कुछ सावधानीः:कुछ बुद्धिमानी

कुछ सावधानीः:कुछ बुद्धिमानी
()दवा की किताब पढ़ कर दवा खा लेना कतई बुद्धिमानी नहीं।डॉक्टर की फीस बचाना बहुत बार महंगा पड़ जाता है।कभी-कभी यह बचकानापन जानलेवा भी हो जाता है।अतः सावधान...।उसी तरह कहीं से पढ़-देख-सुनकर कोई टोटका,कोई उपाय,कोई ग्रहशान्ति, कोई रत्न का प्रयोग कर लेना भी बुद्धिमानी नहीं,बल्कि नादानी ही कही जायेगी- यह मैं बिलकुल अनुभव की बात कह रहा हूँ।एक रोग की एक दवा सबके लिए नहीं हो सकती,उसी तरह एक सा उपाय सबके लिए सही नहीं हो सकता।एक ही रत्न सबके लिए उपयोगी कभी नहीं हो सकता।एक समय में जो उपाय सही हुआ है,हो सकता है वही उपाय दूसरे समय में घातक हो जाय।क्यों कि जो कुछ भी है वह –देश,काल और पात्र सापेक्ष है।प्रसंगवश यहाँ रत्नों की थोड़ी चर्चा कर रहा हूँ--शायद यह बहुत कम लोग जानते हैं,या मानते हैं कि किसी भी व्यक्ति को कम से कम दो और अधिक से अधिक पांच रत्न हानिकारक होते हैं- स्थायी रुप से।कुछ रत्न आंशिक रुप से हानिकारक होते हैं।कुछ सामयिक रुप से, यानी आज हानिकारक हैं तो कुछ दिनों बाद लाभदायक भी हो जा सकते हैं। अभी बिलकुल ताजा उदाहरण मुझे ध्यान आ रहा है,जिसके कारण अचानक यह पोस्ट मैं डाल रहा हूँ।क्यों कि इन दिनों मैं मुख्य रुप से वास्तुशोध में अति व्यस्त हूँ।इसी बीच समय निकाल कर सुबह-शाम लोगों का प्रश्नोत्तर भी करना पड़ता है।अभी कल ही एक क्लाइंट ने मुझसे सम्पर्क किया।उसे किसी ने वृहस्पति का रत्न पोखराज धारण करने का सुझाव दे दिया था-क्यों कि उसका लग्न धनु था।और महादशा गुरु की थी।मैंने उसकी कुण्डली का विचार किया तो पाया कि वृहस्पति बारहवें घर में शत्रु शुक्र के साथ बैठे हैं,और साथ में राहु भी हैं।इतना ही नहीं,द्वितीयेश यानि शनि के लिए उसने नीलम भी धारण कर रखा था।मूंगा और मोती भी किसी ने सुझा दिया था।और परिणाम सामने था कि घर,दुकान,व्यवसाय,परिवार सब कुछ छिन्न भिन्न हो चुका था पिछले कुछ बर्षों में।
इस तरह की नादानी या देखादेखी बड़ी भारी भूल है।फैशन में लोग जितना हो सके अंगूठियाँ डाल लेते हैं।भगवान ने थोड़ी और अंगुलियाँ दी होती तो उनमें भी कुछ पहन लेते,ताकि समाज में उन्हें रुतबा मिले।मैं स्पष्ट कहता हूँ कि ऐसी गलती और बेवकूफी कदापि न करें।रत्न बड़े महत्वपूर्ण होते हैं।उनकी ताकत भी अद्भुत है,वशर्ते कि वे सही हों।रत्नों का चुनाव बड़ी बारीकी से करनी चाहिए।कौन से ग्रह कहाँ हैं,किस हाल में हैं,कितनी ताकत वाले हैं,और किसकी शासन है- इन कई बातों पर रत्नों का धारण करना निर्भर करता है।
द्वितीयेश और सप्तमेश ये दो प्रबल मारकेश कहे गये हैं,साथ ही द्वादशेश, अष्टमेश और षष्ठेश भी मारकेश ही होते हैं।मारकेश कहीं भी बैठे हों,उनके साथ बैठे ग्रह भी मारकेश जैसा ही फल देने को मजबूर हो जाते हैं कभी-कभी।अतः इन सबका गहन विचार करके ही रत्न ग्रहण करें।
