रेत
=श्री=
रेत
‘सोशल ऑडिट" अगस्त,2007 कमलेश पुण्यार्क
वह नहा रही थी।सुकुमार सलोने मुखड़े से तन्मयता
के साथ शीघ्रता के भाव टपक से रहे थे।दिन भर की थकान को शीतल जल से धोकर बहा देना
चाहती थी वह।ऊपर नीले नभ में चाँद मुस्कुरा रहा था।दाड़ू के रेत पर चारो ओर
दुग्ध-धवल चाँदनी की चादर बिछी हुई थी।सूरज की लाली को आकाश छोड़े घंटे भर से
ज्यादा गुजर चुका था। दिवाकर की गद्दी सुधाकर ने छीन ली थी।दिल की धड़कन कुछ अजीब
तरह से बढ़ आई थी।घर के सारे काम लगभग निपटा चुकी थी वह,फिर भी बहुत कुछ अभी बाकी ही था।क्यों कि जिस काम की तैयारी
में सारा वक्त गुजरा था,वह असल काम तो
अभी बाकी ही है।उसका वक्त अब आ रहा है,जैसा कि
उन लोगों ने आने का समय दिया था-
गाड़ी आने में अभी घण्टा भर शेष था,घण्टा यानी साठ मिनट यानी तीन सौ साठ सेकेन्ड यानी तीन सौ साठ
छोटे-छोटे क्षण।इन लम्बे-लम्हों
की कतार में दिल की धड़कन न जाने कितनी उत्ताल तरंगों में तरंगित होगा, पता नहीं क्या परिणाम होगा! आना तो निश्चित
है,मगर न जाने क्या विचार-विमर्श करते
हैं....आशंका और सम्भावना के झूले में बेचारी का लघु मस्तिष्क पेंगे ले रहा था।
गर्मी के आगमन के थोड़े ही दिन बीते
हैं,किन्तु बरसात काफी पीछे छूट चुकी है,फलतः दाडू़ का जल बिल्कुल सूख चुका है।चारों ओर बस रेत ही रेत
बिखरे पड़े हैं। किन्तु अन्तःसलिला सरस्वती की तरह दाडू़ के रेतीले सीने के भीतर
शीतल स्वच्छ जलधार अनवरत प्रवाहित है।यह अन्तःप्रवाह कितने अन्तः-वाह्य मैलों को नित्य धो-धोकर बहाने का काम करता
है।दाड़ू के सीने को नित्य कुरेद-कुरेद
कर छोटे-छोटे कई जख्म किए जाते हैं, और उन रेतीले जख्मों के भीतर के स्वच्छ शीतल जल-राशि में
ग्राम्याओं के कोमल गात गोते लगाते हैं।
पूरे गाँव में जलाशय का लगभग अभाव
है।पथरीले वन-प्रान्तर में कुँए नहीं के बराबर हैं। सरकारी सहयोग से निर्मित जल
साधनों में अधिकांश बीमार ही रहते हैं। जो स्वस्थ हैं उन पर है उच्च वर्ग का
वर्चस्व। सरकारी जलापूर्ति व्यवस्था की मोटी नलिका का मुँह भी उन्हीं के आँगन में
खुलता है।
प्रकृति का उन्मुक्त दान –पानी, जो भोजन से भी कहीं ज्यादा जरूरी है,उस पानी के लिए कितनों को बेपानी होना पड़ता है।अभी हाल की ही
तो बात है।वह गयी थी कलसी लिए मुखिया के कुँए पर पानी भरने। बापू का मुँह प्यास से
सूख रहा था और घर में घड़ा भी सूखा पड़ा था।फलतः मुखिया की फुलवारी में बने सरकारी
कुँए पर जाना पड़ा था,मटकी उठा कर।
जल्दी-जल्दी घड़ारी घुमा,घड़ा भर सिर पर उठा,मटकी को कमर पर रख आगे बढ़ी।सुपुष्ट उरोजों से टकराती,क्षीण कटि पर टिकी सुकोमल श्यामली बाँहों के दृढ़ आलिंगन में
झूलती मिट्टी की मटकी अपने भाग्य पर इठला रही थी।इस पावन हिड़ोले में बैठकर
कुंभकार का कठोर प्रहार,और तीव्र आँच की वेदना बिसार चुकी थी।
गजगामिनी की चाल अब कुछ तेज हो आयी
थी,किन्तु तभी अचानक एक खटका-सा हुआ और
कंचन-सी दमकती काया शीतल जल से सराबोर हो गयी।चटाक की आवाज के साथ सिर का घड़ा फूट
गया।वस्त्र भींगकर चिपट गए शरीर पर।जिन वस्त्रों पर लाज-रक्षा का दायित्व था,वे ही अरक्षित हो गए।पानी ने बेपानी कर दिया।चौंक कर पीछे
मुड़ी,देखा मुखिया का लाडला एक घनी झाड़ी
