और ये क्या है?
और
ये क्या है?
माना
कि हमारे अधिकांश रहनुमा बेईमान हैं,और बेईमान का मातहत वेचारा अच्छा कैसे हो सकता
है-अतः वह भी प्रायः लापरवाह,कामचोर और आलसी...।वैसे उसे फुरसत भी कहाँ मिलती है
अपने आकाओं की सेवा से?और इन सभी कारणों का मिलाजुला चश्मदीद हुआ- गांधी मैदान।त्योहार
के ऊमंग में नाचते कूदते लोग, बाहर के रावण को जलता हुआ देखने को आतुर,भीतर के
रावण से निरे अनजान...एक दुष्चले के अफवाह का शिकार होकर बलि चढ़ गये तैंतीस
निर्दोष-मासूम....।
किन्तु
मूर्तिविसर्जन के दिन छपरा में जो हुआ वह क्या था?क्या यह विशुद्ध मनबढ़ुआपन,गैरजिम्मेवारी,और
अराजकता नहीं है?और कमाल की बात है- नेताजी का हस्तक्षेप- गिरफ्तार युवकों को
छुड़ाने के लिए।
विधान
रचयिता,विधान बनाकर उसे पालनकर्ता के हांथों सौंप,न्यायकर्ता के विचारों की
प्रतीक्षा करने में क्यों इतनी जल्दवाजी दिखाते हैं कभी-कभी? क्या सच में जनता के
प्रति प्रेम उमड़ आता है या कि अपनी अगली गोटी दीख रही होती है?
बात
डी.जे.से शुरु हुयी।यदि प्रशासन ने कहा ही तो इसका पालन क्यों नहीं हुआ? क्या यह
उस जमात का कर्तव्य नहीं था?ये डीजे बजते ही क्यों हैं,कौन सी मधुर रागिनी निकलती
है- इन कान फोड़ू,दिल दहलाने वाले भोंपूओं से?दिल की बीमारी पैदा करने वाले बहुत
से साधन तो हमारे पास मौजूद हैं ही,ये डीजे की क्या आवश्यकता? इसके वगैर देवी की
विदाई नहीं हो सकती? पॉप-रॉक की कर्कश ध्वनि सुनाकर भगवती को क्या सम्मान दे रहे
हैं?धार्मिक और सामाजिक कृत्य के नाम पर तथाकथित भक्तों का जमात जुटता
है।जोर-जबर्दस्ती से चन्दे जुटाये जाते हैं,और फूंके जाते हैं- डीजे में,कुछ
बोतलों का भी बन्दोबस्त हो ही जाता है।दोजून की रोटी के जुगत में जूझता इन्सान घर
में त्योहार का इन्तजाम करने में ही चुक जाता है,फिर बाहरी बोझ- बीसियों प्रकार के
चन्दे...और हराम की कमाई से सार्वजनिक स्थलों का मनमाने ढंग से घेराबन्दी करके,
डीजे पर तांडव...आंखिर क्या है ये सब?क्या ये धार्मिक और समाजसेवी लोग होते हैं या
कि निरे सिरफिरों की जमात?
हमें
चाहिए कि कड़े कानून बनाकर,उनका कड़ाई से पालन हो।मनबढ़ुओं पर शिकंजे कसे जायें।सबसे
पहले चन्दे बसूलने का धन्धा बन्द हो,क्यों कि उसकी आड़ में ही ये सब होते हैं।तीब्रध्वनिविस्तारक
यन्त्रों के उत्पादन पर रोक लगायी जाये।प्रयोग की "पत्तियां छांटने" भर
से काम नहीं चलेगा,जड़ को काटना होगा।
वस्तुतः
यह स्वतन्त्रता का दुरुपयोग है।हम कैसे धार्मिक और सामाजिक हैं कि हमें पता भी
नहीं कि मेरे पड़ोस में कोई "एमडोपा,ल्यूनैक्सिन और फेनेवारवीटन" पर
जीने वाला इन्सान पड़ा कराह रहा है...किसी के घर में मौत का मातम भी चल रहा
है...किसी का चूल्हा दो दिनों से जला नहीं है...हम सोशलिज्स और कम्युनिज्म की डींग
हांकते हैं...न तो हम सच्चे अर्थों में गांधी हो पाये हैं न लेनिन न मार्क्स...बुद्ध,ईशु
और मुहम्मद तो बहुत दूर की बात है।
क्या
ही अच्छा होता श्रद्धावनत होकर घर-घर कलश स्थापित होते।सप्तशती कें सुमधुर अनुगूँज
से वातावरण आप्लावित होता।प्रेम का विजयपर्व मनाते- ईदमुबारक की तर्ज पर गले
मिलते,एक दूसरे के घर जाते...समादर पूर्वक कलश-विसर्जन करते- ढोलक-झाल-मजीरे की मधुर
गुंजार में,और किसी नदी या सरोवर के उदर को बरबरता पूर्वक पाटकर संकीर्ण न करते...प्रकृति
देवी की आंचल- पर्यावरण को गंदला न करते....।अस्तु।
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