शंख की चूड़ी


                                   शंख की चूड़ी   
राष्ट्रधर्म’ जनवरी,१९९०                             कमलेश पुण्यार्क                                                  
                                
नीता के बाएँ हाथ में वर्षों से पड़ी आ रही शंख की चूड़ी आज अचानक टूट गयी।
हाँ, बाएँ हाथ वाली ही;दाएँ हाथ में थी ही कहाँ , जिसे टूटने न टूटने की बात होती। चूड़ी के टूटे टुकड़ों को एक-एक कर आँचल में समेटती हुई वह जीवन-लड़ी के अनेक छिन्न-विछिन्न कड़ियों पर वापस चलती चली गयी और अन्त में जो कुछ भी हासिल हुआ- वह रसहीन शून्य के सिवा और कुछ भी न था। शून्य से शुरू होकर शून्य में ही विलीन हो गयी उसकी स्मृतियाँ। फिर उन्हें सहेजने-संजोने का जरा ख्याल भी न किया उसने। स्मृतियों को स्मृतियाँ कहना अब उसे अच्छा भी नहीं लगता। सुनहरे भविष्य की रंगीन कल्पनाओं से उसे डर-सा लगने लगा है अब। कभी कोई कह भी दे यदि भविष्य के विषय में तो वह आँखें मूँद मौन हो जाती, मानों कान भी मूँद लिए हों।
        अपूर्ण वृत्ताकार शंख की चूड़ियों के प्रति नीता के हृदय में पहली बार अनुराग उत्पन्न तब हुआ था, जब उसकी दीदी रंजना रंगून से वापस आयी थी अपने नवविवाहित विदेशी पति के साथ। सुन्दर-सजीले-रोबीले भूरी आँखों वाले जीजा का मोह उसके मन में पैदा हो या नहीं दीदी के हाथेां की देशी चूड़ियाँ अवश्य ललचा गयी थी उसे। चूड़ी की विशेषताओं और मोल पर कई बार चर्चा भी चला चुकी थी दीदी से, जिसे सुन रसीले जीजा ने कहा था-अबकी बार इससे भी अच्छी चूड़ी तुम्हारे लिए ला दूँगा नीतू ! किन्तु जीजा का रससिक्त आश्वासन नेता का आश्वासन साबित हुआ, और अन्ततः संतोष कर लेना पड़ा- जब मेरी भी शादी होगी तब उनसे’ पहली फरमाइश शंख की चूड़ियों के लिए ही करूँगी।’
         शादी हो गयी। किन्तु पाँचवीं वर्षगाँठ तक भी अवसर न आया प्रकट कर सकने की अपनी चिर लालसा को। करती भी कैसे ! सामान्य मोल वाली काँच की चूड़ियेां के लिए ही जब कई महीनों के खर्चे में कटौती करनी पड़ती फिर शंख की चूड़ियों की क्या बिसात। बज़ट सत्र’ के ऐसे ही गर्मागर्म बहस के दौरान सौतेली सास ने एक दिन कह भी दिया था- क्यों नहीं बाप से कह कर लोहे की मज़बूत चूड़ियाँ बनवा लेती,रोज़-रोज़ का यह बखेड़ा ही मिट जाता...।’ बेरोज़गार बेटे की विमाता के चट्टानी दिल के उद्गार सुन दो बूँद आँसू बहा लेने के सिवा वह कर ही क्या सकती थी।श्रृंगार के समस्त प्रसाधनों को लोमड़ी के खट्टे अंगूर की तरह त्याग कर, पुड़िया वाली सिंदूर और काँच की साधारण-सी चूड़ियों को ही दुनियाँ का सर्वोत्तम श्रृंगार मान  बैठी थी;किन्तु हाँ ,बेरोज़गार की बीबी होने का दर्द उसे हर वक्त सालता रहता;परन्तु पति को परवाह न थी इसकी। वह तो कलाकार है, बेरोज़गार कहाँ। समाज उसकी कला को मान्यता दे या नहीं,इसकी भी चिन्ता नहीं है उसे। वह तो कला का अनन्य उपासक है, और, वस्तुतः कला भी उसी की चेरी है। कलाकार की कूँची से उतरी भवनाओं की सुन्दर नटी के हाथों में शंख की मोहक चूड़ियों को देख वर्षों से दबी चली आ रही अभिलाषा एक दिन जब अचानक देवदूती-सी प्रकट हो गयी आँसू की लड़ियों के सहारे; तब कलाकार का भावपूर्ण हृदय मर्माहत हो उठा-- तूने आज तक मुझसे कहा क्यों नहीं नीते?’ और फिर इस एक लघूत्तरीय प्रश्न के जवाब में अगणित नायिकओं के रंजक-सृजक कलाकार के प्रशस्त,लोमश,नग्न,श्रम-सिकर-सिक्त वक्ष पर सिर टिकाए नीता की सूनी आँखों ने बहुत कुछ कह डाला--प्लास्टिक के चप्पल पर गुज़ारा करने से लेकर दाढ़ी न बनवाने की दर्द भरी दास्तान तक। उसे याद आया वह दिन जब उसका कलाकार पति सैलून में बैठकर अचानक उठ आया था- इसलिए कि जेब में पड़ी इकलौती अठन्नी घंटों संघर्ष करती रही थी, हरीमिर्च की की दुकान में जाने को, क्योंकि सिर्फ रूखे नमक के साथ रोटी खाने की अपेक्षा कहीं अच्छा होगा नमक-मिर्च का संयोग। और फिर  सेविंग’ न’ करना उसकी आदतों में विलीन हो गयी।वैसे भी बढ़ी हुयी घनी दाढ़ी चिन्तातुर धँसे कपोल पर आवरण का काम करती थी। टप-टप चू रही आँसू की बूँद-बूँद में असंख्य यादों की दास्तान छिपाये पति के विराट वक्ष में समा जाने का अर्थहीन प्रयास करती रही वह ।