रत्नों की सही जांच-परख अति आवश्यक है,साथ ही उनका शोधन,संस्कार, अभिमन्त्रण आदि भी होना चाहिए।धारण का मुहू्र्त विचार भी जरुरी है, अन्यथा इन सबके बिना आत्माहीन शरीर की तरह ही हैं वे रत्न।हाँ हानि पहुँचाने का काम वे अवश्य कर देंगे,लाभ भले ना कर पायें।शोधन करके संखिया जैसी जहर दवा बन जाती है। अस्तु। 
 ()गत प्रसंग में रत्नों के प्रति दीवानगी,और नादानी पर कुछ बातें हुयी। कुछ और ऐसी ही बातें आज भी-
आये दिन पुस्तकों,पत्र-पत्रिकाओं,टी.वी,और सोशलमिडिया पर सुझावों की भरमार है।किन्तु ध्यान रहे- वे सभी रेडीमेड कपडे की तरह हैं,जो सबको सही फिटिंग देदे- कोई जरुरी नहीं,या होटल के भोजन की तरह हैं...या.... बुद्धिमानी यही है कि किसी विशेषज्ञ से आप अपनी जन्मकुण्डली का गहन विचार कराकर कर ही ग्रहजनित कोई निर्णय लें।इन उपायों को तमाशा न बनायें और न साधारण समझें।सीधे किसी उपाय को कर लेना कभी कभी बहुत भारी पड़ सकता है।रत्नों और वनस्पतियों का प्रबल प्रभाव होता है,किन्तु उनके कुछ शर्तें,कुछ नियम भी हैं।वनस्पतियों के गहन प्रभाव को मैंने अपने ब्लॉग www.punyarkkiti.blogspot.com  पर विस्तृतरुप से प्रकाशित किया है। वास्तु और ज्योतिष की भी विशद चर्चा है वहाँ।आप उसे गहराई से पढ़ेगे तो पायेंगे कि कोई भी वनस्पति सामान्य तौर पर कुछ खास कारगर नहीं है।उसे लाने से लेकर धारण करने तक की क्रिया विधि है,तभी वह काम करेगा, अन्यथा लकड़ी का टुकड़ा मात्र है। यन्त्रों के सम्बन्ध में भी यही बात है। बाजार में तरह-तरह के यन्त्र उपलब्ध हैं।उनकी अपनी एक ताकत है,अपना महत्व है,वशर्ते कि उनकी सिद्धिसंस्कारप्रतिष्ठा सही ढंग से की जाये;और पुनः उन्हें समादर पूर्वक नित्य साधा भी जाय।ऐसा नहीं है कि आप बाजार से श्रीयन्त्र खरीद कर लायें और घर में रखकर सिर्फ अगरबत्ती दिखाकर करोड़पति बन जायें।यह आपकी भूल है।वे सारे यन्त्र बेजान- मुर्दे की तरह हैं, यदि पहले और बाद के नियमों का पालन नहीं किया गया।दूसरी बात गौरतलब है कि विधिवत प्रतिष्ठितयन्त्र भी कहाँ,किसके पास, कैसे रखा गया है।शराबखाने में किसी संत को बैठा देंगे-जबरन तो वह टिका नहीं रहेगा। मौका मिलते ही भाग खड़ा होगा।उदाहरण के तौर पर एक कटुसत्य कहूँ कि सात्विकभावापन्न श्रीयन्त्र घर में रखकर कोई बोतल ढालेगा तो उस यन्त्र की मर्यादा भंग होगी,और प्रबलसिद्धयन्त्र भी थोड़े ही दिनों में बेजान हो जायेगा। आये दिन लोगों की शिकायतें मिलती हैं कि गुरुजी आपने जो यन्त्र दिया था, उसे मैं बहुत सावधानी से बांधे हुए था,पर पता नहीं कहाँ गुम हो गया, धागा टूट गया....।मैं कहता हूँ उसे आप जंजीर से भी बांध कर रखते तो भी टूट जाता,क्यों कि आपने उसकी मर्यादा भंग की है।साधारण सा उदाहरण लें- अलसीसियनडॉग को भात-रोटी खिला कर स्ट्रीटडॉग की तरह नहीं रख सकते। या तो वह भाग जायेगा,या बीमार होकर मर जायेगा...।अस्तु।
