अतीत का शेषांश
अतीत का शेषांश
"शुभचिन्तिका"
जुलाई,१९८९ कमलेश पुण्यार्क
मैं नहीं था,जब समय था।समय
नहीं है,जब मैं हूँ।मैं और समय का सानिध्य
हुआ,तो वह न रही।अतीत एक सपना सा लगता
है।चाह कर भी अतीत का आलिंगन सम्भव है क्या ?
क्षमा और प्रायश्चित का भी एक समय होता है।बंदूक से निकली गोली,और जुबान से निकले शब्दों को भी वापस पा लेना,इस वैज्ञानिक युग में सम्भव हो सकता है,परन्तु हाथ से निकले समय को पुनः हासिल करना बिलकुल ही असम्भव
है।
शहर के कोलाहल से दूर,शान्त
वातावरण में, सैंकड़ों मील की दूरी पर,अपने आप
में मनस्वी की तरह स्थित एक छोटा सा गांव ‘भोजुआटांड़" टांड़ शब्द को सार्थक करता,लगभग सोया
सा है।शहर से आने वाली काली बेशर्म सड़क भी इससे मुंह मोड़ कर दूर से ही निकल गयी
है।
गाँव आने का बहुत बार मौका लगा है।आया भी हूँ ;किन्तु इस बार जब लम्बे
अरसे के बाद गाँव आया, तो सब कुछ
बदला-बदला सा लगा, जब कि सब कुछ वही है---आम के वगीचे,लहलहाते खेतों में जौ-गेहूं की बालियाँ,नवविवाहिता के माँग की सिन्दूर की तरह चमकते मटर और सरसों के
लुभावने फूल, दुल्हन की साड़ी
की तरह पसरे पड़े थे।शहरी तितलियों से कहीं ज्यादा खूबसूरत,प्राकृतिक सौन्दर्य-सम्पदा वाली मनमोहिनी ग्राम्य
बालायें।पुरानी जमींदारी की डायरी- किलानुमा इमारती खण्डहर,जिसके एक कोने में तब भी मेरा परिवार रहता था,और अब भी वहीं गुजर कर रहा है।दरवाजे पर अविचल-अडिग अश्वत्थ
वृक्ष,जिसने मेरे परदादे और लकड़दादे को भी
देखा था;अब भी महात्मा सुकदेव की तरह स्थिर खड़ा है,मानो कह रहा हो--अभी तुम्हारे भी पोते-परपोते को देखूँगा।गाँव
की सीमा का द्योतक और जिले की सीमा को लेकर नित टंटा खड़ा करने वाली नदी का कलेवर
भी वही है।सब कुछ वही है,परन्तु पहले से
सब कुछ भिन्न। क्यों कि गाँव के बच्चे जो नंगे घूमा करते थे,अब दाढ़ी-मूछों वाले हो चुके हैं।बालायें बड़े-बूढ़ों का आशीष-
"एक से इक्कीश होओ" को शिरोधार्य कर,परिवार नियोजन की निरर्थकता की पुष्टि में जुट गईं हैं।
पिताजी के काले केश ‘सन’ की तरह सफेद हो गए हैं।इमारत की रही सही सफेदी भी कालिमा की चुनौती को
स्वीकार कर लिया है।पिताजी के लगाये हर पौधे अब फलदार हो चुके हैं।कुछ में फल लग
चुके,और कुछ नहीं फल लगने की कसम खा चुके
हैं।शायद उन्हीं में मेरा भी स्थान है।
मैं भी तो उन्हीं का लगाया हुआ एक
पौधा हूँ।सब कुछ वही है,पर मैं कैसे कहूँ-
मैं, जो ‘वह’ न रहा।
दरवाजे पर पांव धरते ही बिठुआ,उठकर
धनुषाकार होकर,आगवानी किया,जो पहले मालिक की मर्यादा न समझकर मार भी बैठता था।स्वस्थ
होते तो शायद पिताजी उछलकर सामने के पेड़ पर चढ़ जाते,या कम से कम मुझे गोद में उठाने का प्रयत्न करते।उधर,सौत पुत्र को देखकर,वर्षों से दबी विमाता की अन्तराग्नि अचानक प्रस्फुटित हो
उठी।बुढ़ापे में पिताजी शायद यही सोच कर शादी किये होंगे कि मृत्यूपरान्त भी हमें
चैन न मिलने पाये।समाज के मुख-तरकस से निरन्तर निकलते व्यंग्य-वाणों से बिंधने लगे,तब धर-पकड़ कर मेरी भी शादी कर दी गयी थी।
सुहागरात में ‘समय की भीख’ के साथ उससे क्षमा मांगते समय मेरी आँखों में आँसू छलक आये थे-‘मुझे शादी नहीं करनी चहिये थी।मेरे इस अपराध को विधाता कभी माफ नहीं कर
सकता।प्रायश्चित ही क्या हो सकता है- मेरे इस
पाप का,सिर्फ तुम्हारे आगे आँसू के बूँदों
के सिवा। मुझे समय चाहिये,अपने को
तुम्हारे काविल बनाने के लिए,और खानदान
के नष्ट धरोहर को,जिसे पिताजी ने
बंधक रख दिया है,छुड़ाने के लिए।
जवाब में आँसू से पाँव पखारते हुए वह मेरे चरणों में आ गिरी थी- ‘देवता के चरणों में तो जीवन अर्पण है, समय जैसा तुच्छ चीज आप क्यों भीख माँग रहे
हैं?’ इसके आगे वह कुछ
न कह सकी और न सुनने के लिए मैं खड़ा ही रहा,वहाँ। बेचारी को क्या पता था- समय कितना मूल्यवान होता है।
लगातार बारह घण्टे तक पृथ्वी को तपाकर थका-माँदा सूरज प्रतीचि दिशा की ओर
जाकर अपना मुँह छिपा पाने में सफल होने की कोशिश कर रहा था।मानों उसके लिए भी अब
किसी तरह के प्रायश्चित का समय नहीं रहा है। मगर मैं कहाँ जाऊ- मुँह छिपाने के लिए!
