श्रीकृष्णसाधना-भाग तीन

() श्री कृष्ण साधना- भाग तीन
                   ऊँ श्री राधाकृष्णाभ्याम् नमः
                        श्रीराधाकवच
।।ऊँ अस्य श्री जगन्मङ्गल कवचस्य प्रजापति ऋषिर्गायत्री छन्दः स्वयं रासेश्वरी देवता श्रीकृष्णभक्ति सम्प्राप्तौ विनियोगः।।
ऊँ राधेति चतुर्थ्यर्न्तं वह्निजान्तमेव च।
कृष्णेनोपासितो मन्त्रः कल्पवृक्षःशिरोऽवतु।।१।।
ऊँ ह्रीं श्रीं राधिका ङेऽन्तं वह्निजायान्तमेव च।
कपालं नेत्रयुग्मं च श्रोत्रयुग्मं सदावतु।।२।।
ऊँ रां ह्रीं श्रीं राधिकेति ङेऽन्तं वह्निजायान्त मेव च।
मस्तकं केशसंघांश्च मन्त्रराजः सदावतु।।३।।
ऊँ रां राधेति चतुर्थ्यन्तं वह्निजायान्तमेव च।
सर्वसिद्धिप्रदः पातु कपोलं नासिका मुखम्।।४।।
क्लीं श्रीं कृष्णप्रिया ङेऽन्तं कण्ठं पातु नमोऽन्तकम्।
ऊँ रां रासेश्वरी ङेऽन्तं स्कंदं पातु नमोऽन्तकम्।।५।।
ऊँ रां रासविलासिन्यै स्वाहा पृष्ठं सदावतु।
वृन्दावनविलासिन्यै स्वाहा वक्षः सदावतु।।६।।
तुलसीवनवासिन्यै स्वाहा पातु नितंम्बकम्।
कृष्णप्राणाधिका ङेऽन्तं  स्वाहान्तं प्रणवादिकम्।।७।।
पादयुग्मं च सर्वाङ्गं सततं पातु सर्वतः।
राधा रक्षतु प्राच्यां च वह्नौ कृष्णप्रियावतु।।८।।
दक्षे रासेश्वरी पातु गोपीशा नैऋतेऽवतु।
पश्चिमे निर्गुणा पातु वायव्ये कृष्णपूजिता।।९।।
उत्तरे ससतं पातु मूलप्रकृतिरीश्वरी।
सर्वेश्वरी सदैशान्यां पातु मां सर्वपूजिता।।१०।।
जले स्थले चान्तरिक्षे स्वप्ने जागरणे तथा।
महाविष्णोश्च जननी सर्वतः पातु संततम्।।११।।
कवचं कथितं दुर्गे श्री जगन्मङ्लं परम्।
यस्मै कस्मै न दातव्यं गूढ़ाद् गूढ़तरं परम्।।१२।।
तव स्नेहान्मयाऽऽख्यातं प्रवक्तव्यं न कस्यचित्।
गुरुमभ्यर्च्य विधिवद्वस्त्रालंकार चन्दनैः।।१३।।
कण्ठे वा दक्षिणे वाहौ धृत्वा विष्णुसमो भवेत्।
शतलक्षंजपेनैव सिद्धं च कवचं भवेत्।।१४।।
यदि स्यात् सिद्धकवचो न दग्धो वह्निना भवेत्।
एतस्मात् कवचाद् दुर्गे राजा दुर्योधनः पुरा।।१५।।
विशारदो जलस्तंभे वह्निस्तभे च निश्चितम्।
मया सनत्कुमाराय पुरा दत्तं च पुष्करे।।१६।।
सूर्यपर्वणि मेरौ च स सान्दीपनये ददौ।
बलाय तेन दत्तं च ददौ दुर्योधनाय स।।१७।।
कवचस्यं प्रसादेन जीवन्मुक्तो भवेन्नरः।।हरिऊँ इति।।
नोट-१.स्कन्द= देह,स्कन्ध=कंधा।यहाँ दोनों शब्द हो सकते हैं,किन्तु आंगिक विषय चल रहा है,अतः स्कन्ध ही उचित प्रतीत हो रहा है।
२. जैसा कि महात्म्य क्रम में कहा गया कि इसी कवच की साधना करके दुर्योधन ने जलस्तम्भन की शक्ति पायी थी।किन्तु उसकी अन्तिम गति क्या हुयी-सर्वविदित है।कथन का अभिप्राय यह है कि हर तरह की सिद्धि इस एकमात्र कवच की साधना से मिल सकती है।
 ३. श्री राधाकवच एक अमोघ तान्त्रिक अस्त्र है।इसका सदुपयोग श्रीकृष्णदर्शन (प्रीति)से लेकर, सर्वविध आत्मकल्याण के लिए किया जा सकता है।
४. बुद्धिमान पुरुष को किसी साधना के दुरुपयोग से सर्वथा-सर्वदा बचते हुए,आत्मकल्याण की सिद्धि करनी चाहिए।न कि लौकिक आकांक्षा पूर्ति हेतु।
. तन्त्र-मर्मज्ञ कई बन्धु इस पोस्ट को अवश्य देखेंगे,उन्हें इसके अन्तर्गत नये क्षितिज का दर्शन होगा- ऐसा मेरा विश्वास है। अस्तु।
क्रमशः...

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