पुण्यार्कवनस्पतितन्त्रम् -5

()बाँदा एक परजीवी वनस्पति
       वस्तुतः बाँदा एक परजीवी वनस्पति है,जो भूमि पर न उग कर,विभिन्न वृक्षों पर अपना स्थान बनाता है।जिस वृक्ष पर उगता है उसके ही रस-तत्वों से अपना पोषण करता है।ध्यातव्य है कि यह रासना और अमर- लता से भिन्न है।वे दोनों सहज-स्वतन्त्र रुप से उद्भुत हैं,जब कि बाँदा एक विकृति की तरह है।यही कारण है कि कुछ विद्वान इसे परजीवी स्वतन्त्र वनस्पति न कहकर वृक्ष की बीमारी ही मानते हैं।किन्तु मैं इसे स्वतन्त्र परजीवी इसलिए कह रहा हूँ, क्योंकि स्वतन्त्रता के सारे लक्षण इसमें विद्यमान हैं- इसकी काष्ट-संरचना अपनी है- खुरदरी गांठदार,पत्तियों का आकार लम्बा-गोलाई युक्त, हरे रंग के सुन्दर गुलाबी पुष्पगुच्छ-लौंग जैसा,फल निमौली जैसे गुच्छों में ही  पाये जाते हैं।यूं तो यह प्रायः किसी भी वृक्ष पर हो सकता है,किन्तु आम,महुआ, जामुन आदि पर सहजता से देखा जा सकता है।आम के वृक्ष में तो सबसे ज्यादा।इसका प्रभाव क्षयकारी है।जिस वृक्ष पर उग जाता है,या कहें जिस वृक्ष को ग्रस लेता है,उसका विकास अवरूद्ध हो जाता है।यही कारण है कि बागों में किसी बृक्ष पर देखते के साथ ही उसका संरक्षक तत्काल ही काट कर नष्ट कर देता है,ताकि इसका कुप्रभाव अधिक फैलने न पाये।
     तन्त्र शास्त्र में बाँदा बहुत ही उपयोगी बतलाया गया है।विभिन्न वृक्षों पर पाये जाने वाले बाँदा का अलग-अलग तान्त्रिक उपयोग है।उन अलग-अलग वृक्षों से ग्रहण का अलग-अलग मुहूर्त भी है।समुचित मुहूर्त में ही निर्दिष्ट विधि से उसे ग्रहण करना चाहिए,तभी समुचित लाभ प्राप्त हो सकता है।अन्यथा नहीं।वनस्पति तन्त्र-सिद्धि के लिए पहले अध्याय में बतलाये गए सभी निर्देशों का सम्यक् पालन करना भी अति आवश्यक है।तभी अभीष्ट की प्राप्ति हो सकेगी।
                           ३.विभिन्न बाँदाओं के प्रयोग
 बाँदा प्रकरण में यहाँ कुछ खास बाँदाओं का वर्णन किया जा रहा है।कुछ ऐसे भी पौधे हैं,जिनके मूल-त्वक-काष्ठ आदि का भी तान्त्रिक उपयोग है।अतः उनकी चर्चा भी इसी प्रकरण में खण्ड विभाजन करके कर देना उचित लग रहा है।यथा- कुश,निर्गुण्डी.पीपल,वट,उदुम्बर इत्यादि।
(१)              वदरी-बाँदा- वदरी संस्कृत का शब्द है-इसका प्रचलित शब्द है- बेर।यह एक सुस्वादु फल है।इसमें बाँदा सौभाग्य से ही मिल सकता है।यदि कहीं दीख जाये, तो स्वाती नक्षत्र में विधिवत निमंत्रण देकर घर लाना चाहिए।विधि वही है जैसा कि पूर्व अध्याय में कहा गया है।एक दिन पहले संध्या समय अक्षत,फूल,जल, सुपारी,पैसा आदि लेकर वृक्ष के समीप जाकर.पूर्व या उत्तर मुख खड़े होकर
प्रार्थना करे- "हे दिव्य वनस्पति देव ! मैं अपने अभीष्ट सिद्धि हेतु कल प्रातः आकर आपको अपने घर ले चलूँगा।आप कृपया मेरे साथ अपने दिव्य विभूतियों सहित चलकर मेरा मनोरथ सिद्ध करें। " – कहकर अक्षत,फूल आदि वहीं वृक्ष मूल में छोड़ दें।अगले दिन प्रातः स्नान-पूजनादि से निवृत्त होकर कुछ औजार लेकर पास जायें।वृक्ष को प्रणाम कर, ऊपर चढ़कर, साथ लाये गए औजार से बाँदा को काट लें।अब साथ लाये गए लाल या पीले कपड़े में लपेटकर श्रद्धापूर्वक माथे से लगायें।घर आकर देव-प्रतिमा-स्थापन की संक्षिप्त विधि से स्थापन करके पंचोपचार/षोडशोपचार पूजन करें।इसके बाद ग्यारह माला शिव पंचाक्षर एवं ग्यारह माला देवी-नवार्ण मंत्रों का जप,हवन,तर्पण,मार्जन सम्पन्न करके कम से कम एक ब्राह्मण और एक दरिद्रनारायण को भोजन दक्षिणा सहित प्रदान करें।इस प्रकार आपका कार्य पूरा हो गया।अब, जब भी आवश्यकता हो,उस पूजित काष्ठ में से थोड़ा अंश काट कर लाल या पीले कपड़े या तांबे के ताबीज में भरकर प्रयोग कर सकते हैं।कल्याण भावना से (व्यापार नहीं)किसी को दे भी सकते हैं।इस बदरी-बाँदा का एक मात्र कार्य है- मनोनुकूलता प्रदान करना।यानि किसी से कुछ सहयोग लेना हो,कोई कार्य करवाना हो तो विधिवत धारण करके उस व्यक्ति के पास जाकर अपने इष्ट मंत्रों का मानसिक जप करते हुए प्रस्ताव रखना चाहिए।
आपका कार्य अवश्य सिद्ध होगा।यह एक अनुभूत प्रयोग है।
(२)            वहुआर का बाँदा- वहुआर एक सुपरिचित पौधा है.इसका एक नाम लिसौढ़ा भी है। इसका वृक्ष बहुत बड़ा नहीं होता।अमरूद वगैरह की तरह ही होता है।गोल-गोल छोटे बेर की तरह इसके फल होते हैं।फल लस्सेदार(लार की तरह) खाने में लगते हैं।यही कारण है कि सुस्वादु फलों की श्रेणी में इसे नहीं रखा जा सकता।हाँ, इसकी लकड़ी बड़ी हल्की और चिकनी होती है।देहातों में जुआठ(हल-जुआठ) के
लिए इसका उपयोग होता है।
       बहुआर का बाँदा सौभाग्य से कहीं दीख जाये तो पूर्व वर्णित विधि से मघा नक्षत्र में घर लाकर पूर्व विधि से ही स्थापन-पूजन करके लाल वा पीले वस्त्र में लपेट कर तिजोरी,कोष,भण्डार,आलमारी,वक्से में यथोचित स्थान देदें।नित्यप्रति पंचोपचार पूजन करके,कम से कम एक-एक माला शिव पंचाक्षर एवं देवी-नवार्ण मंत्रों का जप वहीं बैठकर कर लिया करें। यह बहुआर-बाँदा धन-समृद्धि के लिए अद्भुत् प्रसिद्ध है। जिस घर में इस अभिमंत्रित बहुआर बाँदा की नित्य पूजा होती है,वहाँ साक्षात् लक्ष्मी का वास होता है।अन्नादि भण्डार सदा भरे रहते हैं।
(३)            शिरीष बाँदा- कवियों का प्रिय शिरीष एक सुपरिचित पौधा है।इसके विशाल पौधे में बड़े सुन्दर-कोमल फूल लगते हैं।आठ-दस ईंच लम्बी डेढ़ ईंच करीब चौड़ी, पतली सी फली में कुछ बीज होते हैं।इनका औषधीय प्रयोग भी होता है।लकड़ियाँ शीशम को भी मात करने वाली होती हैं,किन्तु वास्तु शास्त्र में इसका उपयोग सर्वथा वर्जित है।शिरीष काष्ठ को सद्यः वंश-नाशक कहा गया है।मैं इसका प्रत्यक्ष दर्शी हूँ।एक सज्जन नया मकान वनवाये,जिसमें अपनी वाटिका में सुलभ प्राप्त शिरीष की लकड़ियों का किवाड़ लगवाये।कई अनुभवी-जानकारों ने- यहाँ तक की बढ़ई ने भी मना किया,किन्तु जाहिल-जिद्दी लोग तो किसी की सुनते नहीं,या कहें भावी होनहार उनकी बुद्धि को ग्रस लेता है।भवन बनने के साल-भीतर ही एक मात्र कुल दीपक का निधन हो गया।आगे लाख प्रयत्न के बावजूद सन्तति-लाभ न कर सके।
    यहाँ मेरा अभीष्ट शिरीष का बाँदा है।इसे कहीं संयोग से प्राप्त कर लें तो, पूर्वा भाद्रपद नक्षत्र में पहले अन्य प्रयोगों में बतलायी गयी विधि से घर में लाकर स्थापन-पूजन कर रख लें।इसका फल सर्व समृद्धि है।हर प्रकार की चिन्ता-कष्ट का निवारण करने वाला है यह।विशेष अवसर पर इसका थोड़ा अंश चन्दन की तरह घिसकर सिर के ऊपर मध्य भाग में तथा ललाट में तिलक की भांति लगाना चाहिए।