(३)आज के प्रसंग में मन्त्रों के सम्बन्ध में कुछ बातें करुँगा।मन्त्र की शक्ति अनन्त और अमोघ है।मन्त्रों के विविध प्रकार हैं।बहु संस्कार हैं।उनकी विशिष्ट मर्यादा है,सीमा है,शर्ते हैं,और साधने का तरीका है।विधिवत ग्रहण करने का विधान है।ऐसा नहीं कि किसी से पूछ और जान लिया,या कहीं पढ़ लिया और माला उठाकर बैठ गये जप के लिए।आजकल धड़ल्ले से मन्त्रों का निर्देश चैनेलों पर कर दिया जाता है,और लोग जपने भी लगते हैं।मन्त्रों का यह घोर अपमान है।इससे हम कुछ खास लाभ नहीं पा सकते,हाँ कुछ हानि हो जाये- तो आश्चर्य नहीं।ऐसे कई व्यक्ति मेरे पास आये हैं,जो अनधिकृत रुप से किसी मन्त्र जप जनित परेशानी और पीड़ा के शिकार हुए हैं।बाद में बड़ी मुश्किल से उन्हें ठीक करना पड़ा है।कभी-कभी मैं उन्हें पूर्ण ठीक करने में भी असमर्थ पाता हूँ।मन्त्रों की विकृतिजनित दुष्प्रभाव से उत्पन्न पागलपन और विक्षिप्तता को दुनिया का कोई डॉक्टर ठीक नहीं कर सकता। हम क्यों भूल जाते हैं कि जो चीज इतनी ताकतवर है,उसका सिर्फ गुण पक्ष ही प्रभावी होगा? गुण के साथ दोष(विपरीत फल) पक्ष भी है।बहुत कम मन्त्र ही ऐसे हैं जो सर्वग्राही हैं,उनपर किसी प्रकार का बन्धन नहीं है।जैसे किसी देवता का संक्षिप्त नामोच्चारण भी मन्त्र जप ही है।हरेराम,हरेकृष्ण,शिवायनमः,लक्ष्म्यै नमः.दुर्गायैनमः,गणेशायनमः आदि कहना-जपना बिलकुल निरापद है।किन्तु जब उसके आगे-पीछे प्रणव,स्वाहा,प्रां,प्रीं,फट्,हुँ आदि शब्द जुड़ते हैं तो उनकी क्षमता के साथ अनन्त मर्यादायें भी जुड़ जाती हैं।उनके नियम-संयम कुछ और प्रकार का हो जाता है।वह आम न होकर फिर खास हो जाता है।ठीक वैसे ही जैसे- शोरा और गन्धक अकेले अकेले कोई खास नहीं,किन्तु विशेष मात्रा में विशेष ढंग से उनका मिश्रण विस्फोटक हो जाता है।घी अकेले लाभदायक है।मधु भी अकेले गुणकारी है,किन्तु घी और मधु की एक खास मात्रा जहर बन जाता है।ग्रहों के मन्त्र भी इसी भांति हैं।मूल नाम के साथ कुछ जोड़कर ही जप करने का विधान है।कब,कितना,किसे,क्या जोड़ना चाहिए यह गहन ज्ञान और विचार का विषय है।इसे खिलवाड़ न समझा जाय।
एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात की ओर इशारा यहाँ करना चाहता हूँ- डॉ.यदि कोई दवा लिखता हो तो उसके लिए हम न तो दवा की प्रोपर्टी ढ़ूढ़ते चलते हैं,और न दवा की फैक्ट्री बनाने की बात सोचते हैं।मेरा कर्तव्य होता है-सीधे दुकान से जाकर दवा खरीदकर खाना,और स्वास्थ्यलाभ करना।इसी भांति किसी ग्रहशान्ति की बात आती है,तो अपना कर्तव्य होना चाहिए कि सही मन्त्रवेत्ता की खोज करें,और उसे श्रद्धा-विश्वास पूर्वक संकल्प देकर जप-हवन करावें।हाँ,वे लोग जो नियमित कुछ खास तरह के जप-साधना-क्रिया में संलग्न हैं,उन्हें अधिकार है जप करने का।संस्कारयुक्त ब्राह्मण मन्त्रवेत्ता किसी और के लिए भी जप करने के अधिकारी हैं।विशेष विचार करके सामान्य जन भी अपने लिए जप कर सकते हैं,किन्तु अपने परिवार,या अन्य के लिए कदापि नहीं। यहाँ गौरतलब है कि जप और प्रार्थना में बहुत अन्तर है।किसी के लिए कोई भी प्रार्थना कर सकता है,दुआ मांग सकता है;किन्तु किसी और के लिए जप करना बिलकुल अलग बात है। दूसरी बात यह जान लें कि जिनकी साधनात्मक दिनचर्या नहीं है,उन्हें काफी अधिक जप करने के बाद लाभ का अनुभव होगा। यह ठीक वैसे ही है,जैसे मकान बनाने के समय बहुत सी सामग्री पहले नींव में चली जाती है,तब कहीं जाकर ऊपर की दीवार नजर आती है।लम्बे समय तक कुछ खास मन्त्रों की विशिष्ट साधना करके जप करने का अधिकार प्राप्त करना होता है।इस अधिकार प्राप्ति हेतु भी कुछ खास तरह के ही मन्त्र हैं,जो गुरुप्रदत्त होते हैं।इतना साधने के बाद आपकी साधना का महल जमीन के ऊपर खड़ा हो पाता है।अस्तु।
(४) मन्त्रों के प्रसंग को आगे बढ़ाते हुए आज एक महामन्त्र की चर्चा करते हैं-वेदमाता गायत्री का मन्त्र।वस्तुतः गायत्री एक छंद का नाम है,और इसी छंद में होने के कारण इसे गायत्री कहा जाता है।गायत्री उस महाशक्ति का नाम जिसमें सारी शक्तियाँ समाहित या कहें तिरोहित हो जाती हैं।गायत्री एक महाविज्ञान का भी नाम है।गायत्री एक देवी का नाम है,जो स्थितिनुसार एक मुखी से पंचमुखी तक कल्पित हैं।गायत्री का सीधा सम्बन्ध सूर्य से है। और सूर्य का महाऊर्जा-स्रोत से।शारीरिक तल पर सूर्य का स्थान मनुष्य के नाभिचक्र में है- यहीं हमारा संसार है- सारा विराट यहीं समाहित है- एकीभूत है।गायत्री की साधना विशिष्ट विधान से दीक्षित होने के पश्चात् ही प्रारम्भ की जानी चाहिए।आर्यावर्त की परम्परा रही है कि कम से कम तीन और अधिक से अधिक पांच वर्ष की आयु में योग्य गुरु द्वारा बालक को दीक्षित कर दिया जाता है।कालान्तर में यह उम्र सीमा सरक कर आठ हो गयी,और फिर चौदह। चौदह के बाद तो इसकी दीक्षा कुछ महत्वहीन सी हो जाती है।
