ये कैसी अर्चना?

                            ये कैसी अर्चना?
    
विगत कुछ दिनों से वाराणसी और हरिद्वार के तर्ज पर विष्णुनगरी गयाजी में अन्तःसलिला फल्गु नदी की विधिवत पूजा-आरती की शुरुआत हुयी है- वह भी बड़े तामझाम के साथ।सायंकालीन अर्चना के समय भक्तों का सैलाब उमड़ पड़ता है। कुछ देर के लिए दृश्य बड़ा ही मनोहारी हो जाता है।लगता है हम बहुत जागरुक हो गये हैं...बहुत धार्मिक हो गये हैं- धर्म का मर्म हमारे हाथों लग गया है,और छल-बल-कपट-ईर्ष्या-बाहुल्य "कलयुग" कहीं कंदराओं में दुबक गया है..."सतयुग" कुलांचे मारता शीघ्र ही अवतरित होने वाला है...।
     क्या सच में ऐसा हो रहा है या किसी नये आडम्बर का सूत्रपात है या धर्म की कोई नयी दुकान खुल रही है?...जरा सोचता हूँ।
     फांसी के फंदे की तरह- दोनों किनारे दिनों-दिन कसते जा रहे हैं।फल्गु का कलेवर तेजी से सिमटता जा रहा है।क्या पकृति ने नदियां बनायी हैं नगर की गंदगी को प्रवाहित करने के लिए सिर्फ? नदियों के किनारे भूमिहीनों से लेकर "महाभूपतियों" के क्रूर आधिपत्य के लिए बने हैं सिर्फ?
    जंगल का मंगल हो ही रहा है।वंजर तो वंजर,कृषि-भूमि भी बरबरता पूर्वक कंक्रीट के जंगलों में तबदील होते जा रहे हैं।पहाड़ों को "क्रसर" खाये जा रहे हैं। चारागाह तो कबके हजम किए जा चुके हैं। देशी गायें चूकिं दुधारु नहीं होती, इसलिए "ग्लोबलाइजेशन" के युग में बूचरखाने पर "विशेष ध्यान" स्वाभाविक है।क्यों कि इनका सम्यक् विकाश नहीं हुआ यदि, तो विश्व के मांस-निर्यातकों में प्रथम श्रेणी का खिताब हमारे हाथों से छिन जाने का खतरा भी है;और कौन कहें कि हम घोषित हिन्दु राष्ट्र हैं। वैसे भी हम "पत्थर-पूजन"में आस्थावान हैं।प्रत्यक्ष की पूजा का क्या प्रयोजन? गोमाता की मूर्ति बनाकर पूजा तो कर ही सकते हैं।"पाथर पूजे हरि मिले तो मैं पूजूँ पहाड़...." आंखिर कहा तो इसी लिए गया है न? वृद्ध माँ-वाप के लिए गुंजाएशी वृद्धाश्रम की तलाश भले करते हों,किन्तु मरने के बाद जरी का हार पहनाकर ड्राईँगरुम की शोभा बढ़ाना कभी नहीं भूलते।वास्तु विशेषज्ञों की सलाह भी जरुर पूछते हैं कि पूर्वजों की तस्वीर को किस दिशा में लगाने पर विशेष आशीष(समृद्धि के रुप में)की प्राप्ति हो सकती है...यह सब हमारे आस्थावान होने के स्टेटशसेम्बल हैं...भला इन्हें कैसे भुला सकते हैं!
     राजा सगर ने सागर बनाया, भगिरथ ने गंगा को भूतल पर उतार कर भागीरथ नाम दिलाया।हमारे वरिष्ट नेताजी भी उसी सूची में अपना नाम दर्ज कराने को बेताब दीखे- गंगा को गया लाने का आश्वासन तो कम से कम दिया ही।और जनता? ये तो महज आश्वासन से ही थिरकने वाली ठहरी।अखबार की सुर्खियाँ बनी- फल्गु का स्वागत-पूजा-अर्चना-आरती....।

काश!ये आडम्बरी चोले उतार कर असली अर्चना को अंगीकार करते...संकल्प लेते और उसका पालन करते- फल्गु के कलेवर को स्वच्छ और अतिक्रमण-मुक्त रखने का...करने का संकल्प...सीता को भी शायद शुकून मिलता...विष्णु भी प्रसन्न होते...अस्तु।

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