हनुमान जी मर गये


                                            श्री
                                   हनुमान जी मर गये
 सोशल ऑडिट’अक्टूबर,२००७                                               कमलेश पुण्यार्क
        विशाल लालकिला के प्रशस्त मैदान में अपार भीड़ है।क्यों? किसलिए? समय नहीं है सोचने का।
          भोरमभोर भयंकर दावानल की तरह बात की बात में खबर फैली महानगर के गली-कूचों में और भीड़ आ जुटी।
        किसी के बुद्धिवर्धक चूर्ण की चुनौटी छूटी,किसी के नस की डिबिया,किसी का सिगरेट केस छूटा,किसी का बेड टी,किसी के पान का बीड़ा,किसी के बीड़ी का बंडल...किसी के दायें पैर का जूता ही छूट गया,तो किसी के बायें पैर का चप्पल...किसी ने एक  पैर में जूता पहना तो दूसरे पैर में चप्पल... किसी के जूते चप्पल तो सलामत रहे,पर पांव ही उलटे पड़ गये,किसी ने हड़बड़ी में मेमसाब का सैंडिल ही डाल लिया पांवों में,तो किसी ने नंगे पांव ही दौउ़ लगाई- कृष्ण कन्हैया की तरह मानों आर्तनाद सुना हो दुःशासन पीडि़ता का;द्रौपदी का तो सिर्फ हया-हरण ही हो रहा था,यहाँ तो अंजना नन्दन का प्राण-हरण हो गया।
      किसने किया ऐसा जघन्य अपराध,किसकी बाजुओं में इतना बल जागा जो हमारे बजरंगबली के प्राण ले लिए?किसमें इतना शौर्य आया,किसमें इतनी साहस,किसमें इतनी शक्ति,कौन है वह मूढ़मति जो मर्यादा पुरुष के अनन्य भक्त के साथ ऐसा मर्यादा विहीन दुष्कर्म कर डाला? अतुलित बलधामं....’ की तो बात ही कुछ और है, अश्वत्थामा बलिर्व्यासो, हनुमानश्च विभीषणः;कृपश्च परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविनः’ -  की शाश्वतता, महत्ता,और गरिमा का भी तनिक ध्यान न रहा।
          खूँटी पर लटकते कैमरे को कंधे पर लटकाया,और कमरे से निकल पड़ा। पत्रकारिता के भाग दौड़ में और कुछ तो बन नहीं पाता,कम से कम हनुमान जी की शव यात्रा में तो शामिल हो लूँ।जीवन को तो याद न कर सका,पर मृत्यु को कैसे भुला दूँ?..-- यह विचार आते ही बलि-छली वामन की तरह तीन पग में ही नाप गया लालकिले का रास्ता,अन्धा हो जाने के डर से किसी काण शुक्र’ ने रास्ते में व्यवधान न डालावस्तुतः पत्रकार को व्यवधान डालने के लिये बहुत कुछ हर वक्त मौजूद होता है।
     वहाँ पहुँच कर देखा- लगता था स्वर्ग के अक्षय-आरक्षण का आवेदन देने आये हों सभी।नेताओं के नौमीनेसन’ में भी ऐसी भीड़ नहीं देखी गयी कभी,जो आज यहाँ देखने को मिल रहा है।भारी भीड़ देखकर क्षण भर के लिए कलेजा कांप उठा।भीड़ देखकर किसी पत्रकार का कलेजा कांपे- यह तो ऐसा ही है जैसे पेड़ से पेड़ पर कूदते समय बन्दर नीचे गिर जाए।किसी तरह ठेल-ठाल कर आगे बढ़ा।
          मंच के पास हरे ताजे बांस की ठटरी पर मच्छरदानी से भी बड़े-बड़े छिद्रों वाले लाल एकरंगे में लिपटा एक निरीह बन्दर दांत चिहारे पड़ा था,जिसे देखते ही मुंह से बरबस निकल पड़ा--अरे!यही हनुमानजी हैं? महाबलशाली हिडिम्बापति भीम के अग्रज...अतृप्त...क्रोधित एकादश रूद्रावतार,दुर्जेय लंकाधिपति के मान मर्दक पवन सुत का यह क्षुद्र रूप...?- विचारने को विवश हो गया।
     उधर भीड़ से एक आवाज आयी-  केसरी कुमार की माया है,जस-जस सुरसा वदन बढ़ावा तासु दून कपि रूप दिखावा...।’ साथ ही एक और आवाज आयी- मसक समान रूप कपि धरि,लंकेउ चले सुमिरि नर हरि।’
          यह सब सुन सुन कर विचार और गहरा गये- जेहि गिरी चरन देई हनुमंता, चलेउ सो गा पाताल तुरन्ता...तो उसी महिमामय हेमशैलाभदेहं’ का माया शरीर है यह लघु रूप! उसी अपार्थिव का यह है पार्थिव रूप....हो सकता है,क्यों नहीं हो सकता? प्रबुद्ध जन कहा करते हैं-  धर्मस्य तत्वं निहिते गुहायाम्... ।’ परन्तु बात बुद्धि को रूचिकर लगी नहीं।यह तो एक अदना सा बन्दर है।मर गया तो मर गया।इसके लिए इतनी चिंता क्यों? क्यों इतनी हाय तौबा?
