वशीकरणःएक उपयोगी यन्त्रसाधना
वशीकरणयन्त्र
तन्त्रचर्चा
में षट्कर्मों की विशद चर्चा समय-समय पर करता रहा हूँ। इसके लाभ और हानि से भी
जिज्ञासुओं को अवगत कराता रहा हूँ। तन्त्र कोई खिलवाड़ नहीं है।बहुत से साधक इन
साधनाओं में अपना समय,श्रम और अर्थ बरबाद कर चुके हैं।बहुतों ने तो जान भी गंवाई
है,या जीवित रहे भी तो विक्षिप्त-पागल जैसे होकर।विरले ही सफल साधक साधना के शिखर
पर पहुँच कर लोककल्याणकारी कार्य किये हैं,और नाम-यश-कीर्ति के साथ-साथ
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष के अधिकारी बन पाये हैं।इसमें असफलता के लिए मुख्य रुप से वे
स्वयं ही जिम्मेवार हैं,न कि तन्त्रशास्त्र। कुछ कर लेने की ललक भर से ही तन्त्र की
साधना पूरी नहीं हो जाती,प्रत्युत तन्त्र साधने के लिए अतिशय आत्मसंयम,और दृढ़
इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है।योग्य और निस्वार्थ गुरु भी अति अनिवार्य
शर्त है,जिसका आजकल प्रायः अभाव है,किन्तु हाँ लुप्त नहीं है-विद्या,सुप्त
है,गुप्त है—कह सकते हैं।तन्त्र की सीमा मारण,मोहन,वशीकरण आदि षट्कर्मों
तक ही सीमित नहीं है,प्रत्युत मोक्ष का मार्ग भी(ही)है।
पुस्तकों
से जानकारी चुराकर साधना में लग जाना असफलता का पहला कारण है,और थोड़ा कुछ हासिल
हो जाते ही अहंकार से भर उठना अन्तिम कारण है- बरबादी का।इन दो पड़ावों के बीच
अन्य अनेक कारण हैं,जो साधक को साधना में असफल करते हैं,और परिणामतः शास्त्र को
दोषी वा मिथ्या करार देते हैं।
भवन
बनाने के लिए भूमि का चयन करना होता है,फिर आवश्यक सामग्री जुटानी होती है।योग्य
अभियन्ता और शिल्पी(कारीगर) का सहयोग लेना पड़ता है।समय,श्रम,और अर्थ का बहुत बड़ा
हिस्सा जमीन के भीतर ही दब जाता है,तब कहीं जाकर जमीन के ऊपर भवन की दीवार दीख
पड़ती है।कंगूरा(शिखर)(अन्तिम परिणति) तो बहुत बाद में लब्ध होता है।कथन का
अभिप्राय ये है कि धैर्य और लगन पूर्वक नियमानुकूल कार्य करने से ही उपलब्धि होती
है।अन्यथा वालू की भीत का भरोसा ही कितना- कभी भी धराशायी हो सकती है।
यहाँ
हम एक उपयोगी तन्त्र साधना की चर्चा कर रहे हैं—वशीकरण यन्त्र की साधना।यह तीन
महीनों की साधना है,जो मुख्य रुप से तीन खण्डों में विभक्त है।प्रथम खण्ड
वस्तुतः नये अभ्यासियों के लिए है जो असंस्कृत हैं, यानी किसी छोटी-मोटी साधना या
क्रिया का भी अभ्यास नहीं है, जिन्हें।यानी की साधना की जमीन ही नदारथ है।अतः
उन्हें पहले जमीन बनाने की जरुरत है।अधिकांश समय साधना की जमीन बनाने में ही खप
जायेगा।हाँ,एक लाभ अवश्य होगा कि आगे दूसरी किसी समधर्मी साधना हेतु इतनी तैयारी
नहीं करनी होगी।यह ठीक वैसे ही है जैसे इन्टर तक की पढ़ाई करने के बाद ही किसी