(४)            बरगद का बाँदा- (क) बरगद(बर,वट) एक सुपरिचित विशालकाय पौधा है।भगवान भोलेनाथ का यह प्रतीक भी है।शिव की तरह यह जटाजूट धारी भी है।वास्तु प्रकरण में इस पौधे का भवन के पूरब दिशा में होना अति शुभद माना गया है,किन्तु पश्चिम दिशा में उतना ही हानिकारक भी कहा गया है।इसका बाँदा यदि सौभाग्य से कहीं दीख जाय तो पूर्व वर्णित विधि से आर्द्रा नक्षत्र में, घर लाकर स्थापन-पूजन करके रख लें।श्रम,संघर्ष,युद्ध आदि में सदा विजयदायी है-  शिववृक्ष का बाँदा। शारीरिक सुरक्षा और शक्ति-वर्द्धन में इसका जोड़ नहीं।सच पूछें तो यह अद्भुत प्रयोग वाला वनस्पति है।आयुर्वेद में इसके कई औषधीय प्रयोग मिलते हैं।उक्त बाँदा को स्थापन-पूजन के पश्चात् चन्दन की तरह घिसकर गाय के दूध के साथ पीने से तेज और बल की बृद्धि होती है।बुढ़ापे को दूर भगाने की अद्भुत क्षमता है इसमें।
         (ख)वट के अन्य प्रयोग- १. धन-वृद्धि के लिए- यूँ तो वट का बीज ठीक वट-वृक्ष के नीचे नहीं उगता,किन्तु सौभाग्य से कहीं ऐसा पौधा नजर आजाय तो किसी सोमवार या रविपुष्य योग के दिन उसे सम्मान पूर्वक घर ले आयें।किसी अनुकूल जगह पर घर के आसपास लगा दें।पूरबमुखी घर हो तो उसी दिशा में लगायें,और स्थापना विधि से स्थापन-पूजन कर दें।आगे,नित्य उसके समीप खड़े होकर कम से कम एक माला शिव पंचाक्षर मंत्र का जप कर लिया करें।यह पौधा जैसे-जैसे बड़ा होगा,घर में समृद्धि आते जायेगी।
     २.वरगद एक अजीब पौधा है- थोड़ा पुराना होने पर हम देखते हैं कि उसके तने से कुछ जड़ें निकल कर नीचे जमीन की ओर आने लगती हैं।कभी-कभी तो ये जमीन में आकर नये वृक्ष का सृजन भी कर देती हैं।इन अवरोही जड़ों को वरोह या वरजटा कहते हैं।किसी रविपुष्य योग में अथवा सोमवार को आदर पूर्वक इसे काट कर घर ले आयें।विधिवत इसका पूजन करें।फिर इसे छोटे-छोटे टुकड़ों में काट कर सुरक्षित रख दें। नित्य इस से दातून करें।वरोह की कूची(व्रश) बड़ी अच्छी होती है।इसके प्रयोग से दांतों की सभी बीमारियाँ दूर होती हैं। वरोह को सुखा कर चूर्ण बनाकर मंजन की तरह भी प्रयोग करने से दंत रोगों में लाभ होता है।ध्यातव्य है कि सभी वनस्पतियों का औषधीय गुण है,किन्तु उनमें तान्त्रिक गुण भी यथाविधि प्रयुक्त कर दिया जाय तो अद्भुत लाभ होता है।आये दिन शिकायत होती है कि अमुक आयुर्वेदिक औषधि कारगर नहीं है।इसके पीछे औषध-निर्माण प्रक्रिया ही मुख्य रुप से जिम्मेवार है।पहले ऋषि-मुनि इन सारी विधियों का प्रयोग करते थे-(वनस्पति ग्रहण से निर्माण तक),किन्तु आज आधुनिक कम्पनियाँ किसी तरह लाकर,कूंट-चूर,पैक कर बाजार में ठेल देती हैं।जड़ी-बूटियों का वैज्ञानिक शोधन भले कर लेते हों ये निर्माता,किन्तु तान्त्रिक गुण कहाँ भर पाते हैं।यही कारण है कि औषधियाँ निर्बीज होती जा रही हैं।वनस्पति के औषधीय गुणों के साथ तान्त्रिक गुणों का संयोग भी किया जाय तो सोने में सुगन्ध आजाय।
(५)  अश्वत्थ(पीपल) का बाँदा- (क) आम,पीपल,वट,पाकर,और गूलर ये पवित्र पंचपल्लव श्रेणी में आते हैं;जिनमें पाकड़,पीपल,और वट क्रमशः सृष्टि के मूल ब्रह्मा-बिष्णु-महेश कहे जाते हैं।इन तीनों पौधों को एकत्र(एक ही थल में)लगाने का बड़ा ही शास्त्रीय महत्त्व है- इसे त्रिसंकट कहते हैं।त्रिसंकट-वृक्ष स्थापन,पूजन,दर्शन को बड़ा ही धार्मिक कार्य माना गया है।ये वृक्ष आसानी से प्रायः सभी जगह पाये जाते हैं। इनकी विशेषता यह है कि इनका बीज सामान्य वातावरण में उत्पन्न नहीं होते, यानी आप बीज लगाना चाहें तो अंकुरित नहीं होंगे;किन्तु इनके मीठे सुस्वादु फलों को पक्षी भक्षण करते हैं।उनके उदर की उष्मा से बीजों को अंकुरित होने की क्षमता प्राप्त होती है।इस प्रकार पक्षियों के बीटों(मल) से प्राप्त बीज सहज ही उग आते हैं।
      वास्तु शास्त्र में पीपल वृक्ष का स्थान भवन के पश्चिम दिशा में होना लाभकारी कहा गया है,यानी वट के ठीक विपरीत।वहाँ अवस्थित होकर भवन-रक्षा का कार्य करता है पीपल का पौधा।
   आयुर्वेद एवं तन्त्र ग्रन्थों में इनके सैकड़ों प्रयोग भरे पड़े हैं।यहाँ हमारा प्रसंग पीपल वृक्ष का बाँदा-विवेचन है।यदि सौभाग्य से पीपल का बाँदा प्राप्त हो जाय तो पूर्व निर्दिष्ट विधियों से उसे अश्विनी नक्षत्र में ग्रहण करें और विधिवत स्थापन- पूजनोंपरान्त किसी इच्छुक स्त्री को लोककल्याणार्थ प्रदान करें।उसे गाय के कच्चे दूध के साथ पीस कर,गाय के ही कच्चे दूध के साथ पिला दें- रविपुष्य/गुरुपुष्य योग में तो निश्चित ही वन्ध्या को भी सुन्दर-स्वस्थ संतान की प्राप्ति होगी। ध्यातव्य है कि यह अन्यान्य स्त्री दोषों का भी अमोघ निवारण है।हाँ,यदि पुरुष में भी दोष हो तो उसका निवारण पहले कर लेना चाहिए।तभी स्त्री पर उसकी सफलता प्राप्त होगी।यहाँ एक बात का और भी ध्यान रखना है कि शिव एवं शक्ति मंत्रों के साथ-साथ संतानगोपालमंत्र का भी पुरश्चरण(या कम से कम चौआलिस हजार जप)विधिवत दशांश हवन, तर्पण,मार्जन,एवं पांच वटुक भोजन दक्षिणा सहित होना अति आवश्यक है।
(ख)पीपल के अन्य प्रयोग- १. श्रीकृष्ण ने गीता के विभूतियोग में स्वयं को पीपल कहा है।हम ऊपर कह आये हैं कि पीपल साक्षात् बिष्णु का स्वरुप है।एक पौराणिक प्रसंग के अनुसार शनिवार को शनिदेव का वास पीपल में होता है।यही कारण है कि शनि की प्रसन्नता हेतु शनिवार को पीपल में गूड़ मिश्रित जल प्रदान करने का विधान है।यह कार्य पश्चिमाभिमुख करना चाहिये।सायं काल पीपल-तल में दीप-दान से भी शनि प्रसन्न होते हैं।
    २. देव वर्ग से इतर- प्रेत,वैताल,भैरव,यक्षिणी आदि का भी प्रिय वृक्ष पीपल है।ये क्षुद्र योनियाँ पीपल पर प्रायः वास करती हैं।पीपल के जड़ में नित्य जलार्पण से ये प्रेत योनियाँ प्रसन्न होती हैं।हिन्दु रीति के अनुसार दशगात्र तक पीपल के जड़ में यथाविधि जल डालने का विधान है।किसी व्यक्ति को किसी तरह की अन्तरिक्ष वाधा हो तो नित्य, पीपल की पंचोपचार सेवा से अवश्य लाभ होगा।किसी अनाड़ी ओझा-गुनी-तान्त्रिक के पास भटकने से अच्छा है कि श्रद्धा-विश्वास पूर्वक पीपल की पूजा करे। किसी जटिल रोग-बीमारी की स्थिति में (जहाँ डॉक्टरी निदान और उपचार कारगर न हो रहा हो)पीपल के पत्ते पर सायंकाल में दही और साबूत उड़द रख कर पीपल के जड़ के समीप रख दें,और थोड़ा जल देकर प्रार्थना करे- हे प्रभो! आप मेरा संकट दूर करें।सप्ताह भर के इस प्रयोग से अद्भुत लाभ होगा।मैंने हजारों प्रयोग कराकर देखा है,शायद ही कभी निराश होना पड़ा हो।
    ३. धर्मशास्त्रों में पीपल का गुणगान भरा पड़ा है।वैज्ञानिक दृष्टि से भी पीपल बहुत महत्त्वपूर्ण है।किसी शुभ मुहूर्त(पंचांग में वृक्षारोपण मुहूर्त देखकर) में पीपल का वृक्ष लगाकर उसकी सेवा करें।जैसे-जैसे वृक्ष बड़ा होगा आपकी यश-कीर्ति,मान-सम्मान,धन-सम्पदा,आरोग्य की वृद्धि होती जायेगी।