          अरे साहब! मर गया नहीं मारा गया।’- आग उगलती दो आँखों ने कहा। मारा गया? किसने मारा?’-पूछने पर पता चला- एक म्लेच्छ ने।’
          म्लेच्छ ने! तेरी ऐसी की तैसी।मतिमन्द म्लेच्छ की यह हिम्मत,मेरे हनुमानजी को ही मार डाला।’- चुटिया फहराते एक त्रिपुण्डधारी ने कहा,और भीड़ से निकल कर मंच पर उछल आये। जिस पापिष्ट ने हमारे आराध्यदेव की हत्या की है,उसका भी दाह संस्कार इनके साथ ही कर दिया जाय...एक ही चिता पर दोनों फूँके जायें।’
          ऐसा ही हो...ऐसा ही हो।’- भीड़ का करकस स्वर आसमान फाड़ने लगा। किन्तु इसमें भी अनर्थ हो जायेगा।हरामखोर म्लेच्छ हनुमानजी के साथ जल कर अक्षय स्वर्ग को प्राप्त हो जायेगा।’- ऊपर लपक कर आये एक गांधी टोपी ने कहा,और पल भर के लिए सबको सांप सूँघ गया।किसी के मुंह से बकार न निकली।
          हृदय के किसी गुप्त कोष्ठ का कपाट खोल,सोया हिंदुत्व खुरखुराकर जाग उठा। पत्रकार का निष्पक्षता धर्म धुल गया क्षण भर में।खोखले हिंदुत्व का धर्मध्वज लहरा उठा मानस मंच पर।रगों में रक्त के वजाय विद्युत धारा प्रवाहित होने लगी।उछल कर मंच पर जा खड़ा हुआ।
          किन्तु मंच पर पहुँचते ही धर्म की खोखली इमारत भरभरा कर ढह गयी।मूढ़ माया का मृत्तिका घट फट से फूट गया।ज्ञान का तीसरा नेत्र खुल गया।मोहान्ध क्रोध कामदेव-सा भस्म हो गया।रति-सी बुद्धि बिलखने लगी।दिल का दर्पण धुल कर स्वच्छ हो गया।विचारों की बाढ़ आ गयी।
          बात अति साधारण सी है---एक अदना सा बन्दर मरा है- दुनियाँ का एक उछृंखल जीव।उद्धमी मरा ही करते हैं।न जाने कितने बन्दर मरे होंगे,कितने हिन्दुओं ने मारा होगा इन्हें- प्रत्यक्ष नहीं तो परोक्ष ही सही।मान्यता है कि धर पर आने वाली विपत्तियों का आभास बन्दर को पहले ही हो जाता है।वह उसे स्वयं पर झेल लेता है,गृहपति को विपदा मुक्त करता है।संकटमोचन का नाम सार्थक होता है। इस तथ्य से अवगत लोग बन्दर अवश्य पालते हैं।स्वयं बचते हैं,बेचारा बन्दर बलि का बकरा बनता है।
          मगर आज बात का बतंगड़’ बना हुआ है।और इसका कारण सिर्फ इतना ही है कि हत्यारा कोई हिन्दू नहीं,एक म्लेच्छ है।सही में वह है भी हत्यारा ही,क्यों कि सिर्फ एक ही बन्दर मारा है।एक दो को मारने वाला हत्यारा ही हुआ करता है।सौ-दो सौ को मारने वाला क्रान्तिकारी कहलाता है।मगर दुनियाँ को मार सकने की सामर्थ्य रखने वाला, सुन्दर सृष्टि का सत्यानाश कर डालने वाला,उद्धारक,दलित तारक,अवतारी कहलाता है। विध्वंसकारी बमों का पोषक भी शायद उन्हीं पांच सवारों में शामिल होने का स्वप्न देखता होगा।