दाम्पत्य-सुख-बाधकःःःःकुछखास बातें

दाम्पत्य-सुख-बाधकःःःःकुछखास बातें

वर्तमान समय की एक विकट समस्या है- दाम्पत्य-सुख-बाधा।ऐसा नहीं है कि यह पहले नहीं था,किन्तु ये अवश्य कहा जा सकता है कि दिनोंदिन समस्या काफी तेजी से बढ रही है।इसके अनेक कारण हैं- नैतिक,सामाजिक,आर्थिक, दैहिक...।किन्तु हम यहाँ सिर्फ इसके ज्योतिषीय पक्ष पर विचार कर रहे हैः-
(१)  मांगलिक दोष
नवग्रहों में मंगल को सामान्य तौर पर मंगलकारी मान लिया जाता है,किन्तु यह बात आंशिक सत्य है।जन्मकुण्डली में मंगल कहीं भी बैठें हो तो मंगलकारी ही हों- ऐसी बात नहीं है।सच ये है कि मंगल कहाँ(किस घर में)किस राशि में,किस ग्रह के साथ बैठे हैं,और उन पर किसकी दृष्टि पड़ रही है- आदि अनेक बातों पर उनका शुभाशुभ प्रभाव निर्भर है।इस प्रसंग में कुछ खास बातों पर विचार करते हैं। शास्त्र वचन है - लग्ने व्यये च पाताले यामित्रेचाष्टमे कुजः।कन्यायाः भर्तृ नाशाय, भर्तुः पत्नी विनाशकृत्।। अर्थात् यदि वर-कन्या की जन्म कुण्डली में लग्न,चौथे बारहवें,सातवें,और आठवें घर में मंगल बैठे हों तो यह क्रूर फलदायी हैं,जिसके परिणाम स्वरुप कन्या वर को और वर कन्या को मार सकती है।यदि उनके अन्य शुभग्रहों के प्रभाव से मृत्यु न भी हो तो,मृत्यु तुल्य कष्ट,या दाम्पत्य-सुख की बाधा तो झेलनी ही होगी।यह बाधा कब आयेगी-इसके लिए कुण्डली की अन्य ग्रहस्थियाँ जिम्मेवार हैं।शीघ्र भी आसकती हैं,और देर से भी।अतः कुण्डली का गहन विचार आवश्यक है।दूसरी बात ध्यान देने योग्य ये है कि मंगलग्रह की इस स्थिति का विचार लग्न कुण्डली और चन्द्र कुण्डली दोनों से करना चाहिए, क्यों कि दोनों का समान दोष है।प्रायः लोग चन्द्रमा जनित मांगलिक दोष को हल्का मान लेते हैं,किन्तु बात ऐसी नहीं है।इस सम्बन्ध में एक और विशेष बात जान लेने जैसी है कि उक्त(१,४,७,८,१२)भावों  में मंगल के स्थान पर राहु,शनि,केतु आदि कोई भी पाप ग्रह हों तो भी मंगल के समान ही दोषी होता है।यानी सिर्फ मंगल से ही नहीं,बल्कि उक्त चारों ग्रहों से दाम्पत्य-सुख-नाशक योग का विचार करना चाहिए। क्रमशः....