सनातन धर्म में शिखा और सूत्र की बात आती है।इसका सीधा सम्बन्ध गायत्री-दीक्षा से है।यज्ञोपवीत के कर्मकाण्ड के अन्तर्गत बड़े कौशल से(यों कहें कि अनजाने में ही)बालक को गायत्रीमन्त्रदीक्षित कर दिया जाता था। यज्ञोपवीत- हमारी परम्परा के चालीस संस्कारों में एक प्रधान संस्कार का नाम है।धीरे-धीरे हम सोलह संस्कार पर उतर आये,और अब सच पूछा जाय तो संस्कार नाम की कोई खास चीज ही नहीं रह गयी- महज संस्कारों की लाश हम जाने-अनजाने कुछ-कुछ ढोये जा रहे हैं।समय पर, और विधिवत यज्ञोपवीत संस्कार बहुत कम ही हो रहे हैं।हों भी कहाँ से? संस्कार की शुरुआत गर्भाधान से है,और समापन अग्निसंस्कार से।आज तो गर्भाधान दुःसंयोग से होते हैं,फिर प्रायोजित संस्कार का सवाल ही कहां पैदा होता है। इत्तफाक से जीव स्त्री गर्भ में आजाता है,और समयपर कालकवलित हो जाता है,परवर्तियों पर अन्तिमसंस्कार का बोझ डाल कर।
बात हो रही थी गायत्री की,जिसकी दीक्षा यज्ञोपवीतसंस्कार के साथ ही देदी जाती थी।प्रातः,मध्याह्न,सायं- गायत्री के तीन स्वरुप- ब्रह्मरुपा,विष्णुरुपा,शिवरुपा - सृष्टि-स्थिति-संहार- तीन स्थितियों के प्रतीक- त्रिदेवों की ऊर्जा को आत्मसात करने की अद्भुत प्रक्रिया का ही नाम है गायत्री।इसके अंगीभूत कुछ अन्य प्रक्रियायें भी आहिस्ते से उतार दीजाती थी-बालक के कर्णगुहा में। संध्योपासन के क्रम में ही यम से धारणा पर्यन्त षडसोपानों से परिचय करा दिया जाता था;और इस प्रकार साधना की आधारशिला अतिकुशलता पूर्वक रख दी जाती थी।चौबीस अक्षरों वाली वेद(ज्ञान-बुद्धि-प्रज्ञा वेद शब्द बहु अर्थों में यहाँ प्रयुक्त है)माता गायत्री के महामन्त्र को संध्या का अनिवार्य अंग कहा गया है।प्रातः संध्या में एक सहस्र गायत्रीजप का विधान है,मध्याह्न और सायं  एक माला- अष्टोत्तरशत मात्र।और इस प्रकार नियमित रुप से क्रिया करते हुए युवा होते-होते चौबीस लाख की संख्या कब की पूरी हो चुकी रहती थी- उन दिनों में,किन्तु आज हम विमुख हो गये हैं- साधना की इस प्रक्रिया से- बुद्धि की अधिष्ठात्री गायत्री से- संसार के मूल ऊर्जा-स्रोत से।अस्तु।
(५)पिछले प्रसंग में गायत्री मंत्र पर बात कर रहे थे।यूँ तो गायत्री मन्त्र अनेक हैं- लगभग सभी देवताओं के अपने-अपने गायत्री मन्त्र,यथा- विष्णुगायत्री, लक्ष्मीगायत्री,पितृगायत्री,इत्यादि।एक बहुप्रचलित यन्त्रगायत्री भी है,जिसका उपयोग विशेषकर किसी भी यन्त्र की साधना(प्राणप्रतिष्ठा) में अनिवार्य रुप से करना होता है।इसके वगैर प्रतिष्ठा अधूरी रह जाती है।किन्तु सर्वाधिक प्रचलित जो गायत्री है वही मूल गायत्री है- वेदमाता- ज्ञान का निःसरण स्रोत गायत्री। इसका पुरश्चरण चौबीख लाख का है,जिसके बारे में गायत्री महाविज्ञान में विशद रुप से वर्णन है।ध्यातव्य है कि किसी भी लौकिक कार्य में इसके प्रयोग से सर्वदा-सर्वथा परहेज करना चाहिए।इसका उपयोग और प्रयोग सिर्फ और सिर्फ आध्यात्मिक विकास के लिए ही होना चाहिए।