    ४. दरिद्रता निवारण के लिए किसी अनुकूल पीपल वृक्ष-तल में शिवलिंग(आठ अंगुल से अधिक नहीं)स्थापित कर,पंचोपचार पूजनोपरान्त नित्य ग्यारह माला शिव पंचाक्षर मंत्र का जप करें। थोड़े ही दिनों में चमत्कारिक लाभ होगा।
    ५. हनुमद्दर्शन—सामान्य नियम है कि किसी वृक्ष के नीचे शयन नहीं करना चाहिए, विशेष कर रात्रि में तो बिलकुल ही नहीं;विशेष परिस्थिति में पीपल इसका अपवाद है।किसी पवित्र वातावरण में लगे पीपल वृक्ष के समीप(नीचे) बैठकर अठारह /इक्कीश दिनों तक हनुमान की पूजा,जप,
स्तवन,एवं रात्रि शयन आदि करने से प्रत्यक्ष, या कम से कम स्वप्न में तो निश्चित ही दर्शन हो सकता है।इसके लिए किसी शुभ नक्षत्र-योगादि का विचार करके कठोर ब्रह्मचर्य पालन करते हुए सप्तशती के दूसरे(लक्ष्मी)बीज,आदि प्रणव,अन्त नमः तथा हनुमते रामदूताय- मन्त्र का ग्यारह माला नित्य के हिसाव से जप करने से अभीष्ट सिद्धि अवश्य होती है।अनुष्ठान समाप्ति पर षोडशोपचार पूजन सहित रोट(सिर्फ दूध में सने हुए गुड़ मिश्रित आटे की मोटी रोटी के आकार का शुद्ध धी में तला हुआ पकवान) का नैवेद्य अर्पण करे,तथा कुल जप का दशांश हवन-तर्पणादि के बाद, दो बटुक और भिक्षुक का दक्षिणा सहित भोजन भी अनिवार्य है।
(६)             उदुम्बर(गूलर) का बाँदा- यूँ तो ऊपर गिनाये गये पञ्चपल्लवों में आम को छोड़ शेष चारों- (पीपल,वट,पाकर,गूलर)को उदुम्बर कहा जाता है;किन्तु उदुम्बर शब्द रुढ़ हो गया है- गूलर के लिए ही। इसके फल की सब्जी या पकौड़ियाँ भी बनायी जाती है।उदर रोगों के लिए गूलर अमोघ औषधि है।विभिन्न रोगों- खास कर धातुक्षीणता में यह बहुत गुणकारी है।नवग्रहों में यह शुक्र की संविधा है।
      उदुम्बर का बाँदा रोहिणी नक्षत्र में पूर्व कथित विधि से घर लाकर स्थापन-पूजन करने के बाद तिजोरी,गल्ला,आलमारी में लाल या पीले वस्त्र में लपेट कर रख दें।यह धन-धान्य की बृद्धि के लिए अद्भुत है।इसे आप रसोई-घर में भी रख सकते हैं।
उदुम्बर के अन्य प्रयोगः-(क) धनागम- रविपुष्य योग में(गुरुपुष्य में हरगिज नहीं) गूलर का जड़ पूर्व विधि से निमंत्रण देकर घर लावें,और विधिवत स्थापन-पूजन करके,कम से कम ग्यारह माला देवी नवार्ण मंत्र का जप,दशांश होमादि सम्पन्न करने के बाद लाल कपड़े में लपेट कर पूजा-स्थल या कहीं और सुरक्षित रख दें।नित्य पंचोपचार पूजन भी करते रहें।ध्यातव्य है कि प्रथम दिन चढाये गए गन्ध-पुष्पादि को यथावत छोड़ दें,हटायें नहीं।अन्य दिनों वाला पूजन-सामग्री अगले दिन हटाते जाएं।जड़ को  हो सके तो चाँदी में जड़वा कर भी स्थापित कर सकते हैं,तांबा या अन्य धातु नहीं।इस प्रयोग से अप्रत्याशित रुप से धनागम होते रहता है।यह प्रयोग अपेक्षाकृत आसान और शतानुभूत है।
     (ख)सन्तान-सुख-  जिन घरों में सन्तान सुख का अभाव हो-(सन्तान न होता हो,हो-होकर मर जाता      हो, जीवित होकर भी अयोग्य और उपद्रवी- परिवार के लिए दुःखदायी हो,रोगी हो) किसी कारण से भी,वैसी स्थिति में उदुम्बर-मूल का प्रयोग चमत्कारी लाभ देता है।सारी बातें प्रयोग संख्या- ‘क’ के समान ही  रहेगी। अन्तर मात्र इतना ही कि पूजन के बाद अपना अभिप्राय निवेदन करना न भूलें।नित्य प्रार्थना करें कि हे उदुम्बर देव मुझे सन्तान-सुख प्रदान करें- मेरे सन्तान को सद् बुद्धि दें... इत्यादि।प्रयोग के थोड़े दिनों बाद से ही आप विल्क्षण परिवर्तन या लाभ अनुभव करेंगे।
(ग) प्रेम,प्रतिष्ठा और सम्मोहन- प्रायः देखा जाता है कि हर प्रकार से ठीक-ठाक रहने पर भी, किसी-किसी को घर-परिवार-समाज में समुचित  प्रेम-सम्मान नहीं मिलता।ऐसी परिस्थिति में उदुम्बर मूल का प्रयोग चमत्कारी लाभ दिखलाता है।(ध्यान रहे- आकांक्षी का कोई दोष न हो,वह अपने आप में ठीक हो,दोष अन्य का ही हो)।रविपुष्ययोग में उदुम्बर-मूल पूर्ववर्णित विधि से घर लाकर स्थापन पूजन करके आकांक्षी को प्रेम-पूर्वक प्रदान करे,और आशीष दें।ध्यातव्य है यह लोककल्याण की भावना से ही किया जाय।किसी अन्य कारण और उद्देश्य से हरगिज नहीं।जड़ की मात्रा विशेष हो, ताकि कम से कम तैंतीस दिनों तक घिसकर चन्दन की तरह माथे में लगाया जा सके।स्त्रियाँ भी विन्दी की तरह उपयोग कर लाभ पा सकती हैं।खासकर स्त्रियों को ही ऐसे मानसिक कष्ट विशेष रुप से झेलने पड़ते हैं।श्रद्धा-विश्वास पूर्वक प्रयोग करने से अवश्य लाभ मिलेगा।
(घ) सामान्य सुख-शान्ति- उक्त विधि से उदुम्बर मूल का ग्रहण-स्थापन और नित्य पूजन घर में सुख और शान्ति प्रदान करता है।यह प्रयोग निरापद और सुविधाजनक है।कोई भी व्यक्ति इसका प्रयोग स्वयं के लिए कर सकता है।
(ङ) दत्तात्रेय-साधना—भगवान दत्तात्रेय को ब्रह्मा-बिष्णु-महेश का संयुक्त स्वरुप माना जाता है।इनकी पूजा- अर्चना-उपासना भगवान आशुतोष की तरह शीघ्र फलदायी कही गयी है।दत्तात्रेय तन्त्र में विभिन्न प्रयोगों की चर्चा है।प्रसंगवश यहाँ उदुम्बर-प्रयोग की चर्चा कर रहा हूँ।रविपुष्य योग में प्रारम्भ कर, किसी एकान्त और पवित्र स्थान में गूलर के पेड़ के नीचे बैठकर दत्तात्रेय पंचाक्षर(ऊँ दां युक्त) मंत्र का सोलह माला जप इक्कीश दिनों तक करने से चमत्कारिक लाभ होता है।जप से पूर्व नित्य यथासम्भव पंचोपचार/षोडशोपचार पूजन करना चाहिए;और अनुष्ठान समाप्ति की विधि अन्य विधियों जैसी ही होगी- यानी दशांश हवन,तर्पण,मार्जनादि,तथा दो बटुक एवं भिक्षुक भोजन सदक्षिणा अनिवार्य शर्त है।नित्य पूजा में अन्य सामग्री के साथ-साथ मलयागिरि स्वेत चन्दन,स्वेत पुष्प एवं केवड़ा का इत्र आवश्यक है।
साधक को उत्तर या पूर्वमुख बैठना चाहिए।
    यही प्रयोग पूर्व विधि से उदुम्बर-मूल को घर में लाकर भी किया जा सकता है।
(७)           हरश्रिंगार(हरसिंगार) का बाँदा – यह भी जाना पहचाना पौधा है। इसके पौधे मध्यम कद-काठी के होते हैं,और कटे किनारों वाले छोटे-छोटे पत्ते।खूबसूरत सफेद(नारंगी डंठल युक्त) फूल- सुबह-सुबह बृक्ष के चारों ओर गोल घेरे में पसरे- भीनी-भीनी सुगन्ध विखेरते मिलेंगे।यदि आसपास कहीं हरसिंगार का एक भी पौधा है,तो सारा वातावरण रजनीगंधा सा सुवासित हो जाता है।हरसिंगार में बाँदा होना अति दुर्लभ है।संयोग से कहीं प्राप्त हो जाय तो इसे हस्ता नक्षत्र में पूर्व निर्दिष्ट विधि से घर लाकर,पूर्व वर्णित विधि से स्थापन-पूजन कर लें और बक्से, तिजोरी,आलमीरे में यथोचित स्थान पर रख छोड़ें।छोटे टुकड़े को ताबीज में भर कर भुजा अथवा गले में धारण भी कर सकते हैं।जरुरतमन्द को आशीर्वाद स्वरुप दे भी सकते हैं।अक्षय लक्ष्मी के आमन्त्रण के लिए यह बड़ा ही अद्भुत् है।
