अमंगल का जिम्मेवार कौन?

अमंगल का जिम्मेवार कौन?
मंगलकारी विजयपर्व-विजयादशमी की "शाम" कईयों के लिए अमंगल बन कर उतरा आया।एक ओर मैदान में रावण का पुतला जल रहा था, तो दूसरी ओर किसी सिरफिरे की करतूत के शिकार कई मासूम-निर्दोष मौत की बली चढ़ गये।सत्य-अहिंसा के पुजारी गांधी का मैदान "गंधा" गया,करुण-आर्त चित्कारों से पाटलीपुत्र का धरती और आकाश गूंज उठा। आँखिर इसके लिए दोषी कौन?सरकार और उसकी शासन-व्यवस्था या कोई और भी?
आये दिन ऐसी हृदय विदारक घटनायें होती हैं।मिडिया की दुकानों में थोड़े ग्राहक की बढ़ोत्तरी होती है।नेताओं की बेहूदे बयानबाजी से हम फिर ठगे जाते हैं।तथाकथित "सहृदय-दानवीर सरकार" जनता की गाढ़ी कमाई का हिस्सा "मुआवजा" का लेबल लगाकर प्रभावित परिवारों में उलीच देती है।कुछ अफसरों की भी बलि दे दीजाती है।"शनि की गति" से चलने वाली जांच समिति का गठन भी कर दिया जाता है;किन्तु क्या इससे किसी माँ का आँचल और विधवा की उजड़ी मांग भर जाती है,या "फिर न उडड़े" की गारंटी मिल जाती है,या हमआप सतर्क-सावधान हो जाते हैं...?इनमें से कुछ नहीं होता।
किसी चिन्तक ने कहा है- "भीड़ सिर्फ भीड़ होती है,मनुष्य वहाँ नहीं होता।"और जब मनुष्य होता ही नहीं तो फिर बुद्धि और विवेक कहाँ से होगा?हृदय और मस्तिष्क कहाँ से होगा? हाँ,आश्चर्यजनक रुप से, अप्रत्याशित रुप से, मन जरुर होता है वहाँ- उस भीड़ में भी।वही मन कुछ का कुछ करा जाता है- अरे भागो...विजली की तार गिरी है...बम रखा है....।और हम भागने लगते हैं,क्यों कि अपनी जान तो सबसे प्यारी चीज है न!कुछ बचे ना बचे,जान तो बचानी ही है न।
इधर लागातार भीड़ की बढ़ोत्तरी हो रही है,हम सिर्फ "भीड़" होते जा रहे हैं।देखने में निहायत अकेला होने पर भी हम भीड़ में ही होते हैं- वाहियात विचारों के भीड़ में,और भीड़ तो सिर्फ भीड़ है।
क्या हम इस भीड़ से उबर नहीं सकते? 

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