विडम्बना

                                                        विडम्बना

‘‘युवावाणी’’ आकाशवाणी,राँची                                                        कमलेश पुण्यार्क
      ‘‘आइने के सौ टुकड़े करके हमने देखा है, एक में भी तनहा थे,सौ में भी अकेले हैं।’’
अधूरी पढ़ी पत्रिका एक ओर लुढ़की पड़ी थी।आँखों में थी ग्रीष्मकालीन दोपहरी की नींद की खुमारी,होठों पर थे गीत के बोल,और मष्तिस्क में था उपर्युक्त गीत की गहराई का आलोड़न; परन्तु मन था कोसों दूर,किसी परिचित-अपरिचित  काली बेरहम सड़क पर भीड़ को तराशती चली जा रही किसी चिकित्सिका की तलाश में, एक विवश नारी मूर्ति के प्रत्यागमन की प्रतीक्षा में।
            इसी उहापोह में,न जाने कब आँखें लग गयी।नींद के गर्त  में पूरेतौर पर उतर भी न पाया था,कि दरवाजे पर हल्की सी दस्तक सुनाई पड़ी।अनचाहे ही हाथ कुंडी की ओर बढ़े,मगर खीझ के साथ, ‘हुँह,दोपहर में भी जरा चैन नहीं।परन्तु किवाड़ खुलते ही जिस हांफती चली रहीअप्रत्याशित नारी मूर्ति को सामने सिमटी सहमी सी खड़ी पाया,देखकर भी आँखों पर यकीन न आया। अरे मधु! तुम,इस समय और यहाँ?’ एक साथ दागी गयी, मेरे प्रश्नों की तीन गोलियों से वह तिलमिला सी गयी, ‘क्यों,क्या मैं नहीं आ सकती यहाँ,इस समय,क्या मेरा आना तुम्हें बुरा लगा?’
              ‘नहीं तो।के लघूत्तर के साथ फिर एक बार मेरा मन न जाने कहाँ-कहाँ चक्कर मार आया।
               किसी जमाने में मधु मेरा क्लासफेलो रह चुकी है। आज से बर्षों पूर्व,जब कि हम दोनों पांडिचेरी सहशैक्षणिक विद्यालय में शिक्षा पा रहे थे,जीवन की गुत्थियों से विलग, अनबूझ मासूम दिलों को लेकर;तब क्या पता था,कि नारी एक विड़म्बना है! नर और नारी दो भिन्न तत्त्वों के कृतित्त्व हैं!!
एक ही समोसे के दो छोरों को,दो ओर से,एक साथ दोनों,दांतों तले दबाकर आधा-आधा काट लेते,और फिर एक दूसरे को चिढ़ाते कि मैंने अधिक काट लिया।
                        बाला से युवती और फिर प्रौढ़ा बन,आज वही मेरे सामने खड़ी है;किन्तु क्या सच में वही है,मुकम्मल वही? क्या आज भी हो सकेगा वही सब कुछ,उसी तरह जो उस दिन हुआ करता था?
                        असम्भव,विलकुल असम्भव।
                        वह दिन भी आजकी तरह याद है।हम दोनों नवीं में थे।इन्टरवल के समय भाग कर कैन्टीन से ढेर सारा उपमाले आयी थी वह,और खेल-खेल में ही उसकी कई पेडि़याँ बना डाली थी।फिर मीठे नीम के छौंक से सुवासित साम्भर में डुबो पानी-पूड़ीकी तरह एक मेरे और एक अपने मुंह में धरकर, महातृप्ति की मुद्रा में मेरी गोद में अनचाहे ही लुढ़क पड़ी थी। इसी बीच कवाब में हड्डी की तरह मिस नैयर आ धमकी थी।आँखें तरेर कर गुर्रायी, ‘ये क्या करता है तुमलोग यहाँ? ठहरो हम हेड को कम्प्लेन करेगा आज।गधे भर के छोकरे,शरम नहीं आती...लेरकीके साथ स्कूल ग्राउण्ड में...!
                        उसी दिन पहली बार एहसास हुआ कि लड़की कोई ऐसी चीज है,जिससे लड़कों को अलग रहना चाहिए।मिस नैयर के पीठ फेरते ही दूसरी पेड़ी मुंह में डालते हुए,पूछ बैठा था- क्यों मधु! क्या बात है,मिस क्यों कह रही थी तुमसे अलग बैठने को?’