(८)            थूहर(सीज) का बाँदा- थूहर एक जहरीला सा पौधा है।इसके सर्वांग में दूध ही दूध भरा होता है।इसका दूध आंखों के लिए बड़ा ही घातक है।वैसे इसके दूध को सुखा कर, गोलियाँ वनाकर उदरशूल में वैद्य लोग प्रयोग करते हैं।यानी कि प्राणहर नहीं है।इसकी लगभग डेढ़ सौ प्रजातियाँ हैं।सबके गुणधर्म भिन्न हैं।गृहवाटिका में इसके विभिन्न प्रजातियों को खूबसूरती के लिए लगाते हैं।इसका प्रचलित नाम कैक्टस है।मेरा अभीष्ट ये सभी प्रजातियाँ नहीं,बल्कि इसकी एक खास प्रजाति है, जो एक-डेढ़ ईंच गोलाई वाला तना मूलक होता है।पुराना होने पर मध्यम वृक्ष के
आकार का हो जाता है।तब इसके तने की मोटाई भी काफी अधिक हो जाती है।इसकी हरी कोमल पत्तियों को घी में भूंज कर रस निचोड़, खांसी-जुकाम में भी प्रयोग करते हैं।इसका गुण कफ-निस्सारक है।पहले, देहातों में प्रसूतिका गृह के द्वार पर इसे अवश्य स्थापित किया जाता था।मान्यता यह थी कि इसके द्वार-रक्षण से भूत-प्रेतों का प्रभाव सूतिकागृह में नहीं होता।सूर्य जब  हस्ता नक्षत्र में आते हैं(बरसात के दिनों में) तब इसकी गांठों को सरकंडे के साथ मिलाकर किसान अपने धान के खेतों की रक्षा के लिए मेड़ पर स्थापित करते हैं।आज शहरी सभ्यता में भी प्रायः घरों में इसका छोटा पौधा गमलों में कैद नजर आजाता है।इससे वास्तु दोषों का भी निवारण होता है।विहित समय में थूहर का बाँदा पूर्व निर्दिष्ट विधि से घर लाकर,स्थापित-पूजित कर रख लेना चाहिए। प्रत्युत्पन्न मतित्त्व के लिए यह बड़ा ही अद्भुत है।वाक् पटुता,वाक् चातुरी, प्रभाव, सम्मोहन,मेघाशक्ति वर्धन, दूर्दर्शिता,चिन्तन शक्ति आदि में इसका यथोचित प्रयोग करना चाहिए।ध्यान रहे- ये सारे अद्भुत गुण तत् वनस्पति की विधिवत मंत्र संयोग और सिद्धि से ही सम्भव है।विना सम्यक् सिद्धि के कोई चमत्कार लक्षित नहीं होगा।
(९)             आम का बाँदा- आम का बाँदा अति सुलभ है।प्रायः आम के पेड़ों में यह मिल ही जाता है।इसके प्रयोग भी अपेक्षाकृत सहज हैं।किसी नक्षत्र विशेष का बन्धन भी नहीं है।सिर्फ रविपुष्य योग का विचार करके पूर्व निर्दिष्ट विधि से घर लाकर, स्थापन-पूजन कर किसी पवित्र स्थान में सुरक्षित रख दें।यह बाँदा विजयदायी है।
पुरुषों को दांयी भुजा में एवं स्त्रियों को बांयी भुजा में ताबीज में भर कर धारण करना चाहिए।किसी कार्य की सफलता हेतु इसका प्रयोग किया जा सकता है।
(१०)        कुश का बाँदा- कुश दो-तीन फीट ऊंचा क्षुप जातीय घास है,जिसके विना शुभाशुभ कर्मकांड अधूरा माना जाता है।इसका संस्कृत नाम दर्भ है। नवग्रहों में केतु की यह समिधा है।यूँ तो इसमें बाँदा होना आश्चर्य जनक प्रतीत होता है,किन्तु सच्चाई ये है कि कभी-कभी इसके पतले तनों के बीच कुछ गांठें बन जाती हैं,जो देखने में रुद्राक्ष के छोटे दाने सदृश होती हैं- तन्त्र-शास्त्रों में इसे ही कुश का बाँदा कहा गया है।यह दुर्लभ बाँदा कदाचित प्राप्त हो जाय तो भरणी नक्षत्र में पूर्व निर्दिष्ट विधि से घर लाकर स्थापन-पूजन करके पवित्र स्थान में रख दें।इसकी क्षमता की निरंतरता के लिए नित्य श्री महालक्ष्मी मंत्र का कम से कम सोलह बार जप अवश्य कर लिया करें।इसका मुख्य गुण है- दरिद्रता का नाश करना।इसके सम्बन्ध में एक और बात ध्यान में रखने योग्य है कि बाँदा अपने पूरे रुप में हो- कटा-फटा जरा भी नहीं,अन्यथा कारगर नहीं होगा।
कुश के अन्य प्रयोग- विशेष अवसरों पर कुश की पत्तियों के तीन टुकड़ों की बनी अंगूठी बांयें हाथ की अनामिका अंगुली में एवं दो पत्तियों की दांयें हाथ की अनामिका में पहन कर कर्मकांड-क्रियाओं का विधान है।सामान्य तौर पर लोग जरुरत के समय ही इसे बना लेते हैं,और काम के बाद विसर्जित कर देते हैं; खास कर श्राद्धादि कार्य के बाद का कुशा तो विसर्जित कर ही देना चाहिए।
 कुशा ग्रहण मुहूर्त-  किसी कार्य के लिए कुशा ग्रहण का एक खास मुहूर्त है- अन्य दिनों में उखाड़ा गया कुशा मात्र उसी दिन के लिए योग्य होता है।किसी मास की आमावश्या को उखाड़ा गया कुश महीने भर तक कार्ययोग्य होता है।पूर्णिमा को उखाड़ा गया कुश पन्द्रह दिनों तक कार्ययोग्य होता है;किन्तु भाद्रमास के आमावश्या को उखाड़ा गया कुशा पूरे बर्ष भर के लिए कार्ययोग्य माना गया है।इस विशेष आमावश्या को कुशोत्पाटिनी आमावश्या कहा गया है।प्रातः स्नान के बाद कुश लाने के निमित्त अक्षत, फूल,जलादि के साथ खोदने के लिए कोई औजार लेकर पौधे के समीप जाकर, पूजन-प्रार्थना करके-   ऊँ हुँ फट् स्वाहा मंत्रोच्चारण करते हुए श्रद्धापूर्वक कुश उखाड़ना चाहिए।
       इस प्रकार घर लाए गए कुश से आसन का निर्माण करें।आसनी तैयार हो जाने के बाद उस पर पूर्वाभिमुख बैठकर श्रीविष्णु के पंचाक्षर मंत्र का एक माला जप कर लें।जप करते समय भाव ये रहे कि आसन की सिद्धि हेतु जप कर रहा हूँ।पौराणिक प्रसंग है कि श्री विष्णु जब पृथ्वी के उद्धार के लिए
       महावराह का रुप धारण किए तब शरीर झाड़ने के क्रम में उनके महाकाय से झड़ा हुआ रोम ही पृथ्वी
       पर गिर कर पवित्र कुशा के रुप में अवतरित हुआ।कुशा की पवित्रता का एक और पौराणिक प्रसंग है-         अपनी माता विनीता को विमाता कद्रु की कैद से छुड़ाने के लिए वैनतेय गरुड़जी ने अमृत हरण किया, और शर्त के अनुसार सर्पों के समक्ष कुश पर ही अमृत-कलश को रख कर चले गए।अमृत-कलश के  स्पर्श के कारण कुश की पवित्रता और बढ़ गयी।अस्तु।
       कुश का आसन- यहाँ मेरा अभीष्ट है कुशासन- इस साधित-पवित्र कुशासन पर बैठकर जो भी क्रिया करेंगे,वह सामान्य की अपेक्षा अधिक फलद होगी।ध्यान रहे- अपना साधित यह आसन किसी अन्य को उपयोग न करने दें।वैसे पहले भी कह आए हैं- आसन,माला,वस्त्रादि किसी प्रयोज्य वस्तु का अन्य के लिए व्यवहार निषिद्ध है।अपना प्रयोज्य वस्तु किसी को कदापि न दें, और दूसरे का प्रयोज्य वस्तु कदापि न लें।साधकों को इन बातों का सख्ती से पालन करना चाहिए।
       पवित्री(कुश की अंगूठी)- उक्त भाद्रमास की कुशा को ऐंट-बांटकर (क्रमशः तीन और दो पत्तियों के संयोग से) दो अंगूठियाँ बना लें।इनमें तीन पत्तियों वाली अंगूठी को बांयीं मुट्ठी में,और दो पत्तियों वाली अंगूठी को दांयी मुट्ठी में बन्द कर सात मिनट तक श्री विष्णु पंचाक्षर मंत्र का जप कर लें।आगे किसी अनुष्ठान में इसे अनामिका अंगुली में धारण कर, क्रिया करेंगे तो वह सामान्य की अपेक्षा अधिक फलद होगी।