विद्यार्थी का स्ट्रीम खुलता है,कुछ स्ट्रीम मैट्रिक के बाद ही खुल जाते है,और कुछ
के लिए स्नातक होना जरुरी होता है।अब कोई चाहे कि मैट्रिक किये वगैर स्नातक हो जाय
तो कैसे होगा,मैट्रिक होना अनिवार्य शर्त है।हाँ,विशेष परिस्थिति में विशेष छात्र
को विशेष सुविधा भी मिल जाती है,जिसके लिए विशेष विलक्षण प्रतिभा की आवश्यकता होती
है।सर्वसाधारण को तो सामान्य नियम के मार्ग से ही गुजरना पड़ता है।यहाँ संकेत रुप
से सिर्फ मूल क्रिया विधि की चर्चा कर रहा हूँ।कर्मकाण्ड की अन्य सामान्य विधि तो
प्रायः ज्ञात ही होती है,जिन्हें थोड़ा भी अभ्यास है-पूजा-पाठ का।
साधना
का प्रारम्भ किसी मास(खरमास छोड़कर)के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा (वा अन्य तिथियों में
सर्वार्थसिद्धियोग होने पर)से प्रारम्भ करनी चाहिए। नित्य कृत्य से निवृत्त होकर गणेशाम्बिका,नवग्रहादि,कलशस्थापनादि
सारी क्रिया सम्पन्न करके,ग्यारह दिनों का अनुष्ठान-संकल्प ले शिवपञ्चाक्षर
मन्त्र-साधना का,जिसमें प्रत्येक दिन पांच-पांच हजार जप करना है, अन्तिम दिन पांच के वजाय चार हजार ही
होगा,क्यों कि कुल जप चौवनहजार ही करना है।इस क्रिया के सम्पन्न हो जाने के
बाद विधिवत दशांश होम,तर्पण, मार्जन, और ब्राह्मण-भिक्षु भोजन होना चाहिए।
पुनःआगामी
मास के शुक्ल प्रतिपदा से पूर्व की भांति कलशस्थापनादि सारी क्रिया सम्पन्न करने
के पश्चात् देवीनवार्णमन्त्र का संकल्प लेना चाहिए। इस मन्त्र का जप चार
हजार प्रतिदिन के हिसाब से नौ दिनों तक चलेगा।जप समाप्ति के पश्चात् दशांश होमादि
सभी कर्म पूर्वभांति ही सम्पन्न करना चाहिए।
अब
तीसरे महीने की शुक्ल प्रतिपदा से मूल कार्य- यन्त्र-लेखन-पूजन और जप प्रारम्भ
करना है,जो पूर्णिमा पर्यन्त यानी पूरे पन्द्रह दिनों तक चलेगा।इस क्रिया में
तांबे या पीतल की थाली में अष्टगन्ध चन्दन(सफेद चन्दन,लाल
चन्दन,अगर,तगर,केशर,कस्तूरी,वंशलोचन,और कपूर)से,अनार की नौ अंगुल लंबी लेखनी से
यन्त्र लेखन का कार्य करना है। यन्त्र लेखन में ध्यात्व्य है कि बीच के
रिक्तभाग(....)में अपने इष्टदेव,देवी,शिव, राम, कृष्ण.... किसी का नाम लिख दें।यन्त्र
लेखन के पश्चात् षोडशोपचार पूजन करें,और फिर यन्त्रगायत्री का ग्यारह हजार
जप करें। यह क्रिया प्रतिदिन करनी है।अगले दिन पूर्व दिन के लिखित यन्त्र
को धोकर किसी पवित्र स्थान में{फूल
के गमले में या किसी वृक्ष की जड़ में(पीपल
या तुलसी में नहीं)डाल दें},और उसी थाली में फिर नया यन्त्र उसी विधि
से लिखें।यह क्रिया(यन्त्रलेखन,पूजन और ग्यारहहजार जप- लगातार पन्द्रह दिनों तक
करना है।पूर्णिमा के दिन सामान्य रुप से कम से कम एक हजार आहुति यन्त्रगायत्री