             अल्हड़ मधु खिलखिलाती हुई खड़ी हो गयी,‘चलो उठो, बड़े भोले बनते हो।क्या तुम्हें नहीं मालूम कि अब हम जवान हो रहे हैं,और हड़बड़ा कर,एकाएक सरक आयी ओढ़नी को ठीक कर लिया था उसने।
                        आज वही मधु ओढ़नी के वजाय,आंचल का पल्लु सम्हालती परिचित अपरिचिता सी द्वार पर खड़ी थी।कमरे में मात्र एक चौकी के सिवा और कुछ साधन न था बैठने का, जिस पर मैं स्वयं बैठा,समझ न पा रहा था- क्या कहूँ।किन्तु पल भर में ही खुद को सहेज कर बोल पड़ा,  बैठो न मधु, क्या हर्ज है,दरवाजा खुला है।किन्तु खुले द्वार के वावजूद, अन्तर मन में बन्द चोर की धड़कने तो बढ़ ही गयी।दोपहर का सन्नाटा...कहीं कोई और आ धमके...एक चौकी पर करीब बैठे एक पुरूष और एक नारी...कई सवाल उठेंगे...क्या जवाब होगा उनका? बहन...साली...मित्र या कि...? पुरूष और नारी के बीच सम्बन्धों का खुलासा अनिवार्य है,थोड़ा जटिल भी।बड़ा विचित्र है हमारा समाज।
            मैं उलझन में था,और वह निर्द्वन्द्व।बैठो नकहते ही, खटाक से बैठ गयी।
      वह बैठ गयी,और मैं चुपके से जा घुसा सामान्य संवेष्ठन में समीप बैठी प्रौढ़ा के अतीत तल में।
                        गिलट और पीतल के नकली आभूषणों और कुमकुम-काजल से सजी,आम की फांकों सी बड़ी-बड़ी नशीली आँखों वाली मधु पल भर में ही किसी युवक को अनंग-शरसे बींध डालने की सामर्थ्य रखती थी,आज से पहले जब मिला था उससे; परन्तु वही आज बिना किसी बाह्याडम्बर के - न आँखों में काजल,न गालों पर पाउडर,न होठों पर लाली,हाथों में चूडि़याँ भी नहीं,बस कलाई पर काली पट्टी वाली घड़ी,कपड़े भी अति सामान्य...।
                        न चाहते हुए भी पूछ बैठा, ‘मधु! ये क्या रूप बना रखा है तुमने? कम से कम हाथों में चूडि़याँ तो...।मेरी बात पूरी होने से पूर्व ही फीकी मुस्कान बिखेरती,होठ बिचकाकर बोली- एक कहावत है न,का पर करूँ सिंगार पिया मोरा आन्हर।उन्हें तो मेरे साज-सिंगार से कोई वास्ता नहीं रहा,फिर क्या जरूरत,मंहगाई के जमाने में बाहरी आडम्बरों की? काजल और चूड़ी के वगैर भी तो मैं वही हूँ।परमात्मा के दिये असली रूप को पोत-पात कर या सीधे कहो कि मुखौटा लगाकर लोग किसको क्या दिखाना चाहते हैं?’
                        जरा ठहर कर,गहरी सांस लेकर बड़ी आशापूर्ण नजरों से मेरी ओर देखती हुई बोली-  ‘शर्मा ब्रेभरीज़के जनरल मैनेजर तुम ही हो न? कल के इन्टरभ्यूका मैं भी एक कैन्डीडेटहूँ।देखो भूल न जाना इस अभागन को।
                        उत्सुकता और आश्चर्य से मैं उसका मुंह ताकने लगा, क्यों कि मुझे जरा भी यकीन न आ रहा था।जहाँ तक हो सका मैं अपने याददाश्त पर जोर दिया; मधु की शादी किसी बड़े घराने में हुई थी।पति केन्द्रीय सरकार में आला अफसर हैं।और आज क्या पहेली वुझा रही है यह? अपने आप से सवाल करते हुए मैंनें पूछा, ‘तुम बेभरीज में काम करोगी? पति की कमाई क्या चुक गयी या तुम्हारी चूडि़याँ वे पहन कर घर बैठ गये,जो तुम लाठी सी हाथ लिए नौकरी की तलाश कर रही हो? कहाँ सौन्दर्यवती गृहलक्ष्मी और कहाँ एक फर्म की स्टेनो,है कोई साम्य इन दोनों में?’
