अधीक्षिका
अधीक्षिका
राष्ट्रधर्म,अप्रैल 1987 कमलेश पुण्यार्क
उसे देखते ही अनायास याद आ गयी- ‘अधः पश्यसि किं बाले,पतितं तव किं भुवि...?’
एक ओर गरिमामय पद-आरक्षी अधीक्षक,वह भी वरिष्ट विशेषण युक्त और दूसरी ओर नत निगाहें! न चाहते हुए भी बरवस ही उस
ओर खिंच गया।
कल्पना मेरी क्लासफेलो रह चुकी है।हम
दोनों का साथ खडि़या-पट्टिका से लेकर विश्वविद्यालय तक रहा।एक साथ ही आई.पी.एस.की
तैयारी भी की थी,और अन्तरिक्ष में अट्टालिकायें भी बनायी थी हम दोनों ने।उधर माँ-वाप की आखों
की नींद हराम हो रही थी,‘युवती’ पुत्री को देख-देख कर। एक से एक उदात्त,कुलीन,सुयोग्य वर ढूँढे़ जाते;जिन्हें आज के जमाने में दीपक क्या, ‘सर्चलाइट’ लेकर भी ढूँढ़ना कठिन है;परन्तु वह खोटे सिक्के-सा चकरघिन्नी
खिला पल्ला झाड़ देती, ‘क्या रट लगाये रहती हो मम्मी? मैं क्या कहीं भागी जा रही हूँ? कम्पटीशन कम्पलीट करने के बाद क्या शादी नहीं की जा सकती?’
यह तो ठीक था कि कल्पना कहीं भागी नहीं जा रही थी।मगर वक्त ज़रूर भागा जा रहा
था।इन्टर के द्वार पर दस्तक देने के पूर्व ही वयोवृद्ध माता-पिता को ‘डायजीपाम’की आवश्यकता पड़ने लगी थी। विगत पाँच-छः वर्षों में न जाने कितनी ही गोलियाँ
गटकी जा चुकीं थीं। कितने बार ये वाक्य दुहराये जा चुके थे-‘तुम नहीं समझोगी बेटी!मेरी दुखती दाढ़ का दर्द।’ किन्तु यह जढ़ दाढ़
ऐसी थी,जो डेंटिस्ट के ज़मूरे की पकड़ से दूर छिटकती जा रही थी।आइ.ए. की कौन कहे,बी.ए.-एम.ए. भी हो गया।संयोगवश अपने ही महाविद्यालय में सेवा का अवसर भी मिल
गया।फिर एक राधिका के इर्द-गिर्द अनेक कन्हैया रास रचाने लगे।परन्तु सबको अंगूठा
दिखाती कल्पना प्रोफेसरी को भी अंगूठा दिखा गयी,सिर्फ एक लक्ष्य को
लेकर।उसे तो धुन सवार थी,
पुलिस-सर्विस की।
गुब्बारे में गैस तो मैंने ही भरा था-‘क्या ही अच्छा होता,हम दोनों आइ.पी.एस. में
आ जाते।मगर अफ़सोस गुब्बारा उड़ गया।मैं
आसमान ताकते ही रह गया। इसी बीच कुटिल काल ने दुखती दाढ़ को समूल नष्ट कर दिया।
सिसकती प्रवया आँसू पोछती हुई
कहती-‘बाप तो चला गया।अब कौन
जाएगा,बेटी का वर ढूँढ़ने?’ और इन्हीं सिसकियों की बदली में अचानक एक दिन आशा नभ में दूज का प्यारा चाँद
नजर आया।मुस्कुराती हुयी मम्मी बोली थी,‘क्यों नहीं ‘इसी से’ विवाह कर लेती कल्पी?