दाम्पत्य-सुख-बाधकःकुछखास बातें-(२)
इस प्रसंग में पुनः कुछ ऐसे ही ग्रह योगों की चर्चा करते हैं-
व्ययेऽष्टमे भूमिसुतस्य राशि,वर्गौ सपापे भवतीह रण्डा।
मदे कुलीरे सरवौ कुजेऽपि,धवेन हीना रमतेऽन्यलोकैः।। अर्थात् मंगल की राशि यानी मेष या वृश्चिक राशि का राहु आठवें या बारहवें भाव में हो, पापग्रहों से युक्त हो,तथा सप्तम भाव में कर्क(यानी अपनी नीच राशि पर) मंगल हों,सूर्य की युति भी हो तो वह सदा दाम्पत्य-सुख में बाधक होता है।(यह श्लोक स्त्री को लक्ष्य करके कहा गया है,किन्तु गौरतलब है कि इसका प्रभाव पुरुष-स्त्री दोनों की कुण्डली पर विचार किया जाना चाहिए)कथन का अभिप्राय मात्र यही है कि उक्त ग्रहस्थितियाँ किसी न किसी प्रकार से दाम्पत्य-सुख में बाधक होंगी ही,चाहे वह पुरुष की कुण्डली में हों या कि स्त्री की कुण्डली में।पुनः कहते हैं-
पापग्रहे सप्तमगे वलोने,शुभेन दृष्टे पतिसौख्यहीना।स्यातां मदे भौमकवी सचन्द्रौ, पत्याज्ञया सा व्यभिचारिणी स्यात्।।अर्थात् यदि पापग्रह बलहीन होकर सप्तम भाव में हों,और शुभग्रहों की दृष्टि रहित हों,तो वह दाम्पत्य-सुख में बाधक होता है।यहाँ एक खास बात का संकेत है कि सातवें स्थान पर पापग्रह मंगल के साथ शुक्र और चन्द्रमा दोनों बैठे हों तो पुरुष-स्त्री दोनों एक-दूसरे की प्रेरणा से व्यभिचार में लिप्त होते हैं।आम तौर पर माना जाता है कि शुक्र और शुभ चन्द्रमा(पाप नहीं) मंगल के दोष का निवारण करते हैं।ध्यातव्य है कि शुभत्व इन दोनों के अकेले होने पर की बात है।दोनों यदि साथ हो जायेंगे तो गुण भी दोष में बदल जायेगा।

इस प्रसंग में आगे कहते हैं-
पापग्रहे सप्तमलग्नगेहे,भर्ता दिवं गच्छति सप्तमेब्दे।
निशाकरे चाष्टमवैरिभावे, तदाष्टमेब्दे निधनं प्रयाति।।अर्थात् सातवें वा आठवें घर में कोई पापग्रह हों तो विवाह के सातवें वर्ष में वियोग(मृत्यु,तलाक,परित्याग आदि) होता है,और चन्द्रमा यदि छठे या आठवें घर में हो तो उक्त दुर्घटना आठवें वर्ष में होती है। पुनः कहते हैं- सप्तेशोऽष्टमे यस्याः,सप्तमे निधनाधिपः।पापेक्षणयुतो बाला, वैधव्यं लभते ध्रुवम्।।अर्थात् सातवें घर का स्वामी आठवें घर में और आठवें घर का स्वामी सातवें घर में हो,तथा उन पर पापग्रहों की दृष्टि हो तो निश्चित ही दाम्पत्य-सुख-भंग होता है।लगभग इसी भाव का संकेत करता अगला शास्त्रवचन है-सप्ताष्टमपती षष्ठे,व्यये वा पापपीडिते।तदा वैधव्य माप्नोति,नारी नैवात्र संशयः।। अर्थात् सातवें वा आठवें घर का स्वामी पापग्रहों से पीड़ित होकर छठे वा बारहवें घर में हो तो निश्चित ही दाम्पत्य-सुख बाधित होता है।क्रमशः....