      कुश मूल की माला- विहित काल में ग्रहण किए गए कुश-मूल की माला(चौवन या एक सौआठ मूल) बनाकर किसी रविपुष्य/गुरुपुष्य योग में श्री बिष्णुपंचाक्षर मंत्र का सोलह माला जप कर कर लें।जप से पूर्व माला को षोडशोपचार पूजित अवश्य कर लेना चाहिए।अब इस साधित कुश-मालिका पर नित्य सोलह माला महालक्ष्मी मंत्र का जप पूरे कार्तिक मास में करने से अक्षय लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।अन्य समय में भी लक्ष्मी मंत्र का जपानुष्ठान इस मालिका पर अत्यधिक फलद होता है।
      कुशासन,कुश माला,कुश की पवित्री का उपयोग किसी भी अनुष्ठान में एकत्र रुप से करना चाहिए।इस सम्बन्ध में कुछ बातें और स्पष्ट कर दूँ- सधवा स्त्री को कुश का प्रयोग कदापि नहीं करना चाहिए। आसन के लिए सफेद कम्बल का आसन,और रुद्राक्ष की माला प्रायः सर्वग्राह्य है।पवित्री की जगह सोने की अंगूठी धारण करना चाहिए।सोना सम्भव न हो तो चांदी-तांबा से भी काम चल सकता है।दूसरी बात यह कि आजकल बाजार में कुश के नाम पर मिलने वाला आसन कुश है ही नहीं,प्रत्युत वैसा ही दीखने वाला "कास " है।वैसे कुश कोई दुर्लभ पौधा नहीं है।बात है सिर्फ पहचान की।     
(११)         अनार का बाँदा- (क) अनार एक सुस्वादु फल है।इसका संस्कृत नाम दाडिम है।यह खट्टे और मीठे दो प्रकार का होता है।मेरा अभीष्ट- स्वाद नहीं, बाँदा है।दोनों में किसी भी पौधे का हो,परिणाम समान है।तन्त्र-शास्त्रों में अनार का बहुत महत्त्व है। यन्त्र लिखने के लिए अनार के डंठल से बनायी लेखनी का उपयोग करने का विधान है। जादू-टोना-टोटका आदि में अनार के विशिष्ट प्रयोग मिलते हैं।अनार का बाँदा घर में रहने से इनसब कुप्रभावों से बँचा जा सकता है।ज्येष्ठा नक्षत्र में अनार का बाँदा पूर्व निर्दिष्ट विधि से घर लाकर स्थापन-पूजन करने के बाद नौ हजार देवी नवार्ण से अभिमन्त्रित करके गृह के मुख्य द्वार के ऊपरी चौखट में जड़ देना चाहिए। इस प्रयोग से हर प्रकार की बाहरी बाधाओं का निवारण होता है।वास्तु-रक्षा के अतिरिक्त शरीर-रक्षा में भी इसका उपयोग किया जा सकता है- तांबे के ताबीज में भर कर, पुरुष दांयी भुजा में,एवं स्त्री बांयीं भुजा में धारण करें।सुविधानुसार गले में भी धारण किया जा सकता है।ताबीज का धागा सदा लाल ही रहेगा- इस बात का ध्यान रखें।
(ख) नक्षत्र भेद से अनार के बांदे का दूसरा प्रयोग भी है।शेष पूजा-विधान पहले की तरह ही है।धन-धान्य,वैभव की कामना से अनार के बाँदा को पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र में घर लाकर स्थापन-पूजन करना चाहिए।पूजन के बाद महालक्ष्मी मंत्र का सोलह माला जप दशांश होमादि अंग सहित अवश्य करे।फिर तिजोरी आदि में उसे स्थायी स्थापर कर दे।समय-समय पर उसके वस्त्र बदलते रहना चाहिए।
(१२)        कपित्थ (कैंत,कैंथ) का बाँदा- यह गणेशजी का प्रिय फल है- कपित्थ जम्बू फल चारु भक्षणम्....एक अद्भुत गुण है इस फल में- हाथी को साबूत फल खिला दें। अगले दिन उसके मल में सीधे समूचा फल मिल जायेगा,किन्तु फोड़कर देखने पर आप हैरान रह जायेंगे- उसके अन्दर का गूदा गायब रहेगा।खट्टे-मीठे स्वाद वाला कैथ देखने में ठीक वेल जैसा होता है,सिर्फ दोनों के रंग में भेद है।कपित्थ भूरे रंग का होता है।कपित्थ का बाँदा किसी अत्याधुनिक बूलेटप्रूफ जैकेट से जरा भी कम नहीं,वशर्ते कि सही समय सही ढंग से इसे प्राप्त कर विधिवत तैयार किया जाय। कृत्तिका नक्षत्र में कपित्थ-बाँदा को यथाविधि घर लाकर पूर्व निर्दिष्ट विधान से स्थापन-पूजन करके पूजा-स्थान में ही सुरक्षित रख दें।जैसा कि अन्यान्य बाँदा प्रयोगों में कहा गया है- शिव-शक्ति मन्त्रों का यथोचित जप-होमादि विधिवत सम्पन्न करना चाहिए।इसके बाद कम से कम एक सौ आठ आवृत्ति देवी कवच का पाठ करना भी इस प्रयोग में आवश्यक है।ध्यातव्य है कि जप-पाठ आदि सभी कार्यों में देव-प्रतिमा की तरह चौकी वगैरह पर ऊँचा स्थान देकर इसे स्थापित कर, अपने  सामने ही रखना चाहिए।प्रयोग के समय पुनः एक आवृत्ति कवच और एक-एक माला पूर्व प्रयुक्त दोनों मन्त्रों का प्रयोग अवश्य कर लें।इसे ताबीज के रुप में एक साथ दोनों भुजा और गले में धारण करना चाहिए।
(१३)        सम्भालू-(निर्गुण्डी)- सम्भालु चावल की एक प्रजाति है- राजभोग,देहरादून,वासमती आदि की तरह
किन्तु यहाँ मेरा वर्ण्यविषय निर्गुण्डी है।इसका एक संस्कृत नाम शेफालिका भी है।शेफालिका के पौधे मध्यम आकार- दस-पन्द्रह फीट के करीब होते हैं,जिनकी पत्तियाँ अरहर की पत्तियों जैसी होती हैं,किन्तु रहर की पती हरे रंग की होती है,जबकि शेफालिका की पत्तियों पर लगता है कि प्रकृति ने धूल भरे चूने का छिड़काव कर दिया हो।इसके हल्के नीले फूल बड़े ही सुहावने लगते हैं।बिहार में इसे सिन्दूवार के नाम से जाना जाता है।इसके और भी कई क्षेत्रीय नाम हैं- मेउडी,भूत केशी,सिन्धुर,अर्थ सिद्धक,इन्द्राणी आदि।इन्द्राणी नाम से भ्रमित नहीं होना चाहिए, क्योंकि इन्द्रायण या इन्द्रवारुण नाम का एक अन्य वनस्पति(लता) भी है।निर्गुण्डी बिहार-झारखंड के जंगलों में प्रचुर मात्रा में पाया जाता है।किन्तु इसका बाँदा अति दुर्लभ है।आयर्वेद में निर्गुण्डी के पंचांग(फल,फूल,मूल,त्वक,पत्र) का उपयोग होता है।यह उत्तम कोटि का वेदनाहर है।तन्त्र में इसके मूल और बाँदा ही उपयोगी हैं।
(क) बाँदा- सौभाग्य से कहीं इसका बाँदा दीख पड़ें तो हस्ता नक्षत्र में पूर्व वर्णित विधि से घर लाकर स्थापन-पूजन करके तिजोरी में स्थान देदें।आर्थिक समृद्धि के लिए यह अति उपयोगी है।अर्थोपार्जन के नये-नये क्षेत्र दीखने लगते हैं,और थोड़े प्रयास में पर्याप्त सफलता भी लब्ध हो जाती है।
 (ख)मूल- निर्गुण्डी-मूल के कई प्रयोग हैं।इसके ग्रहण के लिए रविपुष्य/गुरुपुष्य योग का विचार करके  पूर्व निर्दिष्ट विधि से घर लाना चाहिए।मूल का स्थापन-पूजन भी पूर्ववत अनिवार्य शर्त है।पूजन के बाद सुरक्षित रख देना चाहिए,ताकि आवश्यकतानुसार उपयोग किया जा सके।यहाँ बतलाये जा रहे सभी प्रयोग आयुर्वेदीय मत से ग्राह्य हैं।इनका उपयोग वैसे भी किया जा सकता है;किन्तु तान्त्रिक विधि से ग्रहित-साधित वनस्पतियों का अपना ही चमत्कार है।
1.स्वर-शोधन- पूर्व साधित निर्गुण्डी-मूल को सुखाकर चूर्ण वनालें।आधे चम्मच चूर्ण को सुसुम पानी के साथ प्रातः-सायं कुछ दिनों तक लेते रहने से कंठ-स्वर सुरीला होगा।गले की अन्य समस्याओं में भी इसे प्रयोग किया जा सकता है।
   2.कृशता-निवारण- पूर्व साधित निर्गुण्डी-मूल को सुखाकर चूर्ण वनालें।आधे चम्मच चूर्ण को सुसुम दूध के साथ नित्य प्रातः-सायं कम से कम एकतीस दिनों तक लेने से पाचन-क्रिया ठीक होती है,और बल-वीर्य-ओज की वृद्धि होती है।इस चूर्ण को आयुर्वेदिक अन्य पुष्टिकर योगों के साथ मिला कर भी लिया जा सकता है।