सब कुछ तो...।’
माँ के मुंह की आधी बात मुंह में ही
अटकी रह गयी।घोंटकर पी जाने जैसी निगाहों से
देखा था कल्पना ने,और पाँव पटकती बाहर निकल गयी थी,बुदबुदाती हुई, ‘तुझे तो कुछ सूझता ही नहीं मम्मी...वच्चों सी बातें...।’ आगे के शब्द कुछ ज्यादा ही कड़वे थे, जिन्हें सुन मेरे हृदय में उठा उमंगों का फन एक बार फिर कुचल गया था; कोमलांगी के कठोर पदाघात से,जैसा कि उस दिन के अखवार में अपना
क्रमांक ढूँढ़ते समय हुआ था।
कालचक्र की द्रुत गति,प्रवास-परिवर्तन तथा नवोढ़ा पत्नी के प्रगाढ़ प्रेम के मरहम ने अन्तस् के
विदग्ध व्रण को काफीहद तक ठीक कर दिया था,फिर भी कभी कभार लगाम ढीली पाकर
अन्तस् का अश्व अड़ जाता,कभी खुद को कोसने लगता--‘‘क्या पागलपन सवार था मुझ पर,वह तो प्राध्यापिका से अधीक्षिका बन गयी...मैं क्या बना...? ‘यो ध्रुवाणि परित्यज्य,अध्रुवाणि निसेवते; ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति,अध्रुवं नश्यमेव हि’ यह किसी पागल की उक्ति तो है नहीं पर मैं पागल बन गया....।’’
ऐसी आत्मग्लानि के मेघसंकुल वातावरण में चंचला की चमक सी, पत्नी की मधुर वाणी कानों में पड़े इत्र-फुलेल सा सुगन्धित कर जाती, ‘आपने पुनः प्रयास भी कहाँ किया...? एक ही झटके में टूट कर विखर
गये।फिर कहीं कुछ प्रयास करके देखिये, प्रतिभावान और कर्मठ के लिये
दरवाजे कभी बन्द नहीं होते...।’
सुवामा के सुझाओं की प्रेरणा ही खींच लाई सुदूर उत्तराखण्ड एक साक्षात्कार के
सिलसिले में। कंधे से लटकता आजानुविलम्बित सोशलिस्टिक झोला और हाथ में जीर्ण
प्रमाणपत्रों की संचिका थामे फुटपाथी ‘कॉफी-हाउस’ के सामने खड़ा कुल्हड़ की सोंधी-सोंधी चाय की चुस्की लेते हुए,हवामहल तो नहीं पर झोंपड़ी जरूर बन रहा था। तीस पैसों के महा त्याग के बदले
शरीर और मस्तिष्क की थकान को एक साथ मिटाने वाला इससे बढि़याँ और क्या नुस्खा हो
सकता है? चाय की मीठी-मीठी घूँट के साथ स्मृतियों के कड़वे घूँट भी घुटकता जा रहा था--‘पुस्तैनी धरोहर पाँच बीघा जमीन रेहन रखी है...परदादा निर्मित भवन का शेष चौथा
कोना भी भीषण बरसात के सामने घुटने टेक रहा है,परमाणु बम से त्रस्त जापान की
तरह...खाँय-खाँय करते,चिपचिपे बलगम उगलते बापू का श्राद्ध तो कर दिया,पत्नी के जेवर से,‘वार्षिकी’ अभी बाकी ही है...आसपड़ोस के साथ-साथ असाध्य रूग्णा माँ के व्यंग्य बाण छलनी
किये जा रहे हैं, ‘पढ़-लिख कर बबुआ सोने की वर्षा करेगा, हुँऽह ! ठीकरे का भी ठिकाना
नहीं...।’ मृदु कटु अन्तिम घूँट के बाद कल्हड़ फेकने ही वाला था कि जीर्ण दमियल सी खर खर
करती एक गाड़ी बगल में आ खड़ी हुई, जिसके तेज हॉर्न की कर्कश ध्वनि से
रोम-रोम सहम गया,साथ ही ड्राईविंग सीट पर बैठी अप्रत्याशित शक्ल चौंका गयी मुझे।
शीघ्र ही स्वयं को सहेजा,और क्षण भर में ही बहुत कुछ देख लिया मेरी निगाहों ने,-
चश्मे के मोटे शीशे से झाँकती काली
प्रत्यंचा...खुरदरा धँसा कपोल...छुहारे सी सूखी छरहरी काया...कटि चुम्बित कुन्तल
की जगह ग्रीवाग्राही गेशु गुच्छ.....।अभी कुछ और देखता,किन्तु एक बार विस्फारित होकर झुक आयी पलकों के मूक प्रश्न का उत्तर देना
आवश्यक जान पड़ा।
‘यहीं इण्टरव्यू था,‘दारूका टेक्सटाइल’में ’ बिना पूछे ही बतला गया और फिर क्या कहता,आगे कुछ सूझा नहीं।शब्द का सोता
सूख गया।होठ खुले रह गये शकुन्त चंचु-से,जिसमें अटका रह गया प्रश्न-‘और तुम?’