हालाकि कोई भी कार्य इससे साधा जा सकता है,किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि साध ही लिया जाय। किसी भी लौकिक कार्य में इसका उपयोग करना इसका घोर अपमान है। विश्वामित्र ने इसी के बदौलत पितामह ब्रह्मा के समानान्तर सृष्टि रचने की उदण्डता दिखायी थी,जिसके लिए त्रिदेवों को आना पड़ा था उन्हें समझाने के लिए।गायत्री की उष्मा को सह पाना सबके बस की बात नहीं है।विश्वामित्र जैसे को भी इसने अहंकारी बना दिया।सामान्य मानव तो अहंकार का पुतला है ही। गायत्री चूंकि एक विशिष्ट कोटि का मन्त्र है,अतः इसकी साधना की भी खास प्रक्रिया और शर्तें हैं,ऐसा नहीं कि जब जिसने चाहा अधिग्रहण कर लिया।विगत कुछ वर्षों में इस मन्त्र का काफी प्रचार-प्रसार हुआ है,और इसकी मर्यादा की धज्जियाँ उड़ाई गयी है-यह चिन्ता और चिन्तन का विषय है।अस्तु।
(६)मन्त्रों के दुरुपयोग(व्यापक अर्थ में)दिनों दिन काफी बढ़ते जा रहे हैं,क्यों कि सही मन्त्रवेत्ता का अभाव हो गया है- वेत्ता और जानकार में भारी अन्तर है।जानकार ही अपने को वेत्ता मान लेते हैं,और मन्त्रों के साथ वैसा कुछ करने लगजाते हैं,जो उनकी गरिमा और मर्यादा,सीमा और शर्तों के बिलकुल विपरीत होता है।पुराणों में बहुचर्चित है कि कलिकाल में मन्त्र और देवता निश्तेज हो जायेंगे- यह अक्षरशः सत्य है।मदिरापात्र में गिर कर गंगाजल भी अपवित्र हो जाता है।कुछ वैसा ही मन्त्रों के साथ भी हो रहा है।कहा गया है- कलौपञ्चसहस्राणि विष्णुश्त्यजति मेदिनी....इसी प्रसंग में आगे कहा गया है कि पांचहजार वर्ष कलिकाल के व्यतीत होते-होते विष्णु(यहाँ विष्णु प्रतीक या प्रतिनिधि अर्थ में हैं,भाव है देवमात्र),गंगा,तुलसी,गौ आदि शनैः-शनैः विलुप्त हो जायेंगे।आप प्रत्यक्ष देख भी रहे हैं इन बातों को- लोग कहते हैं- गंगा प्रदूषित हो गयी हैं- यह कोई नयी बात नहीं हैं-पूर्वघोषित घटना है।लाख चेष्टा करें इसकी पूर्व मर्यादा को वापस लाना असम्भव सा है—ऐसा मैं किसी के मनोवल को तोड़ने के लिए नहीं,बल्कि दूरगामी प्रभाव का पूर्वाभास करके कह रहा हूँ। तरह-तरह के सफाई अभियान चल रहे हैं,अरबों रुपये ढंकारे जा चुके।क्या परिणाम आया?दरअसल जब तक गंगा के प्रति हृदय में श्रद्धा-स्नेह-आत्मीयता उत्पन्न नहीं होगी,तब तक ढोल पीटने से कुछ नहीं होने को है।दूसरा उदाहरण गौ का लें- कितनी गायें रह गयी हैं भारतवर्ष में?मेरुदण्ड में स्वर्ण-उत्पादन-क्षमता वाली गउयें तो बूचरखाने में बलि पड़ गयी,क्यों की उनकी दूध उत्पादन क्षमता कम होती है।उनका स्थान लेली विदेशी वर्णसंकर गायें महज अधिक दूध के लोभ में।वातावरण का किटाणुनाशक तुलसी आज स्वयं किटाणुग्रस्त हो रही हैं,इनकी भी असली नस्ल समाप्त प्राय है।अस्तु।