दाम्पत्य-सुख-बाधकःकुछखास बातें-(३)
दाम्पत्य-सुख-बाधक कुछ और स्थितियों की चर्चा करते हैं-
द्वादि पापयुते भौमे सप्तमे वाष्टमेस्थिते।वालवैधव्ययोगःस्यात् कुलनाशकरी बधू।।अर्थात् दो,या दो से अधिक पापग्रहों से युत मंगल यदि सप्तम वा अष्टम भाव में हों तो  प्रबल वैधव्य योग के साथ कुलनाश की स्थिति बनती है।पुनः कहते हैं-
लग्ने पाप ग्रहैर्युक्ते,नीचशत्रु गृहंगते।
अष्टमे वत्सरे चैव दाम्पत्योर्नशुभावहः।।         
अर्थात् लग्न में यदि पापग्रह हों,अथवा लग्नेश नीच होकर शत्रुगृही होजाय तो विवाह के आठवें वर्ष में निश्चित ही वियोग(मृत्यु,तलाक,परित्याग- आदि अन्य ग्रहस्थितिनुसार) की स्थिति बनती है।अब आगे विशेष कर शनि को लक्ष्य करके कहते हैं कि-
अंगारके मदन मन्दिर मिन्दुभावं,मन्दान्वितेहरिभगे जननेऽङ्गनायाः।
वैधव्यमेव नियतं कपटप्रबन्धात्,वाराङ्गना भवति सैव वराङ्गनापि।।अर्थात् जिस कन्या की कुण्डली के सप्तम् भाव में कर्क का मंगल (नीचस्थ मंगल)हो,अथवा सिहं राशि का होकर, शनि से युत हो सप्तम भाव में, तो वैसी कन्या कुकर्म रत होकर वैधव्य दुख को प्राप्त करती है,यानी विधवा तो होगी ही,कुकर्मी भी होगी।यहाँ सीधे कथन कन्या-प्रसंग में है,किन्तु विचारणीय है कि यही ग्रह स्थिति यदि पुरुष की कुण्डली में होगी तो क्या होगा? परिणाम लगभग समान ही होगा।पत्नी का नाश होगा(जिस किसी कारण से)और वह पुरुष लम्पट,कुटिल,दुष्ट,और चरित्रहीन होगा।
आगे कहते हैं-मदनभावगते तपनात्मजे,पतिरतीव गदाकुलितोभवेत।
           मलिनवेषधरो विमलोमहान्,जनुषि तुङ्गगते प्रवरोधनी।।अर्थात् जन्म कुण्डली में शनि सप्तम भाव में हो तो उसका पति/पत्नी रोग से व्याकुल हो या अति मलिन वेष वाला,निर्बल,सदा दुःखी रहे- यानी एक दूसरे के रोगादि पीड़ा से परेशानी रहेगी।संयोग से शनि यदि अपनी उच्चराशि (तुला) में सप्तमस्थ हो,यानी जातक मेष लग्न वाला हो,तो धन और बल तो होगा,किन्तु फिर भी स्वस्थ्य सम्बन्धी दुःख झेलना ही पड़ेगा।अब आगे राहु को लक्ष्य करके कहा जा रहा है-
सप्तमे सिंहिकापुत्रे कुलदोष विवर्द्धिनी,नारीसुखपरित्यक्ता तुङ्गेस्वामी सुखान्विता।।
यदि राहु सातवें घर में हो तो कुलकलंकी होता है,किन्तु राहु सप्तम भाव में उच्च (मिथुन)का हो तो विपरीत स्थिति होती है,यानी राहु दोष गुण में बदल जाता है। दाम्पत्य-सुख में वृद्धि होती है।क्रमशः...

