आस्था का एक रोचक खबर
आस्था का एक रोचक खबर-
परम्परा गत ज्ञान और जानकारी के अनुसार,अपने
गृह-मन्दिर के ठाकुर जी की पूजा-कार्य के लिए नदी या कुएँ के जल का ही उपयोग करते
आ रहा हूँ।संयोगवश यदि उक्त जल की उपलब्धि नहीं हो पाती तो बड़े संकट में पड़ जाता
हूँ।गत पच्चीस वर्ष पूर्व विष्णुनगरी
गया का प्रवासी बना, जहाँ कहने को तो कुऐं,तालाब,पोखर,पुष्करणी,कुण्ड,नदी- सब कुछ
है;परन्तु कुछ नहीं के बराबर।अन्तःसलिला फल्गु सीता-शापित होकर सूखी पड़ी है,जिसे
आधुनिक जन नाले में तबदील कर दिये हैं।फल्गु की पवित्रता,महत्ता और गरिमा की याद
वर्ष में सिर्फ एक बार- पितृपक्ष में आती है।उस समय तीर्थपुरोहित पंडा से लेकर प्रशासन
तक थोड़े सजग दीखते हैं।फिर दोनों सो जाते हैं,और आमजन जग जाते हैं- जितना कचरा
भरा जाय भरते हैं,और किनारे को पाट-पाट कर पहले झोंपड़ी,फिर ईंट-गारों से कमरे
खड़े हो जाते हैं।निगम की थोड़ी कृपा हुयी तो कंक्रीट का पोख्ता काम भी हो ही जाता
है। खैर,ये तो बेचारी फल्गु की दर्द भरी दास्तान है।
मैं कह कुछ और रहा था- अपनी व्यथा बखान रहा था।गया
आगमन के साथ ही जल-व्यवस्था की खोज में लगना पड़ा,क्यों कि इष्टदेव की अर्चना कैसे
होती।कुछ कुँए मिले,जिनसे काम चलने लगा,किन्तु ज्येष्ठ आते-आते सब जबाब दे गये-
जलविहीन होकर,मानों सीता-शाप का प्रभाव इन पर भी पड़ गया हो।तब ध्यान गया कुण्ड और
पुष्कर्णी का।वैतरणी तो नाम से ही वैतरणी है,उसका क्या कहना!गया की वैतरणी के
सामने यममार्ग की वैतरणी भी ओछी पड़ जाय।प्रथम दृष्ट्या ब्रह्मसरोवर का सम्बन्ध
सृष्टिकर्ता ब्रह्मा से न होकर ब्रह्मराक्षसों से प्रतीत होता है।वैसे ब्रह्मराक्षसों
से सम्बन्ध रखने वाला ब्रह्मसरोवर तो दक्षिणमानष के वजाय प्रेतशिला के समीप है,और
होना भी चाहिए।विसार,दिघ्घी आदि तालाबों की दुर्दशा बखान करने में तो लेखनी का समय नष्ट
करना है। एक शुभेच्छु ने जानकारी दी कि अक्षयवट के समीप रुक्मिणी तालाब बड़ा ही
मनोरम है;किन्तु समीप जाकर देखने पर उसकी भी नग्नता सामने आगयी,और तब अन्तिम
विकल्प रहा- महान सूर्यकुण्ड,जिसके बारे में लोग बताते हैं कि इसके अन्दर पांच
विशाल कुँए हैं,जिसके कारण कुण्ड का जल कभी सूखता नहीं।किन्तु कलश लेकर जल-ग्रहण
करने पहुँचा तो दकियानूसी दिमाग फिर चकरा गया।अखबारों की सुर्खियों में छाया
पंडा-पुरोहितों का उक्त वक्तव्य थोथा जान पड़ा।देखा- कुण्ड तो भव्य परिसीमन में
आबद्ध है,प्रशस्त भी है;किन्तु आसपास के मकानों की नालियाँ सीधे,और कुछ चुपके से
डुबकी लगा कर स्वयं भी सूर्यमय हो जाने के प्रयत्न में तल्लीन हैं।प्यासा कलश
प्यासा ही वापस घर आ गया,और उस दिन से ही दकियानूसी विचार में किंचित संशोधन कर
किराये के मकान की "कलावतीगंगा" को ही अंगिकार-स्वीकार कर लिया।आखिर
करता क्या?पत्रम् पुष्पम् फलम् तोयम्,तुभ्यमेव समर्पयेत्...त्वदीयम् वस्तु
गोविन्द,तुभ्यमेव समर्पयेत्...अस्तु।
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