(७) बात मैं मन्त्रों की अवमानना का कर रहा था।एक महामन्त्र है- मत्युञ्य मन्त्र।लघु,मध्य और दीर्घ भेद से यह मुख्यतः तीन प्रकार का है।सूक्ष्म विचार से इसके कई अवान्तर भेद भी हैं।क्या आपने कभी इसके मौलिक अर्थ पर विचार किया है? हम क्या अनुनय कर रहे हैं त्रयम्बक शिव से? यही न कि जन्म-मृत्यु का जो सिलसिला(बन्धन) है, उसे आप क्षण भर में उसी प्रकार भंग कर दें- तोड़दें- जैसे सहज झटके से पौधे की डंठल से ककड़ी को तोड़ देते हैं- ऊर्वारुक मिव बन्धनात्....यही तो हमारी प्रार्थना होती है।अब इस मूलार्थ की गहराई में उतर कर जरा सोचें कि इस प्रार्थना के साथ आपकी कामना क्या है?किन उद्देश्यों से आप आराधना किये जा रहे हैं—बिना सोचे समझे- आपकी कथनी और करनी में है कोई साम्य?बिलकुल नहीं है।आप धड़ल्ले से इस मोक्षदायी महामन्त्र को सर्वत्र सांसारिक कार्यों में प्रयोग कर दे रहे हैं। संत कबीर ने कुछ ऐसे ही नादानी पूर्ण स्थिति में कहा होगा- पारस पड़ा चमार घर नित उठ कूटे चाम....हम सभी चमार ही हैं- चमार उस जाति विशेष के बारे में नहीं कहा जा रहा है,कहा जारहा है- जो सिर्फ चमड़ी को देखता हो,चमड़ी को जानता हो,चमड़ी को पहचानता हो।चमड़े के खोल(शरीर) में छिपे बैठे परमेश्वर के बारे में कुछ भी अता-पता नहीं है,जिसे- वही वास्तव में चमार है- चर्मपारखी मात्र।
कल्याणकारी शिव का मोक्षदायी मन्त्र महामृत्युञ्य को हमने तमाशा बना दिया है- यहाँ-वहाँ व्यर्थ प्रयोग करके।अरे भाई!इस अनमोल मन्त्र को साधो ताकि तुम्हारा जीवन-मृत्यु का घोर कठोर बन्धन टूट जाये।तुम बून्द हो...उसी महाजल के प्रतिरुप...सागर बन जाओ...कूद पड़ो महासागर में...महामृत्युञ्य... महामृत्यु पर विजय घोष करने वाले तुम्हारा आह्वान कर रहे हैं।जल में कुम्भ कुम्भ में जल है,बाहर भीतर पानी...फूटा कुम्भ जल जल ही समाना...।बून्द और सागर का तात्विक भेद नहीं है।अस्तु।
(८)प्रसंग चल रहा है मोक्षदायी महामन्त्र मृत्युञ्जय का।शास्त्रों में कहा गया है कि दुनियाँ का हर संकट इस मन्त्र से टाला जा सकता है...जरा फिर से गौर करें- कहने वाला क्या कह रहा है?सच पूछें तो हम इतने अबोध हैं,नादान हैं,या सीधे कहें तो कह सकते हैं कि मूर्ख हैं... हर बात में से अपने मन की बात निकाल लेते हैं।वही अर्थ निकाल लेते हैं,जो मुझे चाहिए होता है- यानी जिस अर्थ की चाहत होती है।यह सहज मानव स्वभाव है।यही कारण है कि एक ही बात को बार कहना पड़ा है शास्त्रकारों को- अलग अलग समय में भिन्न भिन्न परिवेश में।कोई भी संत कभी भी नयी बात कह ही नहीं सकता, क्यों कि बात कोई नयी हो ही नहीं सकती।बातें पुरानी ही होती हैं,कहने का अन्दाज नया होता है सिर्फ।कृष्ण ने कहा हो,राम ने कहा हो,बुद्ध ने कहा हो या महावीर ने कहा हो,नानक ने कहा हो,या कि कबीर ने कहा हो....।वेद नेति..नेति कहते थक गये...उपनिषद्, पुराण, गीता, बाइबिल,त्रिपिटक,गुरुग्रन्थ सबकी बातों का तथ्य वस एक ही है।