3.रक्त शोधन- विभिन्न प्रकार के चर्मरोगों(दाद,खाज,खुजली,एक्जीमा आदि सत्ताइश प्रकार के क्षुद्र कुष्ट)में  पूर्व साधित निर्गुण्डी-मूल को सुखाकर चूर्ण वनालें।आधे चम्मच चूर्ण को मधु के साथ नित्य प्रातः-सायं छः महीने तक लागातार सेवन करने से समस्त रक्त दोषों का निवारण होता है।


4.शान्तिदायी- पूर्व कथित विधि से निर्गुण्डी मूल का स्थापन-पूजन करके घर में किसी पवित्र स्थान पर रख दें।नित्य प्रति और कुछ नहीं तो कम से कम श्रद्धापूर्वक प्रणाम ही कर लिया करें।इस क्रिया से अनेक  लाभ होंगे- घर में शान्ति-सुख-समृद्धि आयेगी।टोने-टोटके से घर की रक्षा होगी।
5. व्यापार-वृद्धि- विधिवत ग्रहण किए गये निर्गुण्डी मूल (वा पंचाग) को पीले वस्त्र में,पीले सरसो के साथ बांधकर दुकान के चौखट में लटका देने से रुके हुए ग्राहक का आगमन होने लगता है।व्यापार में अप्रत्याशित रुप से विकास होने लगता है।
6.सुरक्षा- निर्गुण्डी-मूल को ताबीज में भर कर धारण करने से भूत-प्रेत,जादू-टोने आदि से सुरक्षा होती है।पहले से प्रभाव-ग्रस्त रोगी भी थोड़े ही दिनों में ठीक हो जाता है।
7.गर्भरक्षा- जिस स्त्री को प्रायः गर्भपात हो जाता हो,उसे पूर्व साधित निर्गुण्डी-मूल को पुनः गर्भरक्षा मंत्र से अभिमंत्रित करके चांदी या तांवे के ताबीज में भर कर, लाल धागे में परोकर रवि या मंगलवार को धारण करा देना चाहिए।
8.निर्गुण्डी-कल्प- तन्त्रात्मक आयुर्वेद में निर्गुण्डी कायाकल्प का विधान है। पूर्व साधित निर्गुण्डी-मूल को सुखाकर चूर्ण वनालें।आधे चम्मच चूर्ण को बकरी के मूत्र के साथ प्रातः-सायं एक बर्ष तक सेवन करने से अद्भुत चमत्कार हो सकता है- यह क्रिया सिर्फ औषध सेवन नहीं,अपितु एक साधना की तरह है।पूरे समय शुद्ध-सात्विक जीवन निर्वाह करते हुए शिव पंचाक्षर एवं देवी नवार्ण जप का अनुष्ठान भी चलता रहेगा।सामान्य गृहस्थ जीवन में मर्यादा पूर्वक रहते हुए भी एक बर्ष की यह साधना- कल्पक्रिया की जा सकती है।कोई पूर्ण ब्रह्मचर्य पूर्वक करे तो सोने में सुगन्ध जैसी बात होगी।इस कायाकल्प के चमत्कारों का वर्णन कितना हूँ किया जाय थोड़ा है।आज के समय में आश्चर्यजनक ही कहा जा सकता है- शरीर इतना शुद्ध हो जाता है कि शस्त्र-स्तम्भन,जल-स्तम्भन,अग्नि-स्तम्भन आदि सारी क्रियायें- खेचरी विद्या की तरह सम्भव होजाती हैं।
 (१४) विदारीकन्द- विदारीकन्द एक जंगली लता है,जिसके कन्द(गांठदार मूल) का प्रयोग शक्तिवर्धक औषधी के   रुप में किया जाता है।इसकी पत्तियाँ पान की तरह होती हैं,और कंद- वाराही कंद की तरह(किन्तु रोंयेंदार नहीं)होते हैं।स्वाद में थोड़ा कड़वा होता है।यूँ तो किसी लता में बाँदा का होना असम्भव सा है,फिर भी जंगलों में भटककर अन्वेषण करने से इस लता का एक खास रुप मिल सकता है- जिसके लरियों में कहीं-कहीं उभरी हुयी गांठे (एक प्रकार की विकृति) मिल जायेगी- यही विदारीबाँदा है।इसे पूर्व वर्णित विधि से पूर्वाफाल्गुन नक्षत्र में घर लाकर स्थापन-पूजन करके पूजा-स्थल या तिजोरी में स्थायी रुप से स्थान देदें।धन-वृद्धि के लिए बड़ा ही सरल प्रयोग है यह।
(१५) कर्पास,रोहित,शाखोट,अशोक,और विल्व- बाँदा प्रकरण के ये अद्भुत रत्न हैं।इनके ग्रहण-काल-भेद हैं- क्रमशः भरणी,अनुराधा,मृगशिरा,उत्तराषाढ़ और अश्विनी नक्षत्र,शेष प्रक्रिया और प्रयोग विलकुल समान हैं। किन्तु संत निर्देशानुसार इसके पूर्ण मंत्र रहस्य को स्पष्ट नहीं कर पा रहा हूँ।वैसे भी आज के विकृति-वहुल परिवेश में इस तरह की शक्तियों की चर्चा सर्वथा अनुचित ही है,क्यों कि निश्चित है कि जान लेने के बाद इनका दुरुपयोग ही होगा.सदुपयोग होने का सवाल ही नहीं है।आँखिर कोई अदृश्य होकर क्या करेगा? मुझे पूरा भरोसा है संत के वचन पर,और तन्त्र के सिद्धान्त पर भी।हाँ,इसके एक अन्य प्रयोग की चर्चा यहाँ करना अप्रासंगिक नहीं होगा- इन बाँदाओं को विधिवत संस्कार करके, शुद्ध गोरोचन के साथ मिश्रण करे,और अंजन की तरह आँखों में लगाकर भूमिविदारण मंत्र का प्रयोग करने से भूगर्भ-तन्त्र का ज्ञान होता है।यहाँ यह ध्यान रखना आवश्यक है कि भूमिविदारण मंत्र की साधना(सवा लाख जप)पहले सुविधा नुसार कर लेनी चाहिए,तभी समय पर प्रयोग करने पर कारगर होगा।
(१६)  निम्ब का बाँदा- आम की तरह ही नीम का बाँदा भी सहज प्राप्त है।आयुर्वेद में नीम को बहुत उपयोगी माना गया है।तन्त्र शास्त्र में इसका उपयोग षट्कर्मों (में तीनअधम) के लिए किया जाता है।इसके ग्रहण के लिए दो नक्षत्र कहे गए हैं- उद्देश्य-भेद से।सिर्फ प्रक्षेपण के लिए ज्येष्ठा और स्थापन के लिए आर्द्रा नक्षत्र का चयन करना चाहिए।अधम तान्त्रिक तो दोनों ही रखते हैं।चूंकि इसका प्रयोग अधम कार्य के लिए ही है,अतः प्रयोग से बचना चाहिए,और सबसे बड़ी बात ये है कि एकपक्षीय(निजस्वार्थ वस) आप ऐसा करते हैं तो बर्ष भर के अन्दर ही आपको इसका दुष्परिणाम भुगतना पड़ेंगा।अतः प्रयोग से पूर्व सौ बार सोच लें कि आप जिसे सताने के लिए यह प्रयोग करने जा रहे हैं,क्या वह सच में दोषी है?यदि सच में दोषी है तो इस तन्त्र से उसे सजा अवश्य मिलेगी,और यदि निर्दोष है,तो सजा सौगुना होकर प्रयोग कर्ता को भोगनी पड़ेगी।वैसे यह प्रयोग है विलकुल अमोघ।
          पूर्व निर्दिष्ट विधान से नीम के बाँदा को प्राप्त करे,और आगे की सारी प्रक्रियायें- स्थापन-पूजनादि पुस्तक के प्रारम्भ में वतलायी गयी विधि से सम्पन्न करें।फर्क इतना ही है कि बाकी सारे प्रयोग घर में किए जाने का निर्देश है,जब कि इस क्रिया की पूरी साधना घर में नहीं करनी है- अनुकूल किसी अन्य सुरक्षित स्थान में करनी है।क्रिया पूरी हो जाने पर भी तैयार साधित निम्बबाँदा को घर में लाकर रखना भी नहीं है,अन्यथा विपरीत परिणाम होंगे।स्थापन पूजन के बाद चामुण्डा मंत्र का कम से कम छतीस हजार,और अधिक से अधिक सवा लाख जप करना चाहिये- दशांश प्रक्रिया सहित।
         ऊपर दो ग्रहण-नक्षत्रों की चर्चा है।ज्येष्ठा ग्रहित बांदा को चूर्ण करके विरोधी के शरीर पर (विशेष कर सिर पर)छिड़क देने की बात है,तो आर्द्रा ग्रहित बांदा को शत्रु के घर में(सम्पूर्ण बांदा) किसी तरह स्थापन का विधान है- यानी उसके घर में गाड़ दे- खास कर उसके शयन-कक्ष में साधित बांदा की उपस्थिति अनिवार्य शर्त है,क्यों कि घर के किसी अन्य भाग में रहने पर परिवार के अन्य लोगों पर ही प्रभाव पड़कर रह जायेगा,खास व्यक्ति अछूता ही रहेगा।ध्यातव्य है कि प्रयोग समय के संकल्प का भी ध्यान रखना है- आप उसके साथ करना क्या चाहते हैं?सजा कौन सी दे रहे हैं?