‘मेरे डेरे पर नहीं चलोगे?’ --मेरे मूक प्रश्न के उत्तर स्वरूप यह
मुखर प्रश्न बतला गया कि यह यहीं की प्रवासिनी है।उसकी कलाई पर बंधी मर्दानी घड़ी
में झांक कर देखा,
थोड़ा आश्वस्त हुआ;मेरी गाड़ी आने में अभी तीन-चार घंटे देर है।अतः कुछ कहने के वजाय गाड़ी का
गेट खोल बगल की सीट पर जा बैठा।मेरे बैठते ही गाड़ी चल पड़ी वापस मुड़कर,मानो मुझे ही ढूँढ़ने निकली हो।
‘एक मीटिंग में जा रही थी,किन्तु अब न जाऊँगी’-सिर्फ इतना ही कहा था उसने,और फिर कोई बीस मिनट की लम्बी यात्रा के
समापन तक विचार विथीयों में ही खोये रहे थे,हम दोनों।
अन्धकार में आकण्ठ डूबे खण्डहरनुमा बंगले के पोर्टिको में गाड़ी लगाकर कमरे का
ताला खोलती कल्पना के पीछे खड़ा मैं,कई विवर्ण और रंगीन कल्पनाओं में
हिचकोले खाता रहा,साथ ही मानस पटल पर रेंगती रहीं जिज्ञासाओं की चीटियाँ- ‘क्या यहाँ कल्पना अकेली रहती होगी? वरिष्ठ आरक्षी अधीक्षक का यह उजाड़ सा बंगला! न नौकर न संतरी...।
कमरा खोल,सामने मेज पर रखे लम्प को जलाती हुई वह बोली,‘तुम जरा बैठो,मैं
तब तक चाय बना लाती हूँ।यहाँ तो विजली
है ही नहीं,नौकरानी की जरूरत नहीं।’
लैम्प की पीली रौशनी में हण्डे सा प्रतिबिम्ब उभर आया था,उसके मूड़े हुए सिर का,
पीछे की दीवार पर - जो नदी में तैरती टोकरी सा हिल डुल रहा
था।वह भीतर कमरे में चली गयी।मैं वहीं कुर्सी पर बैठा, अस्त-व्यस्त वस्तुओं का मुआयना करता रहा--यह उसी शोख लड़की का कमरा है,जो वस्तु और स्थान की सापेक्षता का हरवक्त ख्याल रखती थी। मैंने देखा, कमरे में मात्र एक चौकी पड़ी थी,जिस पर बिछा था एक कम्बल। एक और
कम्बल मोड़ कर पायताने या कहें सिरहाने पड़ा था।एक मेज,जिसकी दो टांगों की प्लास्टिक सर्जरी की गयी थी,कुछ किताबों और फाइलों
का बोझ थामे एक ओर दीवार से चिपकी खड़ी थी,जिसके नीचे एक बक्सा पड़ा था,जिससे मुझे पुराना परिचय जान पड़ा।एक ओर कोने में ‘झिनगा’ खाट शीर्षासन करता नज़र आया,जिस अभागे को अलगनी का भी काम करना पड़
रहा था।
मेरे मस्तिष्क में अनेक प्रश्न भूखे भेडि़ये की तरह खाँव-खाँव कर रहे थे,तभी वह दो प्यालों में चाय लिए आ पहुँची। एक मेरे हाथ में देकर,दूसरा प्याला स्वयं ‘शिप’ करती,सामने ही चौकी पर बैठते हुए बोली, ‘तुम्हें तो आश्चर्य हो रहा होगा
मुझे यहाँ इस रूप में देख कर?’
‘क्यों नहीं।बात ही
आश्चर्य करने वाली है तुम्हारी...’- मैं कह ही रहा था,कि
बीच में वह बोल पड़ी,‘संसार में आश्चर्यजनक बहुत सी बातें हैं।मैं भी एक हूँ उनमें।’
एक ही घूँट में प्याला खाली कर,पद्मासन में पाँव समेट थोड़ा तन कर बैठ गयी,और बिना पूछे ही मेरे
बहुत सारे प्रश्नों का उत्तर स्वयं देती चली गयी, ‘तुम जानते ही हो आज के
ज़माने को,चुस्तदुरूस्त प्रशासन के नाम से ही बेचैनी होने लगती है।एक तो ईमानदार
कर्मनिष्ट अफसर पैदा ही नहीं होते।ब्रह्मा की लापरवाही से एकाध अगर हो भी गये तो ‘कौओं’ से ज्यादा ‘वगुलों’ की नींद हराम हो जाती है।पदभार ग्रहण करते ही कई रहस्यमयी गुत्थियाँ सामने आ
पड़ी,जिन्हें सुलझाने के क्रम में बड़ी-बड़ी हस्तियाँ बेनकाब़ होने लगीं। सिफारिशों
और आदेशें का फोन सुनते-सुनते कान से मवाद आने लगा।यहाँ तक कि तबादले का आदेश, और वह भी ‘काले पानी’ की सजा सहित।उधर अनवरत वरान्वेषी मम्मी असमय में ही
वूढ़ी हो गयी,दिल और गुर्दे की नमकहरामी से...’