अतः योग्य गुरु से विधिवत दीक्षा लेकर,गायत्री और महामृत्युञ्य को अपना लें।पहले गायत्री को ही पकड़ना होगा।माँ की अंगुलियां पकड़कर ही पिता तक पहुंच पायेंगे।साधना होगा गायत्री को कुछ दिनों तक निर्विकार भाव से,निस्वार्थ भाव से,विना किसी कामना के।चौबीस लाख की संख्या बड़ी भारी लगेगी,तो कम से कम सवालाख ही सही।और तब इस गायत्री की पगडंडी से महा मृत्युञ्जय के राजमार्ग पर आरुढ़ होने की क्षमता आयेगी।प्रथमा... मध्यमा उपशास्त्री...शास्त्री..तब जाकर होता है- आचार्य।बहुत कठोर श्रम से पत्थर तोडते तोड़ते तब अन्त में मधुरजलस्रोत की प्राप्ति होती है।अस्तु।
(९)एक और विशेष बात महामन्त्र के विषय में-- प्रायः लोग सूर्यादि विभिन्न  ग्रहों की शान्ति के लिए सीधे महामृत्युञ्य मन्त्र या रुद्राभिषेक का सहारा लेते हैं- यह कहते हुए कि इनके प्रयोग से सभी संकट टल जाते हैं,जैसा कि पूर्व प्रसंग मे भी कहा गया है।किन्तु सच पूछें तो यह वैसी ही बात है,जैसे मेरा कोई फाइल जिलाधिकारी के दफ्तर में हो,और उसके लिए हम प्रधानमन्त्री सचिवालय का चक्कर लगा रहे हों,इस विश्वास से कि काम जल्दी होजायेगा। आये दिन प्रायः शिकायतें सुनने को मिलती हैं कि मैंने तो महामृत्युञ्य और रुद्राभिषेक भी करवा लिया,परन्तु कोई लाभ नहीं हुआ।मैं कहता हूँ कि लाभ नहीं हुआ- यह आश्चर्य़ की बात नहीं है।हो जाता वही आश्चर्य़ की बात होती, ठीक वैसे ही जैसे कभी संयोग से जामुन के पेड़ के नीचे गिरा हुआ आम का फल मिल जाय- इसे संस्कृत में काकतालियन्याय कहते हैं- ये विलकुल संयोग की बात है कि कार्य सिद्ध हो गया।दूसरे शब्दों में इसे समझाने का प्रयास करें तो कह सकते हैं कि जैसे कोई कमअक्ल डॉक्टर उच्चशक्ति की दवा से ही जुकाम का भी इलाज करता हो- टीवी और जुकाम में एक ही दवा देता हो। ग्रहशान्ति के लिए महामृत्युञ्य का प्रयोग ठीक वैसी ही बात है।
हाँ, यह बात बिलकुल भिन्न है कि कोई शिव का अनन्यभक्त कहे कि मैं तो शिव के अतिरिक्त किसी को नहीं जानता,राम या कृष्ण का भक्त भी अपने इष्ट को छोड़ कर अन्य को नहीं चाहता- वैसी स्थिति में बात बिलकुल अलग हो जाती है।उस परम भक्त को वास्तव में कुछ नहीं करना होता है।कृष्ण ने दावे के साथ कहा है- अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।(गीता९/२२)
ध्यान रहे ये बात परम भक्त की हो रही है,आम आदमी की नहीं।आम आदमी को तो वह सब कुछ करना ही होगा जिसका आदेश शास्त्रों ने दिया है।ग्रह परेशान करेंगे ही,और उनकी शान्ति के लिए ग्रहों का जप,हवन,स्तोत्रपाठ,दान, रत्नादि धारण आदि समयोचित क्रियायें भी करनी ही होगी।इसके बिना गुजारा नहीं है।अस्तु।

  

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