पुण्यार्कवनस्पतितन्त्रम्-8
७.अंकोल
अंकोल मध्यमकाय बहुबर्षायु पौधा है।यह
प्रायः सुलभ-प्राप्त वनस्पति है।बिहार-झारखंड के जंगलों में मैंने बहुतायत से इसे
देखा है।इसका प्रचलित नाम ढेला है।सामान्य तौर पर सुन्दर आकृति वाली छड़ी के रुप
में इसके डालों का उपयोग किया जाता है।पूरे पौधे पर कठोर छोटे-छोटे कांटे होते
हैं।उन नोकों को काट-छांट कर शेष प्राकृतिक उभार को छोड़ दिया जाता है,जिससे छड़ी
की सुन्दरता बनी रहती है।अपरस(हथेली का एक चर्म रोग)की बीमारी में इसे घिस कर
लगाने का पुराना चलन है।छोटे बेर की तरह गुच्छों में फल लगते हैं,जिसके अन्दर बेर
की तरह ही गुठलियाँ होती हैं- थोड़ी लम्बोतरी आकृति में।इन गुठलियों में प्रचुर
मात्रा में स्नेहन (तैलीय द्रव)होता है।निमौली की तरह इनसे भी तेल निकाला जा सकता
है,जिनका विभिन्न औषधीय प्रयोग होता है।
तन्त्र शास्त्र में अंकोल बहुत ही उपयोगी
माना गया है।अन्य तान्त्रिक योगों के साथ मिलाकर,तथा स्वतन्त्र रुप से भी इसका
उपयोग किया जाता है।
अंकोल में शिव-शिवा का युगलरुप वास माना गया
है।रविपुष्य योग में इसे पूर्व वर्णित विधि से ही ग्रहण करना चाहिए।श्रावण या
आश्विन के महीने में रविपुष्य योग(चन्द्रमा वाला) मिल जाय तो अति उत्तम।वैसे
प्रायः आषाढ़ के महीने में सूर्य पुष्य नक्षत्र पर १४-१५दिनों के लिए आते हैं।उस
बीच रविवार जो मिल जाय- उसे ग्रहण करना चाहिए।यह (सूर्य वाला) रविपुष्य चन्द्रमा
वाले रविपुष्य से भी उत्तम है--
किसी भी वनस्पति के ग्रहण के लिए,क्यों कि वनस्पतियाँ सूर्य के पुष्य नक्षत्र में
आजाने के कारण सर्वाधिक ऊर्जावान हो जाती हैं। चन्द्रमा तो वनस्पतियों के स्वामी
हैं ही।स्वामी के मित्र- सूर्य की रश्मियाँ चन्द्रपत्नियों के लिए अतिशय प्रीतिकर
हो जाती हैं।
अंकोल ऊर्ध्वगति का प्रतीक है- ऊर्ध्वगति
चाहे जिस किसी भी स्थिति में,जिस किसी भी कार्य में अनिवार्य हो- अंकोल का वहाँ
उपयोग किया जा सकता है।तन्त्र शास्त्रों में वर्णन है कि साधित अंकोल- बीज-तैल में
भिगोंकर यदि आम की गुठली जमीन में स्थापित कर दें तो आशातीत समय-पूर्व उसमें फल
निकल आयेंगे- यानी उसका विकास चमत्कारिक रुप से होगा।इसी भांति किसी भी वृक्ष को
शीघ्र उपयोगी बनाने के लिए इसके तेल का
प्रयोग किया जा सकता है।आजकल वैज्ञानिक विधि से रसायनों का सूचीप्रवेश कराकर फल और
सब्जियों को रातोंरात बड़ा करने का चलन है,भले ही उसका स्वास्थ पर दुष्प्रभाव
पड़ता हो।अतः सोच समझ कर ही इसका उपयोग किया जाना चाहिए।विकास आवश्यक है,उचित भी
किन्तु एक सीमा तक और सही रुप से- प्राकृतिक रुप से।हार्मोनिक उथल-पुथल मचाकर
विकास पैदा करना कतई उचित नहीं।
तन्त्र शास्त्र में ऊर्ध्वगति विषयक
पादुकासिद्धि की चर्चा है।यानि विशेष तरह की पादुका(खड़ाऊ) का उपयोग करके आकाशगमन
किया जा सकता है।यह साधना सुनने में तो अविश्वसनीय लग रहा है,किन्तु शास्त्र-वर्णन
झूठा नहीं है।ऋषियों की वाणी व्यर्थ नहीं है।हाँ,इतना अवश्य कह सकते हैं कि वर्णन
के बीच के कुछ तन्तु लुप्त हो गये हैं,जिसके कारण विसंगति लग रही है।मैं पूरे
विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि अंकोल में यह विलक्षण गुण है,और मेरा यह दृढ़
विश्वास निराधार भी नहीं है। साधना के स्तर की बात है सिर्फ।एक ऐसे महानुभाव को
मैं निकट से जानता हूँ,जो नित्य प्रातः दरभंगा से कामाख्या जाकर भगवती का दर्शन
लाभ कर,शीघ्र ही वापस अपने स्थान पर आ जाया करते थे,जिसे उनके बहुत करीबी लोग भी
नहीं जानते थे;और जान भी कैसे पाते? देर रात जिसे अपने विस्तर पर सोते हुए जिसे
देखे हैं,और भोर-प्रातः भी जो अपने विस्तर पर ही लेटा,उनीन्दा पाया जाय उसे कहीं