लम्बी दास्ताऩ को बीच में ‘चेन पूल’ करते हुए मैंने टोका,‘...तो क्या अभी तक तुमने शादी नहीं की?’ प्रश्न असामयिक और अनावश्यक सा था,किन्तु किसी दुखती रग पर वार कर गया।
‘शादी?’ फीकी मुस्कान विखेरती हुई बोली,‘पापा की ‘दाढ़’ का दर्द मेरे परिणय के दाढ़ का कैंसर बन गया।कौन वरिष्ट अफसर हमारी विरादरी
में सैंतीस साल तक कुँआरा बैठा रहेगा? वात्सल्य के आँचल से गरिमामयी कुर्सी की धूल झाड़ती मम्मी भी चली गयी, अन्ततोगत्वा विधुर वा विजातीय विवाह की सलाह देकर;परन्तु मैं उनकी अन्तिम इच्छा को भी पूरी कर पाने में असफल रही। अब तो उस
कुर्सी को भी तिलांजलि दे चुकी हूँ।साल से ऊपर हो गया,अधीक्षिका से संचालिका बने।दुसह्य
पदभार से दबी जा रही थी।दम घुटता सा प्रतीत हो रहा था।इस पद ने ही तो ‘परिणीता’ के पद पर बैठने नहीं दिया।फलतः नौकरी छोड़कर यहाँ चली आई।एक ‘श्री’मान ने अपना बंगला और गाड़ी मेरे विद्यालय को दान दे दी।देश के भोले भविष्य की
निःस्वार्थ सेवा से बड़ा ही सुकून मिलता
है.....। खैर छोड़ो मेरी बात।अपनी कहो।इस टेक्सटाईल ने कैसे आकर्षित किया?घर-बार,बीबी-बच्चे...?’
‘इस टेक्सटाईल के साक्षात्कार ने ही तो तुमसे साक्षात्कार करा दिया।तुमने
पितृ-प्रदत्त पति को अस्वीकार किया,और मैं भाग्य प्रदत्त नौकरी को।आज
तक तुम न योग्य पति पा सकी और न मैं योग्य नौकरी।अर्थाभाव की वैशाखी घिसटती
सुख-दुःख सहचरी ‘सेनाटोरियम’ में साँसें गिन रही है।मेरे पास रहा ही क्या,जो ठीक से उसका इलाज़
...।’ मेरे वक्तव्य पर हठात् ब्रेक लगाती कल्पना एकाएक चहक उठी,-‘छोड़ो यह सब... टेक्सटाईल की बाबूगिरी से कहीं ज्यादा वेतन देगा,मेरा विद्यालय।चले आओ यहीं सारी चिन्ता छोड़ कर...।’
मैं खटाक से उठ खड़ा हुआ।जनानी कलाई पर बँधी मर्दानी घड़ी को कनखी से देखा,‘गाड़ी का समय हो गया है।चलता हूँ ।साँस गिनती संगिनी की चिन्ता छोड़ने से भी
छूट नहीं सकती, क्यों कि उसका दूसरा छोर दूसरी खूँटी से बंधा होता है।फिर कभी मिलूँगा,जीवन की किसी पगडंडी पर।’
उसकी कातर आँखें,फड़कते रूखे होंठ कई अनकहे प्रश्नोत्तर लिए जढ़ बने रहे।मुखातिब निगाहें अब
पीठ में चुभने लगीं,कानों से मानो अकथ्य ध्वनि टकराई--
‘‘....रे रे मूर्ख न जानासि गतं तारूण्य मौक्तिकम् ’’ ----अरे मूर्ख! तू नहीं
जानता मेरी जवानी की मोती खो गयी है।
$$$$$$इत्यलम्$$$$$$$
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