      अन्य प्रयोग- नीम के बीजों से निकाला गया तेल विभिन्न औषधियों में प्रयुक्त होता है।किसी रविपुष्य योग में नीम के तेल को नौ हजार चामुण्डामंत्र से अभिमंत्रित करके किसी पात्र में रख दे।फिर उस पात्र में विरोधी की तस्वीर(नाम पता सहित लिखकर)डुबो कर कहीं किसी भी नीम के पेड़ पर टांग दें- काले कपड़े में बांध कर।आपका अभीष्ट पूरा होगा थोड़े ही दिनों में- जो संकल्प साधे रहेंगे- प्रयोग में।
(१७) वच – आयुर्वेद में मेधा-वर्धक औषधियों में वच की प्रसिद्धि है।मुख्यतः यह दो प्रकार का होता है- मीठा और कड़वा।कड़वे स्वाद वाले वच को घोड़वच भी कहते हैं।यह किंचिंत जहरीला भी होता है- यानी अधिक मात्रा में सेवन प्राण-घातक हो सकता है।सद्यः प्रज्ञा हरा तुण्डी,सद्यः प्रज्ञा करी वचाः –आर्ष-वचन इस बात को ईंगित करता है कि वच आशुगुणकारी है- खासकर प्रज्ञा के मामले में।स्नायुतन्त्र पर बड़ा अच्छा प्रभाव है वच का।संगीत प्रेमियों के लिए वच,मुलहठी,कुलंजन आदि सद्यः आशीष हैं- यदि इच्छित कोकिल नाद स्वरम्, पिव माघ चतुर्दश कृष्ण दिनम्।अद्रक,भद्रक,पीतरसं,वच,वाकुचि,ब्राह्मी,सद्य घृतम्।।
    इस चेतना-साधक वनस्पति को ग्रहण करने के लिए अन्य वनस्पतियों की तरह नक्षत्रों का आधार न लेकर सूर्यादिग्रहण का आधार लेना है;यानी दोनों में से किसी भी ग्रहणकाल में- जो अपेक्षाकृत लम्बा हो। शेष बातें- स्थापन-पूजन विधान पूर्व निर्दिष्ट ही रहेंगे।हाँ,स्थापनोपरान्त वागीश्वरी मंत्र का कम से कम ग्यारह माला जप प्रतिदिन के हिसाब से २१ दिनों तक करना चाहिए,साथ ही दशांश विधि से होमादि कर्म  भी सम्पन्न करने के पश्चात् यह प्रयोग-योग्य हो जाता है।वच का बांदा अथवा वच की गांठ(कुछ भी) इसी भांति साधित करके प्रयोग करना चाहिए।
   वच का चूर्ण वनाकर आधा चम्मच चूर्ण मधु या गोघृत के साथ प्रातः-सायं लागातार इक्कीश दिनों तक सेवन करने से हर प्रकार की स्वरमंडलीय व्याधियाँ- हकलाहट,स्वरभंग,उच्चारण-दोष,जिह्वा-कष्ट आदि ठीक होकर स्वर मधुर बन जाता है। साथ ही अद्भुत रुप से वाक्-सिद्धि भी होती है।नित्य का औषध-सेवन यदि सूर्योदय से पूर्व किया जाय तो लाभ और भी अधिक हो सकता है।
(१८) गुञ्जा(घुंघची)- गुञ्जा एक जंगली लता है।चिरमिट्टी,रत्ती आदि इसके अन्य नाम हैं।इसके जड़ को ही मुलहठी कहते हैं।बरसात के प्रारम्भ में ही ये अंकुरित हो जाता है,और फाल्गुन आते-आते इसकी पत्तियां मुरझाने लगती हैं।गर्मी में तो दीखना भी मुश्किल है।अन्दर में जड़ें पुष्ट होती रहती हैं,ऊपर की लता प्रायः सूख जाती हैं।इसकी पत्तियाँ इमली की पत्तियों जैसी होती हैं।सुन्दर गुलाबी फूल बड़े ही मोहक लगते हैं। फल गुच्छों में लगते हैं,जो थोड़ी चपटी,किन्तु छोटे मटर जैसी होती हैं।आश्विन महीने में फूल लगते हैं, अगहन में फलियाँ नजर आने लगती हैं।फाल्गुन में पक कर तैयार हो जाती हैं।इसी समय रविपुष्य योग देख कर इन्हें ग्रहण करना चाहिए,अन्यथा यदि विलम्ब हुआ तो फिर फलियां चटक कर विखर जायेंगी।
         गुञ्जा की तीन प्रजातियां तो मैं देख चुका हूँ- स्वेत,रक्त,और गुलाबी।काफी दिनों तक मेरे गृहवाटिका में थी यह लता।इसके अतिरिक्त पीत और श्याम सिर्फ सुनने में आया है।वैसे तन्त्र शास्त्रों में स्वेत का अधिक महत्व है।पुराने समय में इसके सुन्दर बीजों से ही सोनार लोग माप-तौल का काम करते थे।माप का ‘रत्ती’ शब्द इसी का द्योतक है।
         भगवान श्री कृष्ण का यह अतिशय प्रिय वनस्पति है।वे वैजयन्ती और कौस्तुभ के साथ गुञ्जा की माला भी धारण करते थे।गुञ्जा की श्रेष्ठता का यह प्रमाण- नवेत्ति यो यस्य गुणं प्रकर्षं,सतं सदा निन्दति नाऽत्र चित्रम्।यथा किराती करिकुम्भ लब्धः,मुक्ता परित्यज्य विभर्ति गुञ्जाम्।।- यथेष्ठ है।
        स्वेत के अभाव में रक्त का प्रयोग किया जासकता है- ऐसा तन्त्र-ग्रन्थों में वर्णन है,और यह भेद सिर्फ बीज के लिए ही है।गुञ्जा-मूल यानी ज्येष्ठीमधु(मुलहठी)जेठीमध के लिए रंग भेद की बात नहीं है। जेठीमधु का प्रयोग आयुर्वेद में महाकफनिस्सारक औषधि के रुप में होता है।यहाँ प्रसंगवश मैं एक और बात बतला दूँ कि गुञ्जामूल- मुलहठी उत्तमकोटि का कीटाणुनाशक(antibiotic) भी है।शरीर में रोग प्रतिरोधी क्षमता के विकास और पोषण में भी इसका योगदान है।Antihistamine भी है यह।स्वरमंडल पर इसका अद्भुत प्रभाव है।
       ग्रहण-मुहूर्त- किसी भी कार्य की सफलता द्रव्य शुद्धि,और क्रियाशुद्धि पर निर्भर है।द्रव्यशुद्धि में ही सही मुहूर्त की बात आती है।गुञ्जा-बीज अथवा मूल ग्रहण के लिए कार्य-भेद से कई शुभ मुहूर्त सुझाये गए हैं-यथा- रविपुष्य योग,शुक्र-रोहिणी योग,कृष्णाष्टमीहस्त योग,कृष्णचतुर्दशीस्वाति योग,कृष्णचतुर्दशीशतभिषा योग,(किंचित मत से गुरुपुष्य योग भी)।उक्त विवरण के अनुसार स्थिति न बन रही हो तो विशेष स्थिति में सिद्धियोग,अमृतसिद्धि योग,सर्वार्थ सिद्धि योगादि भी ग्रहण किए जा सकते हैं।यदि उक्त किसी भी काल में सूर्यचन्द्रादि ग्रहण योग भी मिल जाय तो फिर क्या कहना।
    गुञ्जा के तान्त्रिक प्रयोग- १.अलौकिक शक्ति-दर्शन- जड़वादी भौतिक विज्ञान के युग में ऐसी बातें करना मात्र उपहास का विषय हो सकता है,किन्तु जिन्हें तन्त्र की आत्मा का अनुभव और ज्ञान है उनके लिए
    कुछ भी आश्चर्य नहीं।पूर्व वर्णित विधियों का सम्यक् पालन करते हुए घुंघची मूल को साधित करने के बाद शुद्ध मधु के साथ घिस कर आंखों में अंजन की तरह लगा ले।ध्यातव्य है कि साधित मूल का पुनः प्रयोग करने के लिए भी उक्त मुहूर्तों का विचार करना आवश्यक है।कुछ नहीं तो रविपुष्य योग,या फिर कम से कम मंगलवार ही सही।अंजन लगा कर किसी एकान्त स्थान में एकाग्रता पूर्वक बैठ कर बस यह चिन्तना करे कि "मुझे किसी अलौकिक शक्ति का दर्शन हो।"आपका चिन्तन जितना गहन होगा,दर्शन भी उतना ही शीघ्र होगा-(मिनटों से घंटों के बीच)।यहाँ यह स्पष्ट कर देना भी उचित है कि ये अलौकिक शक्तियाँ सात्त्विक,राजस,तामस कुछ भी हो सकती है।अतः साहसी व्यक्ति ही यह प्रयोग करें।दूसरी बात यह कि यह पहले से ही निश्चित कर लें कि उनके आगमन के बाद आपको उनसे क्या संवाद करना है- किस उद्देश्य से आपने उन्हें आहूत किया...आप उनसे चाहते क्या हैं....आदि...आदि।
         इस सम्बन्ध में एक पुरानी घटना का जिक्र करना समयोचित लग रहा है।बात अब से कोई चालीस साल पहले की है।मेरे पितृव्य उन दिनों कलकत्ते के बड़ा बाजार,वाराणसी घोष स्ट्रीट में किराये के एक जीर्णशीर्ण मकान में रहते थे।उनके पास पाण्डुलिपियों का कुछ धरोहर था,जिसे बरसात के बाद धूप सेवन करा रहे थे- खुली छत पर,और वहीं चटाई विछाकर विश्राम भी कर रहे थे।आंख लग गयी थी।इसी बीच हवा के झोंके से कुछ पन्ने उड़कर पास के सीढ़ी पर चले गये,जिन्हें एक अन्य किरायेदार की पुत्री ने उठा लिया।संयोग से वह सामान्य संस्कृत की जानकार थी।पन्ने को पाकर उसने प्रयोग साध लिया,और पूरी सफलता भी मिल गयी।किन्तु बात बर्षों बाद तब खुली जब अर्धरात्रि को आहूत किसी तामसी शक्ति का शिकार होकर वह चिल्लाई।लोग दौड़ पड़े।भय से थरथर कांपती लड़की ने अपनी नादानी और मूर्खता का वयान किया,और पाण्डुलिपि का वह पृष्ट पितृव्य के चरणों में रखकर दया की भीख मांगी।इस घटना को लिख कर साधकों को भयभीत नहीं, सावधान करना चाह रहा हूँ।