से(पंचसाकल्य)से देकर,दशांश होमादि कर्म कर लें।इस प्रकार आपका अनुष्ठान पूरा हुआ।
ध्यातव्य
है कि प्रथम चरण में ग्यारह दिन,दूसरे चरण में नौ दिन और तीसरे चरण में पन्द्रह
दिन तक मुख्य क्रियायें चली है।विचारणीय है कि शेष दिन क्या करेंगे...शेष दिनों
में भी खान-पान,रहन-सहन अनुष्ठानिक ही होना चाहिए,और नित्य शिवार्चन के साथ-साथ कम
से कम एक माला शिवपंचाक्षर और एक माला देवी नवार्ण जप अवश्य होते रहें।गायत्री के
साधक(नियमित उपासक को ये कुछ करने की अनिवार्यता नहीं है,करें तो अच्छा,ना भी करें
तो कोई बात नहीं)।वे सीधे मूल क्रिया मात्र ही कर सकते है।गायत्री का साधक यानी जो
कम से कम ग्यारह माला गायत्री नित्य जप करने के विगत बारह वर्षों के अभ्यासी हों।
इस
प्रकार आपका यन्त्र-साधन सम्पन्न हुआ।अब प्रयोग की बात करते हैं।जीवन में एक बार
इस पूरे विधान से यन्त्र-साधना कर लेने के बाद आवश्यकतानुसार कभी भी शुभ योगों में
किसी के लिए यन्त्र-लेखन-पूजन कर सकते हैं।ध्यातव्य है कि प्रयोग के लिए यन्त्र
लिखते समय बीच के रिक्त भाग में साधक-साध्य का नाम होना चाहिए,यानी किसे
किसके वश में करना है;और प्रयोग के समय भी कम से कम इक्कीस दिनों तक पूजन और
मन्त्र जप करना होगा।मन्त्र दोनों के नाम सहित जो पद बनेंगे वही होगा,जिसका
प्रतिदिन ग्यारह माला जप और अन्तिम दिन होम वगैर भी करना चाहिए।किसी-किसी स्थिति
में प्रयोग कार्य तीन महीने(नब्बे दिनों तक भी करना पड़ जाता है।प्रयोग के लिए
यन्त्र को अच्छे कारीगर से तांबे के पत्तर पर उत्कीर्ण कराले,या भोजपत्र के बड़े
टुकड़े पर अष्टगन्ध से लिखे,जो भी सुविधा हो।वैसे आज कल बाजार में बने-बनाये
यन्त्र मिलते हैं,किन्तु उनमें नाम के स्थान पर देवदत्त लिखा हुआ रहता है- यह
सांकेतिक शब्द है,न कि आपका साध्य।अतः उचित है कि भोजपत्र पर सही नाम के साथ ही
यन्त्र लेखन करे,और पूजन करें। सिद्ध हो जाने के बाद अभीष्ट व्यक्ति को पूजन करने
के लिए प्रदान करें। वह अपनी मनोवांछा सिद्धि पर्यन्त नित्य पूजन करता रहे।
ध्यान रहे कि वशीकरण का यह प्रयोग किसी सद्बुद्धि
और सद्विचार से ही किया जाय,अन्यथा लाभ के
बदले घोर हानि होगी,और प्रयोग कर्ता के साथ-साथ साधक(जो अन्य के लिए करेगा)का भी
भारी अनिष्ट होगा।यह बता कर आपको डराना नहीं बल्कि सावधान करना मेरा उद्देश्य
है,कारण कि किसी भी यन्त्र-मन्त्र-तन्त्र के दुरुपयोग कर्ताओं की दुर्गति बहुत बार
देखने-परखने का अवसर मिला है।अतः सावधान।लोभ और मोह के वशीभूत होकर कार्य न करें।अस्तु।
नोटः- इच्छुक वन्धु मेरे केन्द्र से सिद्ध किया हुआ यन्त्र मंगवा सकते हैं,यथोचित दक्षिणा देकर।www.guruji.vastu@gmail.com
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