिरीयोपनिषद् (१/४/१)- ब्रह्मणः कोशोऽसिमेधया पिहितः कहकर।कुहरे में सूर्य दिखलायी नहीं पड़ता,तो सूर्य की अनुपस्थिति नहीं हो जाती,तद्भांति ही ‘लौकिक बुद्धि’-आवृत परब्रह्म की स्थिति है यहाँ।शब्दब्रह्म के अभ्यन्तर में परब्रह्म की उपस्थिति है। ‘ॐ’ परब्रह्म का वाचक है।वर्ण्य प्रसंग में यह मुरलीधर के लिए प्रयुक्त है।नाम-नामी अभिन्न हैं- नामचिंतामणिः कृष्णश्चैतन्यरसविग्रहः।पूर्ण शुद्धो नित्यमुक्तोऽभिन्नत्वान्नामनामिनोः।। (हरिभक्तिरसामृत) इस प्रकार नादब्रह्म श्रीकृष्ण से अभिन्न है।यथा- नादात्मकं नाद बीजं प्रयतं प्रणवस्थितम्।वंदे तं सच्चिदानन्दं माधवं मुरलीधरम्।। सुस्पष्ट है कि नादब्रह्म<>शब्दब्रह्म का ही सूक्ष्मरुप है।प्राणीमात्र की अन्तरात्मा में ‘नादात्मादेवी’ का निरंतर नदन होते रहता है- सोऽन्तरात्मा तदादेवी नादात्मा नदतेस्वयम् (शारदातिलक)
अब पुनः विचार करें— श्री कृष्ण की तान्त्रिक उपासना में कामबीज-‘क्लीँ’ कथित है, जिसकी अधिष्ठात्री दुर्गा हैं,किन्तु त्रिगुणात्मिका दुर्गा नहीं,प्रत्युत रासेश्वरी राधा। इस ‘दुर्गा’ शब्द पर विचार करें,तो कुछ स्पष्ट हो- कृच्छ्रेण दुराराधनादि अर्थात् बहु प्रयासेन गम्यते ज्ञायते इति...यानी जिसकी प्राप्ति हेतु कठिन साधना करनी पड़े।नारदपांचरात्रोक्त राधासहस्रनाम श्लोक ४५ के पूर्वार्द्ध में कहा गया है- एकानंशा शिवा क्षेमा दुर्गा दुर्गातिनाशिनी...। सम्मोहनतन्त्र में स्वयं दुर्गा(यहाँ दुर्गा अपने प्रचलित अर्थ में हैं) के वचन हैं- यन्नाम्ना नाम्नि दुर्गाऽहं गुणैर्गुणवती ह्यहम्। यद् वैभवान्महालक्ष्मी राधा नित्या पराद्वया।।(ब्रह्मसंहिता) अर्थात् जिसके नाम से मैं गुणयुक्त दुर्गा हूँ,जिसके वैभव से महालक्ष्मी हैं,वही नित्या...परा...अद्वया राधा हैं। ध्यातव्य है कि मन्त्रशास्त्र के सामान्य नियमानुसार कोई कह सकता है कि जिस देवता का मन्त्र होता है,वही उसका अधिष्ठाता भी होता है;किन्तु क्या यहाँ यह नियम अपवाद है? कदापि नहीं। राधा ही कृष्ण मन्त्र की अधिष्ठात्री हो सकती हैं, अन्य कैसे ? ‘‘राधा रासेश्वरी रम्या कृष्ण मंत्राधिदेवता’’- (राधिकोपनिषद्)। वस्तुतः राधा-कृष्ण में अभेद का उद्घोष है यह। राधाकृष्ण मूलतः अद्वय हैं।दो रुपों में प्रतिभास- मात्र लीला और क्रीड़ा है- येयं राधा यश्च कृष्णो रसाब्धिर्देहेनैकः क्रीडनार्थं द्विधाऽभूत(राधिकोपनिषद्)। या कहें- यस्माज्जोतिरेकमभूद् द्वेधा राधामाधव रुपधृक् (सम्मोहनतन्त्र)। दीप शिखा से प्रकाश को अलग कैसे किया/माना जा सकता है? हाँ,इतना कह सकते हैं कि दीपशिखा में ध्यान से देखने पर कुछ अन्तरभिन्नता दीख पड़ती है- यही तो श्यामज्योति और गौरज्योति है।गौरज्योति से रहित श्यामज्योति की कल्पना भी सम्भव नहीं।इस द्वय प्रतिभासित अद्वय की सम्यक् आराधना की बात कही गयी है।सम्मोहनतन्त्रान्तर्गत,पार्वतीश्वरसंवाद--श्री गोपालसहस्रनाम में कहा गया है- गौरतेजो विना यस्तु श्यामतेजः समर्चयेत्।जपेद्वा ध्यायते वाऽपि स भवेत् पातकी शिवे।। एक को छोड़ कर दूसरे की आराधना को शिव ने महापातक कहा है।

इन बातों की गहराई और भी लक्षित हो जायेगी आगे के कथन से-गोपीश्वर कृष्ण के उद्घोष का संकेत है यह श्लोक- ‘रा’ शब्दोच्चारणादेव स्फीतो भवति माधव। ‘धा’ शब्दोच्चारणा देव पश्चात् धावति संभ्रमः।। इन्हीं भावों की अभिव्यक्ति है ब्रह्मवैवर्त पुराण में भी- रा शब्दं कुर्वतः पश्चाद् ददामि भक्तिरुत्तमा। धा शब्दं कुर्वतः पश्चाद् यामि श्रवणलोभतः।।- अद्भुत सम्मोहन है राधा शब्द में। कृष्ण रस हैं,तो राधा उसका माधुर्य- रसो वै सः।महात्रिपुरसुन्दरी रासेश्वरी श्रीराधा की सम्यक् आराधना ही श्रीकृष्ण-प्राप्ति का एक मात्र उपाय है।राधा कृष्णमयी हैं-देवी कृष्णमयी प्रोक्ता राधिका परदेवता।सर्वलक्ष्मीमयी सर्वकान्तिः सम्मोहिनी परा।। (वृहद् गौतमीयतन्त्र)। इस सिद्धान्त को और भी दृढ़ करता है यह श्रीकृष्णार्जुनसंवाद— श्रीमद्भगवद्गीतोक्त विश्वरुप दर्शन के समय अर्जुन का चित्त तो अन्यान्य विषयों में ही उलझा रह गया-पश्यामि देवांस्तव देव देहे...न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम्।।(अ.११-श्लो.१५-३१) कालान्तर में, पश्चाताप पूर्वक लालसा हुयी-रासलीलादर्शन की;किन्तु कृष्ण ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि उस अन्तरंगलीलादर्शन हेतु राधा की स्वीकृति  अनिवार्य है,अतः तुम महात्रिपुरसुन्दरी की आराधना करो,उस रासेश्वरी की, जिसके सर्वांग वर्णन में वागीश्वरी की जिह्वा भी अशक्त है;और वह राधा ‘स्वयंदूती’ वंशी से आवद्ध है।उस वंशी से,जिससे निरंतर क्लीँकार निर्झरित हो रहा है,जो अन्ततः राधा नाम ही तो है-ईकारः प्रकृती राधा महाभाव स्वरुपिणी... (वृहद् गौतमीयतन्त्र)। अस्तु।
क्रमशः....

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