    २.गुप्त धनादि दर्शन- साधित गुञ्जामूल को अंकोल(अंकोल के अन्य प्रयोग अलग अध्याय में देखें) के तेल के साथ घिसकर आँखों में अंजन लगाने से कुछ काल के लिए दिव्यदृष्टि सी प्राप्त हो जाती है,जिससे साधक जमीन में गड़े-छिपे खजाने का ज्ञान प्राप्त कर सकता है।यह प्रयोग करने के लिए पुनः योगादि का विचार करते हुए भूमिविदारण मंत्र की अलग से साधना कर लेनी चाहिए।जीवन में एक बार भी जिस मंत्र का पुरश्चरण कर लिया जाय तो फिर-फिर प्रयोग करने के लिए विशेष कठिनाई नहीं होती,वस समय-समय पर (ग्रहणादि विशेष अवसरों पर)पुनर्जागृत करते रहना चाहिए।दूसरी बात यह कि मंत्र की मर्यादा का ध्यान रखना भी जरुरी है।किसी भी परिस्थिति में(लोभ-मोह वस)दुरुपयोग न हो।इस प्रयोग को अन्य भूगर्भीय ज्ञान(जल,शल्यादि) के लिए भी किया जा सकता है।
   ३.मृत-चैतन्य प्रयोग- अपने आप में यह अति आश्चर्यजनक है,किन्तु तन्त्र की अमोघ शक्तियों पर अविश्वास नहीं करना चाहिए।यदि कहीं असफलता दीख पड़े तो साधक में त्रुटिवस,न कि सिद्धान्त में खोट है।गुलाब के फूलों के स्वरस में साधित गुञ्जामूल को घिस कर किसी तत्काल मृत के शरीर पर सर्वांग(विशेष कर समस्त नाड़ियों पर)लेप कर दें तो कुछ काल के लिए मृतक की चेतना वापस लौट सकती है।किन्तु यहाँ विचारणीय यह है कि ऐसे क्षणिक कार्य-सिद्धि के लिए इतना कठोर प्रयोग करके हम क्या लब्ध करेंगे? तान्त्रिक शक्ति का दुरुपयोग ही तो इसे कहेंगे।
   ४.सुरक्षा कवच- व्यावहारिक दृष्टि से यह काफी कठिन लग रहा है,किन्तु प्रयोग है- सिंहनी के दूध में साधित गुञ्जामूल को पर्याप्त मात्रा में घिसकर,एकान्त में नग्न होकर पूरे शरीर पर लेप करके, पुनः कपड़े पहन कर युद्ध में जाये तो उस पर किसी प्रकार का शस्त्राघात सम्भव नहीं है।
   ५.विष निवारण-  साधित गुञ्जा-मूल को जल के साथ पीस कर पिलाने से विभिन्न प्रकार के विष का निवारण होता है,किन्तु ध्यान रहे यह प्रयोग सर्प-विष पर कारगर नहीं है।
   ६.सन्तान दायी- साधित गुञ्जा-मूल को तांबे के ताबीज में भरकर कमर में बांधने से निराश स्त्रियाँ भी सन्तान-लाभ कर सकती हैं।
   ७.ध्वजभंग-निवारक(पुन्सत्व-वर्धक)- भैंस के घी में साधित गुञ्जामूल को घिस कर पुरुषेन्द्रिय पर महीने भर लेप करने से विभिन्न इन्द्रिय विकार नष्ट होकर उत्तेजना आती है,और शुक्र-स्तम्भन भी होता है।
   ८. बल-वर्धक- मुलहठी का चूर्ण एक-एक चम्मच नित्य प्रातः-सायं गोदुग्ध के साथ सेवन करने से ओज- बल-वीर्य की अकूत वृद्धि होती है।तिल के तेल के साथ घिसकर पूरे वदन में लेप करने से भी कान्तिमय सुन्दर शरीर होता है।
  ९.ज्ञान-वर्द्धन- बकरी के दूध में मुलहठी(गुञ्जामूल) को घिसकर दोनों हथेलियों में लम्बे समय तक लेप करने से बौद्धिक विकास होकर धारणा शक्ति विकसित होती है।
  १०.शत्रु-दमन- रजस्वला के रज में गुञ्जामूल को घिसकर आंखों में अंजन कर जिस शत्रु के सामने जाये,वह निश्चित ही पराभूत हो,भाग खड़ा हो।वस्तुतः इस प्रयोग के प्रभाव से शत्रुभाव से दृष्टिपात करते ही देखने वाले को दृष्टिभ्रम हो जाता है।उक्त प्रभाव काले तिल के तेल में मुलहठी घिसकर अंजन करने से भी हो सकता है,किन्तु प्रभाव थोड़ा कम दीखेगा।
       ११. कुष्ट-निवारण- तीसी(अलसी)के तेल में गुञ्जामूल को घिसकर प्रभावित अंग में लेप करने से गलित कुष्ट में लाभ होता है।
    १२.मारण प्रयोग- साधित गुञ्जामूल को शुद्ध गोरोचन(एक अति दुर्लभ जांगम द्रव्य)के साथ पीस कर,अनार की लेखनी से भुर्ज पर मृत्यु-यंत्र (साध्य नाम युक्त) लिखकर श्मशान भूमि में स्थापित करके एक माला मारण-मंत्र का जप करने मात्र से ही शत्रु की बड़ी दर्दनाक मृत्यु होती है- ऐसा तन्त्रशास्त्रों का वचन है। पादपूर्तिक्रम में इन बातों की चर्चा मात्र किए दे रहा हूँ।आज के युग में आत्मनियंत्रण का सर्वदा अभाव सा है,अतः यंत्र और मंत्र को ईंगित भर कर देना ही उचित है।वैसे भी सच्चे साधक को इन सब प्रयोगों में अभिरुचि नहीं होती,और आडम्बरी के हाथ घातक हथियार देना बुद्धिमत्ता नहीं।अस्तु।
(१९) आंवला- आंवला एक सुपरिचित पौधा है।इसके सामान्य गुणों से आम आदमी भी परिचित है।इसके पौधे प्रायः कमोवेस सभी जगह पाये जाते हैं,किन्तु आंमले में बाँदा का पाया जाना परम सौभाग्योदय होने के समान है।यदि दीख जाय कहीं तो पूर्व निर्दिष्ट विधि से आश्लेषा नक्षत्र में घर लाकर विधिवत स्थापन-पूजनोपरान्त धारण करना चाहिए।यह एक अद्भुत सुरक्षाकवच का काम करता है।किसी प्रकार के अस्त्र-शस्त्र का इस कवच पर प्रभाव नहीं प़ड़ता।
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                        ४.बाँदा तिलकःएक विशिष्ट प्रयोग
       ऊपर के प्रसंगों में विभिन्न वनस्पतियों के बांदाओं का परिचय और उनका तान्त्रिक प्रयोग यथासम्भव स्पष्ट करने का प्रयास किया गया।बांदाओं के साथ-साथ उनके जड़ों का भी तान्त्रिक प्रयोग प्रसंगवश साथ में ही दे दिया गया है।इस स्वतन्त्र अध्याय में कुछ खास तरह के तिलक की चर्चा की जा रही है।यूँ तो सामान्य नियमानुसार जिन-जिन वनस्पतियों(बांदा और मूलादि) का जो-जो प्रयोग बतलाया गया है,उसी भांति उन-उन वनस्पतियों का प्रायः तिलक प्रयोग भी किया ही जा सकता है- अपने वुद्धि-विवेक से।फिर भी कुछ विशिष्ट प्रयोगों की चर्चा और भी खुले तौर पर कर देना उपयुक्त लग रहा है।
      पूर्व वर्णित विधि से ग्रहित,पूजित,साधित शाखोट(सिहोर) वृक्ष के बांदा और तदरुप ही आम का बांदा तैयार करले,साथ ही गोखरु(कंटक वनस्पति) ताजी या जड़ी-बूटी की दुकान से लाकर समान मात्रा में तीनों को मिलाकर चूर्ण बना ले।अब इस मिश्रित चूर्ण का चतुर्थांश सैंधव का भी मिश्रण कर दे।ध्यातव्य है कि यह मिश्रण कार्य पुनः रविपुष्य योग विचार करके ही करे,अन्य काल में नहीं।इस भांति चूर्ण तैयार करके एक बर्ष तक स्थायी रखा भी जा सकता है।चारो वनस्पतियों मिश्रण तैयार हो जाने पर कम से कम ग्यारह माला शिव पंचाक्षर और नौ माला शक्ति नवार्ण मन्त्रों का जप अवश्य कर लेना चाहिए। प्रयोग के समय बकरी के दूध के साथ लेप बना कर माथे पर त्रिपुण्ड की भांति लगाले।इसका नित्य प्रयोग भी किया जा सकता है,और विशेष अवसरों पर भी।इस लेप का साधक ध्यान लगाकर बड़े सहज रुप से जो चाहे देख सकता है।जैसे- आपके पास कोई प्रश्न लेकर आया कि मेरा पुत्र घर से भाग गया है या लापता है।अभी वह कहाँ किस स्थिति में है? इस लेप का नियमित साधक वस पल भर के ध्यानस्थ होगा,अपने इष्टदेव का ध्यान करेगा,और उद्देश्य निवेदन करेगा।क्षण भर में ही चलचित्र की भांति वर्तमान(इच्छित) घटना-क्रम उसके सामने घूम जायेगा,जिसे पृच्छक को बता कर लोक कल्याण का महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न कर सकता है।परन्तु ध्यान रहे- इस विद्या का कदापि दुरुपयोग न करे,अन्यथा घोर विपत्ति का सामना करना पड़ सकता है।मेरे कुटुम्ब में एक ऐसे साधक हैं(अभी वर्तमान में भी)जो इस तरह की अनेक साधनायें कर चुके हैं।किन्तु अफसोस कि तन्त्रशास्त्र की आधी बातों को ही उन्होंने अंगीकार किया।लाख हिदायत के बावजूद नियमों की धज्जियां उड़ा दी,और फिर दुष्परिणाम भी सामने ही हाजिर हुआ।तन्त्र को व्यापार बना कर जो दौलत और सोहरत उन्होंने हासिल किया सब कुछ पानी के बुदबुदे सा कुछ ही दिनों में लुप्त हो गया।पत्नी गुजरी,बेटा गुजरा,बहू गुजरी,पोता भी गुजरा,अपना कहा जाने वाला शरीर भी अचानक नाकाम होने लगा...तब थोड़ी आँख खुली,पर क्या बर्षा जब कृषि सुखानी?बड़े मुश्किल से अब थोड़े सम्भले हैं।अतः सावधान।तन्त्र बहुत कुछ दे सकता है,तो सबकुछ छीन भी सकता है।

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