        तीन महीनों के घरेलू खर्च से काट-कपट कर एक बार तीस रूपये बचाये थे उसने,और सोची थी- आने वाले तीज-त्योहार के अवसर पर इनके’ हाथों रख दूँगी शंख की चूड़ियों के लिए। किन्तु उसी रात बड़कू को न्यूमोनिया हो गया और शंख की चूड़ियों का मोल दवा की दुकान में चला गया। और फिर न जाने कितनी बार उसने ऐसा किया- जोउ़-तोउ़ कर चूड़ियों के दाम बटोरे; किन्तु कुटिल भाग्य ने अट्टहास करते हुए झपट्टा मारा । छली भाग्य के अनोखे खेल को निज-कर्तव्य-दोष मानकर सन्तोष करती रही वेचारी ।                                                                                           
     पति की बाहों में सिमटी नीता घंटों सिसकती रही, और कलाकार का कोमल हृदय सुनता रहा- समवर्ती धड़कनों की अकथ्य ध्वनि को,और अन्त में एक ठोस निर्णय पर पहुँचा,पूर्व परिकल्पित आशा ने पुष्ट धरा दी- इस बार के मोहक शिल्प को मनभावन पुरस्कार अवश्य मिलेगा,और उस राशि का इससे सुन्दर सदुपयोग क्या हो सकता है- नीता की चिर दमित अभिलाषा-पूर्ति के सिवा!’ नीता ने इसके लिए विरोध भी किया- नहीं,मुझे नहीं चाहिये शंख की चूड़ियाँ....तुम अपने लिए कपडे़ बनवाओ.....पिछले तीन दशहरे गुजर गये यूँ ही....बीबी-बच्चों के कपड़े तो जुटा लेते हो किसी तरह.....बहुत दिनों से सोच रही हूँ तुम्हें सफारी’ में देखने को।’  
   धत् पगली अब क्या सफारी का फैशन रह गया है...और वैसे भी एक ही कपड़े के पैन्ट-शर्ट मुझे जँचते भी नहीं।’- वह वोला।
    शंख की चूड़ियों वाली कलाकृति वस्तुतः वेमिसाल थी,पुरस्कार के योग्य थी;किन्तु आया सिर्फ पत्रं-पुष्पं,सान्त्वना-पुरस्कार, परन्तु सहज तोषी को परम तुष्टि मिली,कम से कम समाज की दीर्घ निमीलित आँखें तो खुली,और सबसे बड़ी बात तो यह है कि वह अपनी संकल्प साधना में सफल होगा।
             हुआ भी यही। आर्ट-गैलरी से निकलकर सीधे पहुँचा चूड़ियों की दुकान में और फिर घर,जहाँ दोपहर से ही आकर इन्तज़ार कर रही थी छोटी साली मीता। मीता के कई पत्र आए थे। पिछले कई वर्षों से दोनों बहनों की मुलाकात का संयोग नहीं जुट पाया था। छोटी बहन के प्रति अतिशय स्नेह होते हुए भी बेचारी नीता चाह कर भी उसके पत्रों का जबाव न दे सकी थी। कहाँ रखती,क्या खिलाती- सारी समस्याएँ थी नीता के सामने;किन्तु दीदी के स्नेह सूत्र में बंधी मीता अचानक बिन बुलाए चली आयी।
      जीजा के हाथ में पैकेट देखते ही शोख चुलबली मीता बच्चों-सी झपट पड़ी- क्या लाए हैं मेरे स्वागत के लिए?’ और जीजा के जवाब का इन्तज़ार किए वगैर ही चट चूड़ियों का जोड़ा,पैकेट खोल अपने हाथ में ले, नन्हीं गुड़िया-सी नाच उठी- वाह! वाह!! इतनी सुन्दर शंख की चूड़ियाँ !!! ऐसी चूड़ियाँ तो फिरोज़ाबाद में भी नहीं मिलती।’ और अगले ही पल दीर्घ प्रतीक्षित शंख की चूड़ियाँ मीता की कलाइयाँ में खनकने लगी थी।
     कितनी फब रही हैं शंख की चूड़ियाँ इन कामदार फिरोज़ी चूडि़यों के साथ।’ - मीता की कलाइयों को अपने हाथ में लेकर ललचायी दृष्टि से सहलाती हुई नीता की सर्द भरी आवाज़ कमरे की बदरंग उबड़-खाबड़ दरारों में समाकर रह गयी। उधर पास खड़े कलाकार का मसला हुआ दिल नीता की निगाहों का पीछा कर रहा था। नीता की नम निगाहें कभी मीता की कलाइयों पर जातीं और चट फिसल कर अपनी कलाइयों पर चली आतीं- जिसमें मटमैली काँच की दो-दो चूड़ियाँ पिछले नौ-दस महीनों से पड़ी थीं।
       तीन दिनों बाद मीता वापस जाने को तैयार हुई। स्टेशन तक विदा करने नीता भी गयी। गयी क्या,दैव ने कुछ दिखाने के लिए यहाँ लाया उसे। भीड़ में हड़बड़ा कर गाड़ी चढ़ती मीता का हाथ गेट से टकराया, और नीता का दिल टूट गया हाँ, उसका दिल ही - जो विगत तीन दिनों से मीता की कलाइयों में कैद था। कितनी प्रतीक्षा के पश्चात् आयी थी शंख की चूड़ियाँ।कितने त्याग के बाद, और, कितनी जल्दबाजी में निकल गयी ! नीता कुछ सोच भी न सकी। कुछ कह भी न सकी। कहती भी क्या? नीता में सिर्फ कर्त्तव्य बोध है,अधिकार की आकांक्षा कभी न रही उसे। क्या ऐसा ही अधिकार दीदी रंजना के प्रति न था उसे?
