वृथा दानं कुवेराय
वृथा दानं कुवेराय
‘राष्ट्रधर्म’ जनवरी,१९८८
कमलेश पुण्यार्क
सुखाड़ की रही-सही
कसर भी धो-पोंछ कर बहा ले गयी बाढ़।जेठरैयत से छीन कर भूमिहीनों में सरकार द्वारा बांटी
गयी जमीन में से पाव एकड़ भर जमीन मुझे भी मिली थी;परन्तु वरूण देव की नराजगी के कारण पिछले
तीन वर्षों से धान तो क्या मकई भी मोहाल रहा।
सरकारी सहायता
के उसी छोटे से अंश पर एक कोने में मिट्टी थाप-थूप कर छोटी सी एक कोठरी और उसके आगे बरामदा खड़ा
कर दिया था।ऊख की अंगेरी से छाँव भी कर लिया था।दिन भर का थका-मांदा,मेहनत-मजदूरी से
जुटाई गई रोटियों का निवाला हलक से उतारते हुए दोनों बच्चों और बीबी के साथ उस राम
मठैया में ही कितनी रातें गुजर गयी,पीछे मुड़कर देखने में भी डर लगता है; मगर आज सिर छिपाने का वह ठौर भी आज
बाढ़ की विभीषिका से धबरा कर नवसिखुये शराबी सा चारो खाने चित्त हो गया।बचते-बचाते
एक बड़ा
सा
ढोंका उसके पैर पर आ गिरा, जिससे पैर टूट गया।तीन दिनों की
गाढ़ी कमाई डॉक्टर बाबू
के
जेब में चली गयी फीस के नाम पर,
दवा
अभी बाकी ही है।पाँव का एक्सरे तो हो गया,पलस्तर अभी बाकी है...।
‘बड़े मालिक आजकल
गाँव आए हुए हैं, जाकर
उन्हीं से कुछ मदद माँगो न! ऐसे दुर्दिन में थोड़ा भी ‘ख्याल’ कर देंगे तो बहुत सहारा हो जाएगा।’- दर्द से कराहती पत्नी ने कहा तो मुझे ध्यान आया, बडे़ मालिक सचमुच
बडे़ उदार आदमी हैं। पिछले साल सुना था- शिवमंदिर ट्रस्ट में दो लाख रूपए दिए थे।
‘बाप रे! दो लाख...!! मैं जीवन में इतनी रकम
कभी देख भी सकूँगा?’ सोच ही रहा था कि घरवाली ने फिर कहा, ‘आज ही चले जाओ,इसी समय।सरकारी राहत का भरोसा क्या? उसके आते-आते तो सुरधाम का पैगाम आ
जायगा।’
पत्नी की बात से
मुझे भी लगा कि वह ठीक कह रही है,
जिन
हेलीकॉपटरों से
रोटियाँ
बंटी थी, उन्हीं से तो नोट भी बँटेंगे। सब उड़
जायेंगे इधर-उधर।रोटियाँ अधिकांश पानी में गिरती हैं,और नोट गिरते हैं अमीरों की झोली में।किन्तु सवाल है कि
शिव-मंदिर में दान देने वाला क्या मुझे भी कुछ दे सकेगा? वहाँ देवता की बात
है।देवता
और
ब्राह्मण की बात ही कुछ और होती है।दान लेने का हकदार सिर्फ वे ही हैं।
ये भूदेव यानी पृथ्वी के देवता कहे गये हैं।मैं न तो ऊपर के
लाइन में हूँ, न नीचे की लाइन में। दान बड़े लोग
दिया करते हैं; वे बड़े लोग जिनके पास इतना है कि खर्च करने का ज़रिया ढूँढ़ना पड़ता
है।दान का बड़ा महत्व है--गुरूजी ऐसा ही कहा करते थे- ‘‘दातव्यमिति यदानं,दीयतेऽनुपकारिणे।देशे काले च पात्रे च,तद्दानं सात्विकं
स्मृतम्।।
(स्थान,समय और व्यक्ति का
विचार करते हुए,अप्रत्युपकारी
भाव से जो दिया जाय वही असली दान है)...तो क्या मैं दान का पात्र विलकुल ही नहीं
हूँ? आतुर...त्रस्त... अकिंचन ... बुभुक्षु... पात्रता की
सभी शर्तें तो विद्यमान हैं,कमी है सिर्फ ब्राह्मणत्व की,इसे भी थोड़ा स्पष्ट करके कहें तो कह सकते
हैं--मैं ब्राह्मण का बेटा नहीं हूँ।परन्तु इसमें मेरी क्या गलती है? क्या यह होना ही