पूजा की तैयारी शुरू हो गयी है। केले के चार बाँझ वृक्षों को काट कर
धरासायी किया जा चुका है- पूजा-मण्डप की
सजावट के लिए।बन्ध्या को यही
स्थान मिलता है।बैठक में उच्चासन पर विराजमान पिताश्री उच्च स्वरों में मेरी
भूरी-भूरी प्रशंसा किए जा रहे हैं।जरा-सा प्रसाद के लोभ में अपने पहरों वक्त को
दफ़न करने वाले कब कह सकते थे कि आपने उस बच्चे के साथ अन्याय किया हैं।जिस दौलत को इकट्ठा कर खानदानी
धरोहर को वापस पाने लिए उसने अपना सर्वस्व खोया है, उसका कुछ भी प्रतिफल उस अभागे को प्राप्त
नहीं होना है। ऊपर से एक विमाता का बोझ भी उसके सर पर हैं।
पूजा कब प्रारम्भ होकर कब समाप्त हुई,इसका मुझे जरा भी भान न रहा।अचानक पीछे से आकर एक पतली सी
आवाज़ ने मुझे चौंका दिया, लगा कि गहरी नींद से उठ बैठा हूँ- ‘भैया! क्या सोच रहे हो?जो होना था,सो हो चुका।अब हाथ मलने से क्या फायदा? भाभी को ले जाकर अच्छी
रह इलाज करवाओ।शायद अभी लाइलाज़ न हुई हों।‘मुँह बोली बहन मैना की मधुर आवाज मेरे कर्ण मार्ग से प्रवेश
कर हृदय स्थल तक सीधे पहुँच गयी।
घर में प्रवेश के बाद से ही मेरी निगाहें,जिस चीज की तलाश में थी,उसे न पाकर दिल और दिमाग की अजी़ब हालत हो रही थी।किसी से
पूछने की हिम्मत भी जाती रही थी।निराश,जब कुएँ
पर हाथ-मुंह धोने गया
तो फुलवारी के बगल में, कोने में एक
अपरिचित झोंपड़ी को देख बरबस ही मेरे पांव उस ओर खिंच गए।अन्दर जाकर जो भी देखा,उससे अपनी आँखों पर अविश्वास होने लगा।टूटी खाट पर बिछे
चिथड़े,और उसमें लिपटी एक लाश...जरा और समीप
जाने पर मालूम हुआ कि वह लाश नहीं,वरन्
अन्तिम क्षण के इन्तजार में एक नारी शरीर है,जो कभी गुलाब की पंखुडि़यों से भी कोमल थी।
क्या यह वही है,जिसकी मुझे तलाश
थी? गड्ढे में पड़े
शीशे के समान चमकती दो आँखें,कातर कण्ठ
से निकले टूटे-फूटे शब्द--‘आ...ग...ये...मे...रे...दे...व..ता...! बस तुम्हारे दर्शन के
लिए ही ये प्राण अटके रहे अब तक....।’ आँखों तले अँधेरा छा गया।धड़ाम से गिर पड़ा।
उसमें इतनी शक्ति भी न थी कि मुझे उठा सके।मात्र यह कहने के सिवा- ‘मेरे पास रहने से जहर आप में भी कहीं फैल न जाए।’
क्या मैं खोए हुए
समय को पा सकता हूँ? खरीद सकता
हूँ उस दौलत से जो इतने दिनों में कमाया? बाप-दादे के धरोहर को तो सम्भाल लिया, किन्तु अपना धरोहर ही न सम्भाल सका।उसका
जीवन मेरे पास धरोहर ही तो था, जो अब अन्तिम साँस गिन रहा है।अतीत का शेषांश ही तो वर्त्तमान होता है और इसी की नींव पर
भविष्य का महल खड़ा किया जाता है।क्या मेरा वर्त्तमान यही है,जिसे अतीत की कुर्वानियों से सींचा हूँ?
मैंना अभी भी पीछे खड़ी थी,प्रसाद
लेकर।मैं कुछ कहे बगैर,आगे बढ़,उठाया उस मरणासन्न तपेदिक रूग्णा को,अपने पुष्ट कंधे पर,और निकल पड़ा- ढूँढ़ने
अतीत के शेषांश को।
----इत्यलम्----
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