कूटनीतिक राजसत्ता का दमन चक्र चलाकर पीस दे निरीह जीवों को,तो प्रबुद्ध शासक कहलाए,स्वार्थ की आड़ में समाज में वैमनस्यता का बीज बो दे,भाई का भाई से सरेआम कत्ल करा दे,रंग-भाषा,जाति और कौम के नाम पर देश-देशान्तर में अराजकता और आतंक फैला दे,तो गणमान्य नेता कहलाये,धर्म का ढिंढोरा पीटकर,सम्प्रदायों का शिविर लगाकर पुराने सुर को नया ताल देदे,तो धर्मगुरू कहलाये,सत्य सम्पुटित असत्य का पैगाम घर-घर पहुँचाने का हुनर रखता हो तो पैगम्बर कहला सकता है।खटमल की तरह खून चूसने की चुपकी कला मालूम हो तो मसीहा भी बन सकता है।
     छिप कर डरते-डरते चोरी करने वाला चोर होता है,जान हथेली पर निर्भीकता पूर्वक धर कर लूट-पाट मचाने वाला डकैत;मगर तोंद पर हाथ फेरते बादाम-पिस्ते का बर्फी और हलवा खा-खाकर धर्म की डकार लेने वाला,धर्म के मोटे आवरण में अधर्म का ताण्डव मचाने वाला महाज्ञानी और संत कहलाता है।दर-दर भटकते भीख मांगने वाले को मुट्ठी भर दाना नहीं मिलता,परन्तु मुद्रा और स्वर्ण का त्यागी परिव्राजक सन्यासी- मनसा-वाचा-कर्मणा के मिथ्या त्रिदण्ड-धारी सुवर्ण सेज पर सुख से सोता है,नोटों का लिहाफ ओढ़ कर....। मगर यह अभागा कुछ नहीं होगा।न नेता,न प्रणेता,न अभिनेता,न विजेता,न गुरू,न पैगम्बर,न साधु न संत, न अवतारी, न क्रान्तिकारी यह कहलायेगा सिर्फ हत्यारा,वह भी एक निरीह बन्दर का, जिसने उसके मासूम लघु वंश-वृक्ष का विनाश कर दिया।दुनियाँ में कितने ही नवजात वा नवागन्तुक हर दिन मरते हैं,वा मार डाले जाते हैं,पर इसका हिसाब रखना भी फिज़ूल सा लगता है,कुछ ऐसा ही सोचकर,मानकर,जानकर वह उस बन्दर को भी माफ कर देता तो हत्यारा नहीं कहलाता,और न आज यह सब होता।परन्तु होनी तो हो कर रहेगी।कुछ ही देर में उस भूमि’ का भी सफाया हो जायगा,जहाँ वह वंशवृक्ष’ उगा था।ज़ाहिलों की ज़मघट जुटेगी,ईंट से ईंट बजा डालेगी।अभागे की सम्पत्ति लूट ली जायेगी,मासूम अबला का कत्ल कर दिया जाएगा,घर फूँक दिया जाएगा।
          और तब? चिनगारी छिटकेगी,विषैले धुँए से वातावरण विषाक्त हो उठेगा,कौमी एकता का बिगुल बजेगा। कटार,भाले,बर्छियाँ टकरायेंगी।खून की नदियाँ बहेंगी।रक्त की एक ही धार में अनेक कौमों की लाशें तैरेंगी,पर रक्त की धार जरा चूँ भी नहीं करेगी--तू हिंदू,तू पारसी,तू मुसलमान,तू इसाई...।चील कौए मंड़रा-मड़रा कर,ठोंकर मार-मार कर,नोच-नोच कर खायेंगे,जश्न मनायेंगे,और उधर अहिंसा का नकाब़ लगाकर हिंसा का पुजारी मगरमच्छ-सा आँसू बहायेंगे।मगर यह सब क्यों? इसी कारण न कि अभागा बन्दर मरा भी तो म्लेच्छ के हाथों।मरना ही था तो किसी और के हाथों मरता,आत्मा न सही महात्मा के हाथों मरता।