सर्वस्व है? नहीं,ऐसा तो नहीं होना
चाहिये...अर्थ अर्थार्थी को ही चाहिये...सहारा बेसहारे को।पैर वाला वैशाखी क्या
करेगा? सागर में
एक लोटा और जल डाल कर क्या होगा?...प्यास से छटपटाते ,मरूस्थल में पड़े प्राणी के लिए एक बूँद पानी का जो
महत्व है,तलैया के
किनारे वाला उसे क्या समझेगा?.....फिर लगा,बड़े मालिक बड़े दानवीर हैं।लोग उन्हें कलयुग का ‘कर्ण’ कहते हैं।वे मेरी स्थिति जरूर समझेंगे...सहायता जरूर
देंगे,निराश नहीं
करेंगे -- कुछ ऐसा ही दृढ़ विश्वास मन में
संजोये हवेली की ओर चल दिया।रास्ते भर
पुरानी यादें मुँह चिढ़ाती रही...सुनार के सुहागे के साथ
छटपटाकर गलते हुए माँ के
आभूषण
धिक्कारते रहे,जिन्हें ‘सरस्वती की साधना’ में गँवाया था। ‘सरस्वती का वरद पुत्र! तुझे कभी कोई कष्ट नहीं होगा
रे..’ पीठ ठोंकती
माँ के ये अन्तिम आशीष थे। किन्तु आज उस ‘भारती पुत्र’ के प्रशस्त तेजोदीप्त भाल पर अकिंचनता की धूल परत दर परत चढ़ी है।लक्ष्मी उसे विमाता
की तरह त्याग कर चली गयीं हैं। ‘लक्ष्मी और सरस्वती में सनातन बैर है’ -
मेरे
ही जैसे किसी अभागे की यह उक्ति रही होगी।कुछ भी काम न आया सरस्वती का सहेजना।पढ़-लिख
कर घास छील रहा हूँ,ऊपर से घर
क आटा गीला किया...।
विचारों के पथ पर
अचानक अड़चन आयी।सामने बड़े मालिक की पाँच मंजिली हवेली,ताज़जड़े कोहीनूर सी चमक रही थी।गाँव में
सिर्फ खम्भे और तार हैं,विजली कभी आई
नहीं; मगर इसका अभाव बड़े मालिक को कभी खला
नहीं,खुद का
जेनरेटर है उनका।इस समय भी पूरी इमारत बिजली की झालरों से झलमला रही थी।चहल-पहल का माहौल था। आज छोटे सरकार का
जन्मोत्सव है।
पपड़ी पड़े होठों
को जीभ से तर करते हुए,डरते-डरते ‘सहवान’ में घुसा।ऊँची गद्दी पर गावतकिया के सहारे
इष्ट-मित्रों से हँसते-बतियाते बड़े सरकार सामने ही विराज रहे थे।आगे में अखरोट की
छोटी चौकी पर चाँदी की थाल में पान,सुपारी,लौंग,इलाइची,और भी कुछ-कुछ पड़ा
था; साथ ही एक अन्य थाल में गर्व से
गर्दन उठाये
‘अंगूर की प्यारी
बेटी’ अपने
छोटे-छोटे शागिर्दों के साथ ईठला रही थी।मुझ पर नजर
पड़ते ही घूरते हुए बोले- ‘क्या बात है,किसे ढूढ़ रहे हो?’
उनके रौबीले
स्वर से मेरा कण्ठ सूखने लगा।क्या कहूँ, ‘सगी माँ से झगड़ा होने के कारण सौतेली माँ कहीं भाग
गयी है...उसके चलते समाज में बदनामी हो रही है...उस भगोड़ी माँ को ही ढूढ़ने निकला
हूँ...शायद यहाँ मिल जाय।’
किन्तु
यह कह न
सका।माता लक्ष्मी तो चंचला है ही,स्थिर कहीं रह नहीं पातीं;
सौतन
सरस्वती
से
पटती भी नहीं, परन्तु मारा जा रहा हूँ बीच में पिस
कर निर्दोष मैं।
थूक गटक कर गले को
तर किया,और जरा
सम्भल कर बोला-
‘सरकार का ही दर्शन करने चला आया।’
‘कहो क्या बात है?’ मालिक के प्रश्न के
साथ ही उनके मित्रों की नजर भी मेरी ओर खिंच आयी।मैंनें गिड़गिड़ाते हुए कहा- ‘गरीब आदमी हूँ सरकार...बेसहारा...बेरोजगार...बेघर...बाढ़
में घर गिर गया...पत्नी का पांव टूट गया...इलाज के लिये भी पैसे नहीं...दो बच्चे भूख से बिलख
रहे हैं...’
‘तो इसमें मैं क्या
करूँ?’ - मुंह बिचका,हाथ मटकाते हुए
उन्होंने कहा,- ‘जनसेवा की जिम्मेवारी सरकार की है।बाढ़ पीडि़तों को,अकाल पीडि़तों को,बेरोजगारों को,अपंगों को,निकम्मों को,अबलाओं को,सबलाओं को,जिन्दों को,और मुर्दों को
भी...सबका ठेका
सरकार
लिये बैठी ही है,जाते क्यों
नहीं उन सरकारी बाबुओं के पास?
मेरे
पास क्या
‘कारू का खजाना’ है? कितनी
कठिनाई से दो पैसे आते हैं,
तुम्हें
क्या मालूम।सुबह
से सैकड़ों मंगते आ गये...।’ एक दोस्त ने ज़रा
सहानुभूति खर्च की - ‘कुछ दे-दाकर
हटाओ यार,दो-चार
रुपये..’ इसके साथ
ही उनके हाथ जेबें टटोलने लगे।मैंने जरा हिम्मत जुटाकर कहा - भीख माँगने नहीं आया
हूँ सरकार।
‘तो क्या बाप की
कमाई में हिस्सा माँगने आये हो?
खिलाने
की औकाद नहीं थी तो बच्चे पैदा ही क्यों किये थे..?’ दांत पीसते हुए चीखे- ‘अरे वो रामू...कलुआ...लंगटू...कहाँ मर गये सब के
सब...निकालो इस बेहूदे को कोठी से बाहर...।
नौकरों को नाहक
तकलीफ दे रहे हैं सरकार,मैं खुद ही
चला जाता हूँ।गलती से गलत जगह आ गया था - कहते हुये झपटकर बाहर निकल पड़ा। हाँ भूल
से गलत जगह- लक्ष्मी की तलाश में चला आया था।पद्मासना विष्णु-प्रिया ऐसी जगह पर कदापि नहीं मिल सकती, यह स्थान तो
उलूकवाहिनी का है ; इस विचार
के साथ ही
कभी
किसी से सुनी हुई पंक्तियाँ स्मरण हो आयी- ‘सा माता मम भारती प्रतिदिनं,
लक्ष्म्या विमात्रा सह;
मौखर्यं
विदधाति सापि चपला,तूर्णं
गृहान्निर्गताः।तामन्वेषयतां मयात्र भवतो,द्वारं निविष्टं मुदा,मन्येत्वद् वचसात्र नागतवती स्थानान्तरम्
गम्यते।।’’
(मेरी माता
भारती यानि सरस्वती मेरी सौतेली माँ - लक्ष्मी के साथ नित्यप्रति वाद-विवाद करती
रहती है,एक दिन वह
चंचला मेरा घर त्याग कर चलीगयी।उसी माँ को ढूँढते हुए इस द्वार में प्रवेश किया,किन्तु तुम्हारे इस
वचन से लगता है कि वह यहाँ नहीं हो सकती;अतः अन्यत्र जा रहा हूँ।)
कोठी से बाहर निकला
तो बड़े वेग से किन्तु सड़क पर आकर पैरों में मानों बेडि़यां पड़ गई।कदम जरा भी उठ
नहीं रहे थे। ‘घर’ हाँ
धरासायी दीवारों वाला घर! आज से वही तो घर है! चाँद सितारों की रोशनी में प्रकृति
की उन्मुक्त गोद
में
विश्राम करना है।मगर वहाँ सिर्फ जाने मात्र से क्या होना है? सबसे पहले बीबी के लिए दवा चाहिये,सबके लिए रोटी
चाहिये...कहाँ से आयेगा कौन देगा? कल्पद्रुम ने ही ठुकरा दिया,फिर एरण्ड से क्या...?
इन्हीं कंटकाकीर्ण
विचार वीथियों में भटकते हुए, धीरे-धीरे पावों को घसीट रहा था,तभी पीछे से आवाज
आयी- ‘काका ! रूक जाओ
काका!!’ पीछे मुड़
कर देखा, जन्मोत्सव के चमकते जोड़े में छोटे
सरकार बेतहाशा दौड़े चले आ रहे हैं।क्षण भर के लिए ‘सांप सूंघ’ गया। जी चाहा भाग चलूं, मगर भाग न सका। कोई चोर उचक्का तो हूँ नहीं, भागूँ क्यों? तिस पर भी
स्वयं छोटे सरकार,वह भी
अकेले...।मैं ठमक कर खड़ा रह गया।थोड़ी देर में वे समीप आ गये।दोनों बाहें फैलाकर
भर लिया मझे अपने आगोश में।विनीत गद्गद स्वर में बोले- ‘माफ करना काका ! पिताजी
ने तुम्हें
दुर्वचन कहा, इसका बड़ा अफसोस है मुझे।जाने दो
क्या करोगे,वे बड़े
लोग हैं।जमींदार हैं,अरबों की औकात वाले हैं...धन और धतूरा दोनों मदकारी होते
हैं...धन तो धतूरे से भी ज्यादा...।’
मैंने बीच में ही टोका- आप महान हैं छोटे सरकार।आपके पिताजी
भी महान हैं।महान लोग कुछ भी कह सकते हैं,कुछ भी कर सकते हैं। ‘समरथ के नहीं दोष गुसाईं’ तुलसी बाबा ने ऐसा
ही कहा है। मैं तो यह जान कर आया था कि बड़े सरकार बड़े दानी हैं,सहृदय हैं।गरीबों
पर दया करते हैं।इनकी कृपा पर कितनी हीं धर्मार्थ संस्थायें,दातव्य औषधालय,अनाथालय,विद्यालय...क्या-क्या
नहीं चल रहा है...।
मेरे ‘भट्ट प्रसस्ति’ पर कालिख पोतते हुए, कुँअर साहब कहने लगे- ‘संस्थाओं की
बातें छोड़ो काकू।वह नकाबपोशों की वसायी दुनियाँ है।वहाँ हजार देते हैं, लाख भुनाते
हैं।ट्रस्ट के दानियों के नाम संगमरमरी पट्टिकाओं पर खुदते हैं।आने वाला इतिहास भी
उन नामों को जपेगा। सरकारी खज़ाने में सेंधमारी होगी,आयकर का
वारा-न्यारा होगा,वर्तमान
समाज में प्रतिष्ठा मिलेगी...कहाँ तक गिनाऊँ?
यह
सब काम
बड़ी सहजता से ही दानवीरता का नकाब पहन कर हो जाता है; मगर तम्हें दिये गये सहयोग के बदले क्या मिलेगा,कौन जानेगा?कौन इसका इतिहास
लिखेगा? अधिक से अधिक गाँव के दो चार लोग दो चार दिन
चर्चा करेंगे...वस।’ कहते हुए छोटे सरकार
का हाथ कोट की जेब़ में घुसा।मैंने उनके सुपष्ट गोरे हाथ को उत्सुकता पूर्वक जेब़
से बाहर निकलते हुए देखा। नोटों की दो गड्डियाँ पकड़े कोमल, मगर सशक्त हाथ मेरी ओर
बढ़े- ‘तब तक इसे रखो काका,सिर्फ दो हजार ही
हैं।कल मिस्त्री-मजदूर भेज कर मकान में काम लगवा दूँगा।’
मैं
पाषाण-प्रतिमा सा जड़ हो गया।हाथ बढ़ नहीं रहे थे,मस्तिष्क में द्वन्द्व छिड़ा था।हाथों में ‘क्षुद्र’ नोटों को जगह दूँ
या दिल में छोटे सरकार को? कौन काम पहले हो? मगर यह सोचना बेवकूफी है।छोटे सरकार
तो सशरीर मेरे हृदय की स्वर्ण पीठिका पर पहले ही विराज गये हैं।
मुझे मौन देख
छोटे सरकार ने स्वयं ही पहल किया,नोटों की गड्डी को मेरे फटे कुरते की जेब में ठूँसते हुए बोले- ‘सोचते क्या हो काकू ?
घर
जाओ।काकी का इलाज कराओ,बच्चों को
खाना खिलाओ।’
मेरी जु़बान तालु से चिपक चुकी थी।कलेजा तूफान में पड़े
किश्ती की तरह डोल रहा था।आँखें बेहाल थी,दिल के उद्गार अश्रुधार बन कर निकल रहे थे,जिसे रोकने का असफल
प्रयास छोटे सरकार का उत्तरीय कर रहा था।वे कहे जा रहे थे- ‘यही वास्तविक दान है काका। उस निकृष्ट दान का क्या,जो प्रत्युपकार के
लिए दिया जाय? उसे दिया जाय जिसे वास्तविक आवश्यकता
न हो? कुबेर को
दान देने का क्या औचित्य? पेट भरे को खिलाने का क्या तुक? बाढ़ में पटवन का क्या प्रयोजन?’ छोटे सरकार कहे जा रहे थे, मेरे कानों में उनकी
मधुर आवाज गूँज रही थी।आँखों की झपकी गुम हो गयी थी।समझ में नहीं आ रहा था कि मैं
कहाँ हूँ, मेरे समक्ष कौन है--छोटे सरकार...दानवीर
कर्ण...महाराज शिवि...महर्षि दधीचि..या कि....। कानों में अदृश्य वक्ता की ओजपूर्ण
वाणी गूँज रही थी, -‘‘अदेश काले
यद्दामपात्रेभ्यश्च दीयते। असत्कृतमवज्ञातं
तत्तामसमुदाहृतम्।।’’
-----00000 इत्यलम् 00000-----
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