से निकल कर ठहाके लगा रहा है--कितनी बार कहा- न लिया करो यहाँ पानी,पर तुम न मानी।आज मौका है,तुम्हें इसकी चुंगी तो चुकानी होगी....।
एक खौफ़नाक कहकहे के साथ वह नापाक आगे आया।अपने
बेडौल पंजे पसारकर,और लपककर तोड़ लेना
चाहा कच्चे अनार को।
भींगा जिस्म पीपल के पत्ते-सा थर-थर काँपने लगा और शीतलता के बावजूद दहकते अंगारों-सी
जल उठी। आगे-पीछे कोई उपाय न था बचने का।दरवाजे पर दानव-सा खड़ा था वह
भेडि़या।परन्तु अकल ने साथ दिया,साहस ने
सहारा।
कमर
पर टिकी मटकी पर बाहों का दृढ़ आलिंगन थोड़ा ढीला पड़ा।मटकी झूल उठी कोमलांगी के
सुकुमार करों में।तपाक से उठायी ऊपर उछाल कर,और तड़ाक से दे मारी मुखिया के लाड़ले के सिर पर।घुँघराले सघन
केशों की मर्यादा को तोड़कर खोपड़ी खुल गयी,और गर्म लहू की फुहार शीतल जल के साथ मिलने को मचल
उठी।पिचकारी सी धार छूटी और एक मोटा कतरा उड़कर आ बैठा उसके भींगे जिस्म पर।दौड़कर
दरवाजे से बाहर आयी,और हांफती-कांपती
घर पहुँची,जहाँ हाथ में बताशा लिए,प्यास से मुंह चटपटाते वापू बैठा था खाट पर,पानी की प्रतीक्षा में।
गीली
साड़ी में लिपटी खून से सनी हांफती चली आ रही बेटी को देखकर बाप की प्यास हिरन हो
गयी-‘यह क्या,कैसे हो
गया बेटी? चोट लग गयी क्या? कहाँ लगी चोट?’ किन्तु क्या कहती बेचारी कि चोट कहाँ लगी! जिस्म पर या उससे
भीतर अतल गह्नर में छिपे दिल पर।
खाट
से उठ कर घबराया हुआ बूढ़ा बाप बेटी के सिर पर हाथ फेरने लगा,और धौंकनी-सी चलती सांस को संम्भालती बेटी सिर झुकाये पैर के
अंगूठे से जमीन कुरेदने लगी,मानों
कोमल अंगुली से ही सुरंग खोद डालेगी धरती की छाती पर,और घुस जायेगी उस धरा में जहां कभी लोकापवाद के भय से त्रस्त,
माता सीता घुसी थी।मगर आज धरती फटी नहीं,वल्कि फट पड़ा आसमान।
दरवाजे
पर खड़ा मुखिया घायल सिंह सा दहाड़ रहा था- ‘......हरामजादे निकल बाहर ....निकाल अपनी छिनाल छोरी को,जिसने तबाह कर रखा है,गाँव के भोले छोकरों को....।’
मुखिया के पीछे-पीछे उसके भाड़े
के टट्टू भी आ जुटे।सब के सब घुस आये घर में, और घसीट कर बाहर निकाला बूढ़े को।एक मुछैल
ने धर दबोचा अपनी भुजाओं में बेचारी उस अबला को,और क्रोधित मुखिया की लाठी तड़ातड़ बरसने लगी बूढ़े की दुर्बल
जीर्ण काया पर।लाठी बरसती रही,वह बेबस
तड़पती रही,और तड़पता रहा बूढ़ा- तब तक तड़पता रहा- जब तक ठंढा न हो गया।
बुढि़या
घर में न थी।आयी तब पछाड़ खाकर रो पड़ी पति की लाश पर।उधर चौकीदार की धमकी भरी
कड़ी चेतावनी,कानों में गर्म
सीसे सा घुस,सुखा दिया आखों
की नीर को- ‘खबरदार जो थाने गयी रपट लिखाने... तुम्हें भी हड्डी-पसली
तोड़कर बूढ़े के साथ ही फूँक दूँगा...खैरियत चाहती है तो चुप कर...।’ और उसे चुप हो जाना पड़ा था।
उस
चुप्पी के अब वर्ष भर होने को आये।वह क्या,गांव की कोई भी औरत नहीं जाती मुखिया की फुलवारी वाले सरकारी
कुंए पर पानी लाने।दाडू का गंदला जल ही पूरे गांव की प्यास बुझाता है।गरीबों की
बहु-बेटियाँ खुले तट पर नहाती हैं,और अमीरों
के आवारा छोरे आंखें सेंकते हैं।
हम
चाँद पर पहुँच चुके हैं।चाँद ही क्यों,उससे भी
ऊपर,बिलकुल ऊपर उछल कर आकाश को छू लेना
चाह रहे हैं।गम्भीर सागर की सतह से असन्तुष्ट होकर मीलों भीतर घुसने का प्रयास कर