          अपने बच्चे को आप मारें कोई हर्ज नहीं,दूसरा यदि गलती करने पर भी आँख दिखावे...असह्य है।बूढ़ी वा वन्ध्या गाय बूचरखाने का मेहमान बनती है,क्यों कि हिंदू के दरवाजे पर उसका ठौर नहीं।आखिर बेचारा इनसान क्या-क्या करे ? घर में खाँय-खूँ करते बूढ़े-बूढियों को शरण दे,कि मरियल सी गायों को? महात्माओं की कुटिया में तो सिर्फ दुधारू गायों का महत्व है,जिसका दूध पीकर,हट्ठे-कट्ठे होकर तोंद हिलाकर ऊँचे-ऊँचे मंच पर उछल-उछल कर गोहत्या विरोधी लच्छेदार भाषणों का जाम मूर्ख जनमानस की प्याली में उड़ेल सकें।हिन्दू के द्वार पर भूखी गाय मरती है,पर कसाई मुसलमान कहलाता है।भूख- प्यास से तड़पाकर,बीमार बनाकर मार डालना हत्या के दायरे में थोड़े जो आता है।हिन्दू के हाथों मरी गाय सिर्फ गाय होती है,खूब हुआ तो गया-गंगा’ कर लिया;परन्तु मुसलमान के हाथों मरी गाय गोमाता हो जाती है।बहलवानों ने,हलवाहों ने न जाने कितने बैल मार डाले नरई ’ दे देकर,कोई बात नहीं-दस बच्चों में एक सन्तोष,गधा मारे कुछ ना दोष। ’पर यदि वही बैल मुसलमान के यहाँ मरे तो बैल की परिभाषा होगी- धर्मरूप’। हिन्दू के हाथ मरा बन्दर सिर्फ बन्दर होता है,मगर म्लेच्छ के हाथों मर कर हो गया हनुमान’....।
     विचारों की बाढ़ अचानक थम गयी।नारेबाजी के शोर से प्रशासन की प्रगाढ़ निद्रा भंग हो गयी,और फिर वही होने लगा,जो कच्ची नींद में झकझोर कर जगा देने से होता है--झल्लाहट...क्रोध...।संकटमोचन ने सबको संकट में डाल दिया। स्वच्छ,स्वस्थ, चिन्तनलीन खोपड़ी पर पुलिसिया डंडे बरसने लगे।भारी भीड़ तितर वितर होने लगी।लहराता हुआ एक डण्डा पड़ा बांस की ठटरी पर भी,और मृत शरीर में चेतना का संचार हो आया।पुलिस का डण्डा जादू की छड़ी बन गयी। पवन-सुत पलायन कर गये फु...र...र से उठ कर गुलमोहर के गाछ पर।
     डण्डे पड़ते खोपड़ी में फिर विचार कुलबुलाये----महाबीर जी की माया है सब- भक्तों की परीक्षा ले रहे थे।
                      $$$$इति श्री हनुमद्चरितम्$$$$

टिप्पणियाँ

  1. बात सन् 74-75 की है।मैं उन दिनों पटने में था।एक दिन एक मुसलमान का नन्हा सा बच्चा आंगन में सो रहा था,जिसे उठाकर एक बन्दर ले भागा।होहल्ला मचने पर बन्दर के हाथ से छूटकर बच्चा गिर कर कालकवलित हो गया।इस घटना को तथाकथित धर्मधुरंधरों ने और समाज के अन्धों ने सामप्रदायिक और राजनैतिक हवा देकर हिन्दू-मुस्लिम दंगे का रुप देने का प्रयास किया।बाद में किसी तरह मामला रछ-पछ हुआ।
    कुछ दिनों बाद जब मैं राम की नगरी अयोध्या में था- रात के अन्धेरे में एक साधु को एक बन्दर की लाश घसीटते देखा।पूछने पर पता चला कि यह दुष्ट बन्दर रोज आकर महात्मा को परेशान करता था।तंग आकर,आज मौका देख उसका काम तमाम कर दिया।
    इन दो घटनाओं ने जन्म दिया इस कथानक को।क्या हर बड़ी घटनाओं के पीछे कुछ ऐसी ही बात नहीं होती?

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