        मीता की कलाई से चटकी चूड़ी नीचे पटरी पर बिखर गयी, किन्तु इसका उस पर कोई विशेष प्रभाव पड़ने का प्रश्न ही कहाँ था! ऐसी कितनी ही चूड़ियाँ उसके बैंगिल बॉक्स में बेकार पड़ी होंगी । और जब एक कलाई खाली हो ही गयी,फिर दूसरी पर अकेली चूड़ी शेाभा भी तो नहीं देती । सीट पर बैठने के साथ पहला काम मीता ने यही किया - बांयीं कलाई में बची पड़ी शंख की उस विरही जोड़ी को चट उतार फेंकने ही वाली थी,कि लपक कर नीता ने उसके हाथ थाम लिए- हैं ! यह क्या बचपना कर रही है मीते ! सुहाग की चीज कहीं ऐसे फेंकी जाती है?’ उस विच्छिन्न जोड़ी को कुछ पल अपनी नम आँखों से निहारने के बाद नीता ने बड़े सहज भाव से अपनी बांयी कलाई में पिरो ली ।
     और तब से वह अकेली शंख की चूड़ी नीता की बांयी कलाई पर मचलती आ रही थी;किन्तु आज उसकी भी वही गति हुयी जो वर्षों पूर्व उसकी दायीं जोड़ी की हुई थी- हाय रे भाग्य ! एक टकरायी ट्रेन के गेट से,और दूसरी घर के दरवाजे से !’
    चूड़ी के एक-एक टूटे बिखरे टुकड़ों को अपने गंदे आँचल में समेटती जा रही नीता सृष्टि की क्षणभंगुरता को कोसने लगती है। सर्वशक्तिमान की परम सत्ता पर पल भर के लिए संदेह की दृष्टि गड़ जाती है - सृजक ! तू इतना महान है,फिर तेरी सर्जना इतनी क्षणभंगुर क्यों?....क्यों मिलाता है....क्यों बिछड़ाता है.....अणु-अणु में व्याप्त तेरी सत्ता क्या करना...क्या कहना....क्या समझाना चाहती है? मिलन के बाद बिछुड़न क्यों आवश्यक है....बिछुड़न के बिना मिलन सम्भव नहीं है क्या?...बिछुड़न और मिलन....मिलन और बिछुड़न...क्या ये दोनों अलग हैं या एक ही गत्यमान चक्र के दो काल-खण्ड हैं...? पाना और खोना,खोना और पाना ... टूटना आौर जुड़ना,जुड़ना और टूटना....संयोजन और वियोजऩ़़..वियोजन और संयोजन ...कौन सा खेल खेलते हो तुम...क्या आनन्द आता है इसमें...इस खेल में...कैसा खेल है तुम्हारा...क्या यह सब खेल है या कि सच्चाई? यदि यह खेल है तो फिर इतनी कठोर परीक्षा क्यों? यदि सच्चाई है,फिर प्रश्न कहाँ रह जाता है परीक्षा का....किन्तु नहीं,तुम लेते हो...पल-पल लेते हो...कठोर से कठोर परीक्षा लेते हो...क्या कभी तुमने सोचा - यदि कभी कोई तुम्हारे बार-बार की कठोर परीक्षा से उकता जाए..घबरा जाए..विकल...बेचैन हो जाए और अन्त में लाचार....असफल हो जाए,.... तब क्या होगा उसका परिणाम !....नहीं,...नहीं सोचा तुमने ... तुम सोचोगे भी नहीं....यदि तुम सोचते होते तो आज यह चूड़ी चटकती ही क्यों....?
                    ()()()(राष्ट्रधर्म,जनवरी,१९९०)()()()

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