दाम्पत्य-सुख-बाधकःकुछखास बातें-(४)
पूर्व प्रसंगों में विभिन्न प्रकार के दाम्पत्य-सुख-बाधक योगों की चर्चा की गयी। अब तत् कुण्डली में ही उन दोषों के परिहार की चर्चा करते हैं,कि किन-किन स्थितियों में दोष होते हुए भी निर्दोष की स्थिति हो जाती है-
यामित्रे च यदासौरिर्लग्ने वा हिवुकेऽथवा।अष्टमे द्वादशे वापि भौमदोष विनाशकृत्।।
अर्थात् यदि वर वा कन्या की कुण्डली में शनि उक्त(एक,चार,सात,आठ,बारह)भाव में हो तो मंगल का दोष नहीं लगता।एक अन्य मत से कहा गया है-
शनिर्भौमोऽथवाकश्चित् पापो वा तादृशोभवेत्।तेष्वेव भवनेष्वेवभौमदोष विनाशकृत्।।
यानी वर या कन्या की कुण्डली में शनि अथवा मंगल या कोई अन्य पापग्रह उन्हीं भावों में हों तो दोष कट जाता है।(उक्त नियमों का स्पष्ट संकेत है कि वर कन्या की कुण्डली में सामंजस्य हो तो दोष का निवारण होजाता है,यह ठीक वैसे ही है जैसे दो विपक्षियों के पास एक ही तरह के हथियार हों तो ज्यादा उम्मीद होती है कि कोई भी अपने हथियार का प्रयोग करने में हिचकेगा,अर्थात् नहीं चलायेगा।
पुनःकहते हैं-गुरुःकेन्द्रे त्रिकोणेवा लाभभावे दिवाकरे।शत्रुस्थाने गते राहौ न दोषो मंगलोद्भवः।।अर्थात् वर-कन्या की कुण्डली में गुरु यदि केन्द्र वा त्रिकोण में हो, और लाभ स्थान में सूर्य हों,छठे भाव में राहु हों तो भी मंगल का दोष नहीं लगता।तथाच-
भौमतुल्यो यदा भौमः,पापो वा तादृशो भवेत्।
                       अथवा गुणवाहुल्ये,न दोषोमंगलोद्भवः।।
भौमतुल्यो यदा भौमः,पापो वा तादृशो भवेत्।
                       उद्वाहः शुभदः प्रोक्तः चिरायुः पुत्रपौत्रदः।।
इस श्लोकों का भी भाव उपर के श्लोक जैसा ही है,यानी वर-कन्या की कुण्डली में ग्रह जनित साम्य हो- मंगल के जगह मंगल हो,या अन्य तद् रुप ग्रह हों (राहु, शनि आदि)तो एक दूसरे का दोष काट देते हैं;और विवाह उत्तम माना जाना चाहिए।अब आगे विभिन्न दोषों के  परिहार की चर्चा करते हैं-
लग्नाद्विधोर्वा यदि जन्मकाले,शुभग्रहोवा मदनाधिपश्च।द्युनस्थितो हन्त्यनपत्य दोषं, वैधव्य दोषं च विषाङ्गनारव्यम्।।अर्थात् लग्न वा चन्द्रमा से विचार करने पर शुभग्रहों की स्थिति अनुकूल हो, और सप्तमेश सप्तमस्थ हों तो अनपत्य,वैधव्य, विषकन्या आदि दोषों का नाश होता है।
केन्द्रे कोणेशुभासर्वे,त्रिषडाये प्यसद्ग्रहाः।तदा भौमस्य दोषो न मदने मदपस्तथा।।
अर्थात् सभी शुभग्रह केन्द्र वा कोण में हों,और सभी पापग्रह तीन,छः,ग्यारह में हों तथा सप्तमेश सप्तमस्थ हों तो मंगल का दोष नहीं लगता।अस्तु।
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दाम्पत्य-सुख-बाधकःकुछखास बातें-(५)—

उपायः-
अबतक के प्रसंगों(चार कड़ियों)में दाम्पत्य-सुख-बाधक योगों और उनके परिहारों पर चर्चा के बाद अब कुछ उपायों पर चर्चा करते हैं:~
1.      दाम्पत्य-सुख-बाधक दोष निवारण के लिए सिद्ध किए हुए मंगलयन्त्र की उपासना करनी चाहिए।(इसकी चर्चा पूर्व प्रसंगों में की जा चुकी है- इस ब्लॉग के गत पोस्ट का अवलोकन करना चाहिए).
2.      नित्य गोबर का गौरी-गणेश बना कर पंचोपचार पूजन करना चाहिए।
3.      शिवजी को ग्यारह दूर्वा,दही,और हल्दी नियमित चढ़ावे और आशीष मांगे कि हे प्रभो आप मेरा मांगलिकदोषादि को नष्ट करें। सोमवार को शमी पत्ता और बेल पत्ता दोनों ग्यारह-ग्यारह की संख्या में चढ़ाने से भी उक्त लाभ होता है।ये दोनों काम एक साथ भी किया जा सकता है।
4.      सिद्ध किए हुए नवग्रह यन्त्र की नियमित पूजा करने से भी सभी प्रकार के ग्रहजनित दोषों का निवारण होता है।
5.      वैधव्य दोष यदि बहुत प्रबल हो तो विवाह के पहले कुम्भ विवाह,विष्णु विवाह या अश्वस्थ विवाह करा देना चाहिए।इसके विस्तृत विधान के लिए शास्त्रीय ग्रन्थ कुम्भविवाहपद्धति का अवलोकन करना चाहिए।अस्तु।

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