श्रीकृष्णसाधना-भाग दो
(२) श्री कृष्ण साधना- भाग दो
गत प्रसंग में राधाकवच की चर्चा की गयी
थी।ब्रह्मवैवर्त पुराण,प्रकृति खण्ड (५६/३२-४९)में वर्णित इस अमोघ संजीवनी के बारे
कुछ भी कहना,सूर्य को दीपक के प्रकाश में ढ़ूढ़ने की नादानी जैसी बात होगी।फिर भी यहाँ
वैसी ही नादानी करने की मैं धृष्टता कर रहा हूँ।
स्वप्न में ही सही,छलिया कृष्ण का
साक्षात्कार कौन नहीं चाहेगा? क्लींकारी वंशी की सुमधुर तान से कर्णगुहा को झंकृत
कराना भला कौन नहीं चाहेगा? वृन्दा-कुसुम-गुच्छ,कदम्ब-कुसुम,वैजयन्ती-माला,पुण्डरीक
आदि के मिश्र-मदकारी सुगन्ध से अपने क्षुद्र नासारन्ध्रों को कौन नहीं आप्लावित
करना चाहेगा? अगर यह चाह प्रवल है,प्यास तीव्र है,तड़पन तड़ित है तो,आइये इस कृष्ण-प्रिय
पवित्र कार्तिक मास का सदुपयोग करें।
कार्तिक शुक्ल पक्ष एकादशी- देवोत्थान
एकादशी के नाम से जाना जाता है,और मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी- गीता जयन्ती के नाम से
प्रसिद्ध है।अपनी इच्छानुसार इनमें से किसी एक का चुनाव कर लें- कृष्ण-साधना आरम्भ
करने के लिए। श्रीराधाकवच का सोलह आवृत्ति(नियमित पाठ)रात्रि के द्वितीय प्रहर में
करना है।अधिक करना सम्भव हो तो सोलह के गुणक में ही आगे बढ़ सकते हैं- अधिकस्य
अधिकः फलम्- सिद्धान्त से।पाठ में षडपाठदोष की वर्जना का ध्यान रखना चाहिए-गीतीशीघ्रीशिरःकम्पी,तथा लिखित पाठकः।अनर्थज्ञोऽल्पकण्ठश्च,षडेते
पाठका धमाः।।अर्थात् गीत गाकर,जल्दवाजी में,अपने हाथ से नकल किया हुआ(किसी पुस्तक
से),अशुद्ध उच्चारण पूर्वक,सिर हिलाते हुए,अर्थ जाने वगैर,अल्पकण्ठ(अस्पष्ट स्वर)
युक्त पाठ न करे।पाठ से पूर्व कम से कम तीन चक्र नाड़ीशोधन प्राणायाम,अथवा पादत्रयी
प्राणायाम अवश्य कर लें।कार्यारम्भ में ही घृत-दीप सामने या दाहिने रख कर
प्रज्वलित करलें।सुगन्धित धूपादि से वातावरण को आप्लावित कर लें तो और भी अच्छा।जलाक्षत
पूर्ण संकल्प प्रथम दिवस (मात्र) ही अनिवार्य है।अन्य दिनों कृष्ण स्वरुप का मानसिक
ध्यान ही पर्याप्त है।पाठ पूरा हो जाने पर हठात् उठें नहीं,बल्कि आँखे बन्द कर
पुनः कृष्ण की दिव्य छवि को निहारने का प्रयास करें,और भावना करे कि एक दिव्य रश्मि
पूरे शरीर को आप्लावित कर रोम-रोम में प्रविष्ठ होगयी है।अस्तु।
इस
क्रिया को श्रद्धा और विश्वास पूर्वक करते रहें।किसका जीवन-घट कितना रिक्त,कितना
पूर्ण है- यह कहना कठिन(ही नही,असम्भव) है।कौन सा ताला कितने हथौड़े का प्रहार
सहेगा- कहा नहीं जा सकता,और वैसे भी मैं तो किसी का गुरु हूँ नहीं(क्षमता भी नहीं
है)।वस एक तर्जनी-सूचक भर स्वयं को कह सकता हूँ।और दावे के साथ यह भी कह रहा हूँ
कि आपकी निष्ठा शीघ्र फलदायी होगी।श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए मूलपाठ की प्रति
मैं अगले पोस्ट में उपलब्ध कराने का प्रयास करूँगा।राधेकष्ण।क्रमशः....
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