सुदूर का यात्री कैसे माना जा सकता है?अस्तु।
प्रसंगवश यहाँ अंकोल पादुका सिद्धि की थोड़ी
और चर्चा कर दूँ।ऊपर कहे गये मुहूर्त में ही अंकोल को विधिवत (पूर्व संध्या को
निमंत्रण देकर) घर लाना चाहिए- स्वयं ही काट कर(किसी दूसरे से कटवाकर नहीं)। तना
इतना मोटा हो ताकि उसके काष्ठ से खड़ाऊं बनाया सके। अब किसी सुयोग्य कारीगर से
(बिना उद्देश्य बताये,और सामने बैठकर खड़ाऊं बनवाये।ध्यान रहे- जब तक बढ़ई आपका
काम करता रहे,आप चुप बैठे मानसिक रुप से अनवरत शिव पंचाक्षर और देवी नवार्ण मंत्रो
का जप बारी-बारी से करते रहें।अत्याआवश्क हो तो बीच में बोलने में कोई हर्ज नहीं
है- कुछ कह-बोल-निर्देश देकर,फिर अपने कर्तव्य में लग जायें- जप जारी हो जाय।गौरतलब
है कि यहाँ न आपका साधना-कक्ष है,न पूजा का आसन,न माला।जप की गणना का भी कोई
औचित्य नहीं है,बस जप की निरंतरता का (ध्वनि-तरंगों के वातावरण का) महत्त्व है।दूसरी
बात यह कि खड़ाऊं एक ही वैठकी में बन ही जाए- कोई जरूरी नहीं।वैसे बन जाय तो अच्छी
बात है। दो-चार घंटा तो लगना ही लगना है।इसके लिए उपोसित रहने की भी कोई आवश्यकता
नहीं है।आप आराम से खा-पीकर घर से जायें,कोई हर्ज नहीं।ज्ञातव्य है कि पुष्य नक्षत्र
पर सूर्य चौदह-पन्द्रह दिनों तक रहते हैं।इस बीच सुविधानुसार कभी भी
पादुका-निर्माण का कार्य किया जा सकता है।वैसे जितना पहले हो जाय अच्छा है,क्योंकि
शेष समय का उपयोग अगले अनुष्ठान के लिए पर्याप्त मिल सके।
विधिवत पादुका निर्मित हो जाने के पश्चात्
पुनः शुभ मुहूर्त(भद्रादि रहित,सर्वार्थ सिद्धियोगादि विशिष्ट योग) का चयन करके
अगला कार्यक्रम प्रारम्भ करें।पादुका को जल,दुग्धादि पंचामृत के पांचो सामग्रियों
से अलग-अलग शुद्धि करने के बाद एकत्र पंचामृत स्नान करावे।फिर गंगाजल से
प्रक्षालित कर पीले या लाल वस्त्र के आसन पर आदर पूर्वक स्थापित करके-
रुद्राक्ष-स्थापन-विधान में निर्दिष्ट विधि से स्थापन-प्राण-प्रतिष्ठा करके पंचोपचार
किंवा षोडशोपचार पूजन करें;और सुविधानुसार विभाजित क्रम से जप का संकल्प लेकर शिव-
पंचाक्षर
मंत्र का सवालाख,एवं देवी नवार्ण मंत्र का छतीस हजार जप क्रमशः दशांश होमादि
क्रिया सहित ब्राह्मण एवं भिक्षुक भोजनादि सदक्षिणा सम्पन्न कर अनुष्ठान की
समाप्ति करें।इस प्रकार आपकी पादुकासिद्धि क्रिया सम्पन्न हुयी।
अब बारी है प्रयोग की।ध्यातव्य है कि इस
साधना और प्रयोग के लिए कठोर ब्रह्मचर्य की आवश्यकता है। ब्रह्मचर्य के खण्डन से
आपकी ऊर्ध्वगति बाधित होगी- अन्य बातें तो पूर्ववत रहेंगी,किन्तु कायिक भार के
कारण गुरुत्व बल के विपरीत जाने में कठिनाई होगी। हाँ, भूमि पर गमन करने में आप
अद्भुत ऊर्जावान महसूस करेंगे स्वयं को।सामान्य की अपेक्षा दस से सौ गुना अधिक की
गति कर सकेंगे- यह सब तात्कालिक साधना का प्रतिफल होगा।प्रत्क्षतः आप अनुभव करेंगे
कि ज्यों ही आत्मकेन्द्रित होकर साधित अंकोल-पादुका पर पांव धरेंगे, आपका
गुरुत्वबल अति न्यून हो जायेगा।शरीर हवा में उड़ता हुआ सा महसूस होगा।पृथ्वी से
चांद पर पहुंचने वाले वैज्ञानिकों को कुछ ऐसा ही महसूस हुआ करता है।सूर्य और
चन्द्रमा(गंगा-यमुना) की नियंत्रित गति को
संतुलित करते हुए आप जिधर चाहें यात्रा कर सकते हैं।यही इस साधना की उपलब्धि
है।किन्तु सावधान- किसी भी तान्त्रिक-यौगिक शक्ति का दुरुपयोग न हो।आत्म कल्याण और
लोककल्याण ही किसी साधना का अभीष्ट है,और होना चाहिए।जड़ता और मूढ़ता वस जिस किसी
ने भी इन शक्तियों का दुरुपयोग किया है- दुष्परिणाम भी भोगा ही है।अस्तु।हरि ऊँ।
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