                        नारी आदर्श मंच पर अभी मैं और भाषण देता,परन्तु बीच में ही उसने हुडआउटकर दिया, ‘छोड़ो जी,इस खोखले आदर्श को।यह केवल वातानुकूलित कमरे का टेवल टॉकहै। यथार्थ की धरातल पर आओ तब कुछ पता चले।तुम्हें क्या मालूम, चार बच्चों को घर में नानी के पास छोड़,पांचवीं को पेट में लिए सड़कों की खाक छानती फिर रही हूँ।उन्होंने तो अलग ही घर बसा लिया है,‘पर्सनल सेक्रेटरीलीना के साथ। ऐसी ही भरी दोपहरी में गयी थी एक दिन।खुद के लिए नहीं, बच्चों पर रहम खायें कम से कम।किन्तु जानते हो क्या हुआ? धक्के मार कर सड़क का रास्ता दिखाया था, ‘खबरदार! फिर कभी इस बंगले की ओर पैर न बढ़ाना,नहीं तो तोड़कर हाथ में थमा दूंगा इन टांगों को जिसे घसीटते यहाँ चली आयी,मेरी सुनहरी गृहस्थी में आग लगाने।कुतिया की तरह दर्जन भर बच्चे पैदा कर,चली आयी है,रहम की भीख मांगने... खैर कहो कि लीना बाहर गयी है,अन्यथा अनर्थ हो जाता आज ही।
            लम्बी सांस छोड़ती हुई मधु फिर कहने लगी, ‘सुनने में आया है कि विधुर बताकर कोर्ट मैरेज किया है।क्या मैं भी माँग पोंछ,चूडि़याँ तोड़,विधवा बन,निकल जाऊँ किसी विधुर की तलाश में? परन्तु फिर तो उसी नाव पर जा बैठूंगी,जिसका पेंदा सड़ा हुआ है?  पुरुष !  नारी की विडम्बनाओं से खिलवाड़ करने वाला प्रकृति का नापाक करिश्मा...।
                        मधु के कोमल नथुने आवेश में फड़क रहे थे।वह बके जा रही थी,‘तुम भी एक पुरुष हो।क्या यह नहीं जानते, कि बच्चा जनने में पति-पत्नी की कितनी भागीदारी है? चार बेटे जन चुकी,इस बार भी बेटा ही है गर्भ में।अभी हाल का मेडिकल रिव्यूशायद तुमने नहीं पढ़ा होगा- ‘‘औरत जब सेक्स में असन्तुष्ट होती है,तब मेल इशूकी सम्भावना काफी हद तक होती है। रेपकेस में गर्भवती महिला ज्यादातर बेटा ही जनती है।अधिकांश पुरुष,जिसे समाज और कानून ने "पति" का लाइसेन्सदे दिया है,निरंतर रेप ही तो करता आ रहा है, पत्नी के साथ; ऐसा रेप जिस पर ‘376’ भी नहीं लगाया जा सकता।नारी की अस्मिता,उसका अस्तित्व ही कहाँ रहने दिया है पुरुष ने! अतः मैंने भी निश्चय कर लिया है, पांव से चलने का, बहुत चल चुकी वैशाखी के सहारे।
                        क्षण भर के लिए वह रुकि,कलाई पर बंधी घड़ी देखी,और फिर जरा मुलायम होकर कहने लगीअधिक समय नहीं है मेरे पास,बोर्ड के अन्य मेम्बरानों से भी मिलना है,वैसे तुम्हारी कृपा हुई तो किसी से मिले वगैर भी काम चल जाएगा।
              मधु की राम कहानीमर्माहत कर गयी।समुचित उत्तर के लिए शब्दों के जंगल में भटकने लगा।जी चाहा कि खींच कर उसे भरलूँ बाहों में और अतृप्त होठों को मधुर चुम्बन से सराबोर कर दूँ, उन होठों को -जिन्हें कभी पुरुषका सच्चा प्यार नहीं मिला;जिसके कारण समस्त पुरुष जाति के प्रति उसके दिल में नफरत और घृणा का भाव भरा हुआ है।लगा कि कह दूँ- मधु तुम्हारा सेलेक्शन हो चुका,वगैर इन्टरभ्यू के ही। चाहो तो तुम अभी इसी पल ज्वायनिंग दे सकती हो।तुम्हारे द्वारा लगाए गए पुरुष मात्र के कलंक को पोंछने का मैं हर सम्भव प्रयास करूंगा।ठीक कुछ-कुछ ऐसा ही तो इधर भी है- तुम सुहागन विधवा,और मैं सपत्निक विधुर....!वह तो कब की मुझे छोड़ कर जा चुकी है,किसी डोनरकी तलाश में जो उसे मातृत्व दिला सके।मेरी इस सूनी गृहस्थी में रस कहाँ बच्चों की किलकारियों के बगैर? मुझ भाग्यहीन सागर में लहरें तो हैं,पर मोती नदारथ,फिर कौन गोताखोरी करना चाहेगा? तुम्हारे पति ने त्याग दिया,इसलिए की बहुत बच्चे जन दी, और मेरी पत्नी ने मेरा वहिष्कार किया,इसलिए कि मैं उसे बच्चा न दे पाया।विडम्बना सिर्फ नारी नहीं, सृष्टि मात्र ही विडम्बना है।’ 
            यथार्थ का टेप न जाने कब तक बजता रहा अन्तरमन में।
बिना स्टॉपरका किवाड़ धड़ाक से बन्द हो गया अचानक हवा के झोंके से, और मेरी तन्द्रा टूट गई।देखा तो कमरा खाली पाया,अपनी सूनी गृहस्थी की तरह।बगल में पड़ी पत्रिका के पन्ने फड़फड़ा रहे थे,मानों कह रहे हों- एक में भी तनहा थे,सौ में भी अकेले हैं।
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नोटः-आकाशवाणी के समय और नियम के तहत कहानी के कुछ अंश एडिटकर दिए गए थे।यहाँ ब्लॉग पर रचना अपने पूरे कलेवर में प्रस्तुत है।

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