रहे हैं।सफल भी हो रहे हैं।परन्तु इंच भर की गहराई में छिपे दिल और खोपड़ी में
बन्द दिमाग को देखने का सही अर्थों में प्रयास भी नहीं किया जा रहा है।प्रदूषित
पर्यावरण को स्वच्छ करने का युद्ध स्तरीय प्रयास हो रहा है,परन्तु छोटे से दिल और दिमाग की सफाई यह सोच कर शायद छोड़ दी
गई है कि यह तो साधारण सा काम है,फुरसत में
कभी निपटा लेंगे।आँखें टिकी हैं- इक्कीसवीं सदी पर,किन्तु शेष अंग...वहीं है-पाषाण युग में..उससे भी
पीछे...शताब्दियों पीछे...आदिम युग या कि उससे भी पीछे...।
पीछे
की ओर मुड़कर देखी,तो उसकी ओर कई
जोड़े पांव तेजी से लपके चले आ रहे थे।जल्दी-जल्दी किसी तरह साड़ी लपेटी,तब तक वे सब करीब आ चुके थे।
‘गेउड़ी गांव यही है न?’- एक ने निर्लज्जता पूर्वक पास आकर पूछा,और निगाहें चिपक गयीं चाँदनी में नहाये सलोने मुखड़े पर।आम की
फांकों सी बड़ी-बड़ी आँखें शर्म से झुक आयी।अचानक श्याह पड़ गये होठों पर थोड़ा
कम्पन हुआ,और धीमी सी आवाज आयी-
‘हाँ’।
संक्षिप्त उत्तर सुन प्रश्नकर्ता को सन्तोष नहीं
हुआ।अतः अगला सवाल कर ही डाला- ‘तुम इसी गांव में रहती हो?’ उत्तर पुनः वैसा ही मिला।दिल थामे,पूछने वाला मजबूरी वश आगे बढ़ गया।जरा ठहर कर गीले कपड़े
कचारने के बाद वह भी चल पड़ी घर की ओर।
तेजी से डग भरते पिछले दरवाजे से
घर पहुंची।पहुंचते ही माँ ने डपटते हुए कहा- ‘कहाँ चली गयी थी? वे सब कब के आगये हैं।जल्दी खाना तैयार कर।जलपान मैं भेजवा चुकी हूँ।’
जलपान हुआ।सूखी नदी में स्नान कर रास्ते की थकान भी मिटाई गई।फिर वक्त हुआ
भोजन का।भोजन करते मेहमानों में एक ने कहा- ‘लड़की दिखलाने का काम रात में ही हो जाय तो अच्छा है।भोर की गाड़ी से
हमलोग वापस लौट जाना चाहते हैं।’
लड़की सज-धज कर सामने आई।आई क्या
सबके लिए बहारें ले आई।सिर से पैर तक घूर-घूर कर सबने चांद के अनोखे टुकड़े
निहारा।मगर पल भर में रंग में भंग हुआ। एक ने दूसरे को चिकोटी काटी,और कान में भुनभुनाया- ‘अरे यह तो वही है,जो नदी
में मिली थी....।’
दूसरे ने सिर हिलाया- ‘ठीक ही कहा था- मुखिया के बेटे
ने- ‘‘जलपरी है...जलपरी...कितनों को नाज़ है उस पर....।’
थोड़ी और कानाफूसी हुई आगन्तुकों में,फिर एक ने प्रतिनिधित्व किया- ‘लड़की तो अच्छी है,बाहर भीतर सब संभाल लेती है।खबर देंगे हम जाकर।’
मेहमान चले गये,सो चले गये।खबर
नहीं आई।रेत की रानी राह तकती रही,दिल की
रानी बनने को,मगर रेत सूखा ही
पड़ा रहा।दिल तड़पता रहा,और मुखिया का
बेटा कहकहे लगाता रहा।बेवा बुढि़या बेचैन रही,मगर बेटी का वर नहीं आया।गर्मी गुजरी,बरसात आई। सूखे दाड़ू का दोनों पाट पानी से लबालब भर गया,
पर माँग न भरी।फिर जाड़ा आया।फिर गर्मी
आई।फिर बरसात भी आई।
जाड़े-गर्मी और बरसात का चक्र चलता रहा।चक्र चलता रहा प्रकृति का,और प्रकृति के पुतलों का भी...मुखिया का...थानेदार
का...चौकीदार का...इसका...उसका...और पिसते रहे निरीह ग्रामीण,जिनके पैरों में अब भी- स्वतन्त्रता के इतने दिनों बाद भी पराधीनता और परतन्त्रता की
बेड़ी पड़ी है,दरिद्रता का ताला
पड़ा है,और कैद सिसक रही है आत्मा-
आजादी के परवानों की...गांधी और सुभाष की,भगत और आजाद की,तात्या और
प्रताप की,बोस और घोष की...।
---अब
और क्या---
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें