श्रीकृष्णसाधना- भाग एक

ऊँ श्री राधाकृष्णाभ्याम् नमः
() श्री कृष्ण साधना- भाग एक
बांकेविहारी...त्रिभंगी...नटवर... क्या ये किसी सीधे-सादे व्यक्ति की संज्ञा है या उलझे व्यक्तित्व की व्याख्या का संकेत?कृष्ण के व्यक्तित्व को लेकर कई सवाल उठते हैं,और उन्हें सुलझाने का प्रयास- और भी उलझन में डाल देता है। इसी भय से मुक्ति के लिए कुछ लोगों ने युक्ति निकाली- कृष्ण को टुकड़ों में ग्रहण करके।सूर के कृष्ण कोई और हैं, और मीरा के कृष्ण कोई और- भले ही सुनने में यह अटपटा लग रहा हो,पर दोनों में कोई तालमेल नहीं है।श्रीमद्भभागवत के कृष्ण बिलकुल ही अलग हैं,गीता के कृष्ण से।एकांगी कृष्ण को जानना शायद थोड़ा सरल हो,पर सर्वांगी कृष्ण ?
कृष्ण अबूझ हैं।कृष्ण का व्यक्तित्व अपरम्पार है,अगम्य है...।कृष्ण को बूझने का प्रयास आकाश को मुट्ठी में बाँधने जैसा है।कृष्ण नाम की अन्वर्थता गोपालतापनियोपनिषद के निम्नांकित श्लोक से दर्शनीय है- कृषिर्भूवाचकः शब्दः णश्च निवृतिवाचकः।तयोरैक्यं परं ब्रह्म कृष्ण इत्यभिधीयते।।
कृष्(कृषि) "भू" वाचक है,और "ण" निवृति(आनन्द)वाचक।ध्यातव्य है कि भू- भावसत्ता का ख्यापक है।कृष्णोपासना पर गहन पकड़ रखने वाला ग्रन्थ "गौतमीय तन्त्र" में इस आशय को और भी पल्लवित किया गया है।यथा-
कृषिशब्दश्च सत्तार्था णश्चानन्दस्वरूपकः।सुखरुपो भवेदात्मा भावानन्दमयस्ततः।।
वस्तुतः यहाँ हेतु और हेतुमान का अभेदोपचार है।या कहें- परम बृहत्तम सर्वाकर्षण आनन्द ही "कृष्ण" पदवाच्य है।कृष्ण को समझने के लिए महात्रिपुरसुन्दरी रासराशेश्वरी श्री राधा की कृपा प्राप्त करनी होगी,क्यों कि "रा"शब्दोच्चारणा देव,स्फीतो भवति माधव।"धा"शब्दोच्चारणा देव पश्चात् धावति सम्भ्रमम्।।वृत्त के केन्द्र को जानने से पूर्व परिधि को लांधने की आवश्यकता होती है,और यदि केन्द्र और परिधि में ही अभेद हो-भेदाभेद हो तो क्या करे मुझ सरीखा मानव?

कुछ नहीं "राधातापनीयोपनिषद",श्रीमद्भागवतांश- रासपञ्चाध्यायी, श्री ब्रह्मवैवर्तपुराणांश- राधाकवच जैसे अमृत का निरंतर सेवन। वृन्दावनविहारी का प्रिय मास कार्तिक का शुभारम्भ हो चुका है।यात्रा तो प्रारम्भ हो।मार्गदर्शक किसी न किसी दोराहे-चौराहे पर खड़ा मिल ही जायेगा। कृष्णंवन्देजगत् गुरुम्। अस्तु।

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